पद बढ़ रहा है, कद नहीं

अंतर्राष्टीय श्रम संगठन (आईएलओ) के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि रोजगार की दुनिया में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है लेकिन संख्या बढ़ने के बावजूद रोजगार में महिलाओं का रुतबा नहीं बढ़ रहा है। यह लगभग वैसा ही है कि जैसे फौज में बड़े पैमाने पर आजादी के पहले हिंदुस्तानी सिपाही तो होते थे, मगर हिंदुस्तानी ऑफिसर बहुत ढूँढने पर ही मिलते थे।

संक्षेप में यह स्थिति इस बात की तस्दीक करती है कि महिलाओं के महत्व के कामों में मौका नहीं मिल रहा है। इस समय दुनिया में लगभग 1.24 अरब महिलाएं नौकरी कर रही हैं यानी उन्हें सिाय रोजगार हासिल है। लेकिन अगर महिलाओं की कमाई और उनके रोजगार की दुनिया में महत्व का आकलन पुरुषों के परिपेक्ष्य में करें तो यह बात बिल्कुल दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है कि महिलाओं को न तो कमाई में वह हैसियत हासिल है जो पुरुषों को हासिल है और न ही उन्हें वह रुतबा हासिल है जो पुरुषों को मिलता है। यह लगभग वही स्थिति है जो कमोबेश भारतीय परिवारो में महिलाओं की होती है। महिलाएं तमाम निर्णय लेने वाली समझी जाती हैं। लेकिन उनके द्वारा लिए गए ज्यादातर आर्थिक और नीतिगत निर्णय, पुरुषों की इच्छा के अनुकूल होते हैं। तभी वह उन्हें मान्य होते हैं।

लगभग इसी तरह की स्थिति रोजगार और श्रम की दुनिया में भी देखने को मिलती है। हालांकि पिछले दो दशकों में महिलाओं की रोजगार की स्थिति में अच्छा-खासा सुधार हुआ है। पहले जहां रोजगार हासिल करने के मामले में पुरुषों और महिलाओं में भारी फर्क देखा जाता था, वहीं 2007 में यह फर्क घटकर लगभग एक फीसदी रह गया। आईएलओ की रिपोर्ट के मुताबिक रोजगार से वंचित महिलाओं की संख्या 6.4 फीसदी है जबकि पुरुषों की संख्या 5.7 प्रतिशत है। इस तरह देखें तो दोनों के बीच बेराजगारी के मामले में महज एक फीसदी का फासला है। लेकिन रोजगारशुदा महिलाओं और पुरुषों की आय में भी 30 से 35 फीसदी का फर्क है। कहने का मतलब यह है कि औसतन पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले 30 से 35 फीसदी उजरत ज्यादा मिलती है।

महिलाओं की आय में पुरुषों के मुकाबले इस भारी कमी के कारण जितने वास्तविक हैं उससे कहीं ज्यादा इन कारणों के पीछे मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रह हैं। महिलाओं को सेवा क्षेत्र में अधिक से अधिक मौका दिया जाता है, यह मानकर कि महिलाओं में सेवा के जन्मजात गुण होते हैं। हालांकि हाल के दशकों में एशिया पैसिफिक और कुछ दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं ने दिखाया है कि तकनीकी क्षेत्र में भी वह उतनी ही काबिलियत रखती हैं; बशर्ते उन्हें पुरुषों की तरह मौका मिले। एक और बड़ा फर्क जो पुरुषों और महिलाओं के रोजगार की प्रोफाइल में देखने को मिलता है, वह यह है कि पुरुषों को आमतौर पर घर से बाहर की और विशुद्घ आर्थिक आय वाले रोजगार की गतिविधियों में ज्यादा तरजीह दी जाती है। जबकि महिलाओं को आमतौर पर घरों के अन्दर ही श्रम गतिविधियों में लगाया जाता है। हालांकि महिलाओं में विभिन्न शोध अध्ययनों के दौरान घर से बाहर के वैतनिक श्रम में ज्यादा रुचि देखी गई है।

इसके विपरीत महिलाओं के साथ एक और भेदभाव बरता जाता है, वह यह है कि महिलाओं की रोजगार आय कई खंडो में बंटी होती हैं। शादी के पहले, शादी के बाद बच्चे होने आदि के दौरान महिलाओं को बीच-बीच में अपने रोजगार गतिविधि यानी नौकरी में विराम भी लेना पड़ता है।

भारत और भारतीय उप-महाद्वीप की महिलाओं को अक्सर अपनी रोजगार आयु में कम से कम तीन बड़े ब्रेक लेने ही पड़ते हैं। ज्यादातर महिलाएं भारतीय उप-महाद्वीप में नौकरी करना शादी के पहले शुरू करती हैं और जब उनकी शादी हो जाती है तब यह जरूरी नहीं है कि उनकी नौकरी बरकरार ही रहेगी। तमाम को नौकरी छोड़नी पड़ती है। अपनी सुविधा के चलते तो कईयों को अपनी ससुराल के दबाव-वश नौकरी को विराम देना पड़ता है। इसके बाद अगर महिलाएं नौकरी में बनी रहती हैं तो उन्हें दूसरा संभावित विराम तब देना पड़ता है जब वह मां बनती हैं। आमतौर पर पुरुष कहते हैं कि वह बच्चों को बड़ा करें। जब बच्चे बड़े हो जाएं तो फिर से नौकरी करें। इस सिलसिले में 35 फीसदी महिलाएं बच्चे पालने के लिए विराम लेने के बाद दोबारा नौकरी पर नहीं लौट पाती हैं। बाकी जो लौटती भी हैं वह अपने सहकर्मियों के मुकाबले काफी पिछड़ चुकी होती हैं। बच्चा पालने के लिए, लिये गए अवकाश के कारण महिलाएं उस दौरान के कामकाज और पेशागत हुई तरक्की के साथ तालमेल बिठा पाने में अक्सर असमर्थ पाई जाती हैं।

सिर्फ कामकाज की शैली में हुई उन्नति के चलते ही महिलाएं नहीं पिछड़तीं बल्कि उत्साह, आइडिया और लक्ष्य व महत्वाकांक्षा के मामले में भी महिलाएं पिछड़ जाती हैं। यही कारण है कि अगर इस दूसरे विराम के बाद महिलाएं दफ्तर लौटती भी हैं तो वह वहां तक नहीं पहुंच पाती है जहां इनके पुरुष सहकर्मी पहुंचते हैं। यह रोजगार के क्षेत्र में दक्षिण एशिया की महिलाओं के साथ सामाजिक भेदभाव के जैसा है। महिलाओं के साथ रोजगार के क्षेत्र में एक भेदभाव यह भी बरता जाता है कि आमतौर पर उन क्षेत्रों से उन्हें दूर रखा जाता है जो क्षेत्र विकास के दौर से गुजर रहे होते हैं। महिलाओं को ऐसे क्षेत्रों में श्रेय लेने का हकदार नहीं बनाया जाता है। उन्हें बेहद पारंपरिक क्षेत्रों में ही लगाया जाता है, जैसे पहले 50 फीसदी से ज्यादा महिलाएं कृषि क्षेत्र में कार्यरत थीं। क्योंकि तब तक यह क्षेत्र निरंतर उन्नत तकनीक नहीं हासिल कर पा रहा था। उसी तरह आजकल महिलाओं को बड़े पैमाने पर सेवा क्षेत्र में भागीदारी दी गई है। सेवा क्षेत्र की भागीदारी भी पारंपरिक क्षेत्र के जैसे ही है। क्योंकि यहां भी महिलाओं को ज्यादा कुछ करना नहीं पड़ता।

इस तरह कुल मिलाकर देखें तो रोजगारशुदा महिलाओं की संख्या में भले हाल के सालों में इजाफा हुआ है मगर उनकी तकनीकी क्षमताओं, नीतिगत निर्णय लेने की ताकत और नई उपलब्धियों के लिए श्रेय पाने के मामले में कतई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। यह चिंताजनक इसलिए है क्योंकि यह महिलाओं की स्वाभाविक क्षमताओं के साथ जानबूझ कर की जा रही हरकतों का नतीजा है। इसलिए जितनी जल्दी हो सके, यह स्थिति खत्म होनी चाहिए।

 

– वीना सुखीजा

 

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