विश्र्वास-मत पर मात खाये वामपंथी दलों का न्यूक विरोधी तेवर अब ढीला हो चुका है। पहले की तरह अब वे समर्थन वापसी की बंदर-घुड़की से संप्रग सरकार को डराने की हैसियत में नहीं रह गये हैं। हॉं, यह और बात है कि वह अपने आंदोलन का लाल सिग्नल सड़क पर गाड़ कर इसे आगे न जाने की चेतावनी भले दें, लेकिन इससे अब न्यूक डील का आगे बढ़ना किसी कीमत पर नहीं रोका जा सकेगा। जहॉं तक इस मुद्दे पर विपक्ष की भाजपा के विरोध का सवाल है, उसका विरोध वामपंथियों की तरह इस मुद्दे पर सैद्घांतिक कभी नहीं रहा। अब तक उसने इसका प्रतीकात्मक विरोध ही किया है। कारण भी स्पष्ट है कि उसकी भी नीतियॉं अमेरिका-विरोधी नहीं हैं और असैन्य परमाणु समझौता कुछ हेर-फेर के साथ वह भी चाहती है। इस दृष्टि से अब इस करार के बाबत राष्टीय स्तर पर जो विरोध है, वह राजनीतिक है और सरकार विश्र्वास मत हासिल करने के बाद इसे अमलीजामा पहनाने की दिशा में अब बेरोक-टोक बढ़ सकती है।
लेकिन इस समझौते को रोकने की कोशिशें एकदम समाप्त हो गई हैं, ऐसा नहीं है। हॉं, घरेलू स्तर पर उभरने वाले विरोध ने अब अन्तर्राष्टीय छलांग लगा ली है। इस विरोध की कमान अब पाकिस्तान ने संभाल ली है। उसके इस विरोध के पीछे छिपे तौर पर चीन की भूमिका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। विगत 18 जुलाई को पाकिस्तान की ओर से आईएईए तथा एनएसजी के सभी सदस्य देशों, जिनकी संख्या 60 है, एक चेतावनी पत्र भेजा गया है। पत्र में कहा गया है कि आईएईए के साथ भारत के विशिष्ट मानक सुरक्षा समझौते से परमाणु अप्रसार के प्रयासों पर प्रभाव पड़ेगा और उपमहाद्वीप में इससे हथियारों की होड़ की आशंका भी बढ़ेगी। हालॉंकि उसके विदेशमंत्री शाह महमूद कुरेशी ने एक बयान में यह भी स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान न्यूक डील के मुद्दे पर कोई अड़ंगा नहीं खड़ा करना चाहता, लेकिन वह यह ़जरूर चाहता है कि इसी आशय का एक करार पाकिस्तान के साथ भी होना चाहिए। भारतीय विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी ने “हथियारों की होड़ बढ़ने’ के पाकिस्तानी आरोप को खारिज करते हुए कहा है कि भारत-अमेरिका परमाणु करार पूरी तरह असैनिक मुद्दा है और इसमें परमाणु शस्त्रीकरण के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रणव मुखर्जी ने बड़ी दृढ़तापूर्वक भारत का पक्ष रखते हुए कहा है कि परमाणु अप्रसार की बाबत भारतीय दृष्टिकोण का समर्थन अन्तर्राष्टीय स्तर पर स्वीकृत है।
दरअसल पाकिस्तान इस समझौते का सदैव से विरोधी रहा है। बुश और मनमोहन के बीच 2005 में यह समझौता होने के बाद उसने अन्तर्राष्टीय स्तर पर भारत के प्रति यह संदेह पैदा करने की कोशिश की कि इस समझौते को असैन्य नाम देने के बावजूद इसकी आड़ में भारत अपने सैनिक हितों की ही पूर्ति करेगा। उस समय अमेरिका स्थित पाकिस्तान-लॉबी ने इसे रोकने के लिए अमेरिकी शासन-प्रशासन और सीनेट पर जमकर दबाव बनाया कि यह समझौता भारत के साथ न हो सके। इस भारत-विरोधी प्रचार को कुछ ताकत इस वजह से भी मिल रही थी कि भारत ने सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर नहीं किया था। अमेरिकी कानून भी इस तरह के समझौते के विरोध में था। लेकिन अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की दृढ़ता ने सारे विरोधों को हाशिये पर डाल दिया और उनकी पहल पर ही अमेरिकी कानून में संशोधन भी संभव हो सका। लिहाजा पाकिस्तान समर्थक लॉबी के विरोध परवान न चढ़ सके। पाकिस्तान ने अपने विरोध को दुधारी तलवार की शक्ल दिया था। पहले तो वह यह चाहता था कि भारत के साथ यह समझौता न हो और दूसरे वह यह चाहता था कि अगर हो भी तो अमेरिका पाकिस्तान के साथ भी ऐसा ही समझौता करे।
जॉर्ज बुश जब पिछली बार भारत-पाकिस्तान यात्रा पर आये थे तो उनके समक्ष पाकिस्तानी राष्टपति मुशर्रफ ने यह सवाल उठाया था। बुश ने बड़ी संजीदगी से जवाब देते हुए कहा था कि परमाणु अप्रसार के मामले में भारत की विश्र्वसनीयता असंदिग्ध है। इसका एक अर्थ यह भी था कि इस बाबत पाकिस्तान शुरू से अविश्र्वसनीय रहा है। उसके परमाणु वैज्ञानिक अब्दुल कदीर खान ने मुक्त हस्त से परमाणु टेक्नोलॉजी दुनिया के कई देशों को बॉंटी है। अतः कम से कम परमाणु अप्रसार के मामले में उस पर किसी कीमत पर य़कीन नहीं किया जा सकता। बुश की ओर से निराश होने के बाद वह हार मान कर चुप बैठ गया हो, ऐसा भी नहीं है। भीतर-भीतर इस करार को असंभव बना देने की कोशिशें वह अन्तर्राष्टीय स्तर पर शुरू से करता रहा है। बीच में उसकी हलचल कुछ इस वजह से शांत हो गई थी कि उसे यह यकीन हो गया था कि संप्रग सरकार की पालकी ढोने वाले वामपंथी इसे हर हाल में रोक देंगे। अब जब वामपंथी दल सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर भी इस डील के बढ़ते पॉंवों में जंजीर नहीं डाल सके तो पाकिस्तान को विरोध में खुल कर सामने आना पड़ा है। उसके साथ चीन के भी शामिल होने की संभावना इस कारण बनती है कि ऊपर से सारी सदाशयता दिखाने के बावजूद वह अपने प्रतिस्पर्धी भारत को मजबूत होता तो नहीं ही देख सकता। रह गई विरोध की बात तो इस बात का ध्यान रखना होगा कि आगे की कार्यवाही को अंजाम तक ले जाने की जिम्मेदारी अब अमेरिका की है।
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