आज दुनिया में विज्ञान की बहुत चर्चा है। अमेरिका में विज्ञान बहुत आगे बढ़ा है। अमेरिका के अंतरिक्ष-यात्री दो बार चांद तक हो आये, तीसरी बार नहीं पहुँच सके तो अभिमान के कारण। मैं जब अमेरिका में था तो डलास, शिकागो और कई दूसरी यूनिवर्सिटियों में मैंने विज्ञान के विद्यार्थियों और विज्ञानवेत्ताओं के सामने भाषण दिये और बार-बार कहा देखो! तुमने विज्ञान में उन्नति की है अवश्य, परन्तु अभिमान में न आओ, तुम्हारा विज्ञान इतनी बड़ी उन्नति के पश्चात् भी अभी शैशवावस्था में है। भगवान् राम लंका से अयोध्या में आये तो रामायण कहती है कि उनके पुष्पक नाम के वायुयान में उनके अतिरिक्त उनकी पूरी सेना थी और यह सेना दस-बीस, या दो-चार सौ मनुष्यों की तो नहीं थी, हजारों लोग थे उसमें, हजारों योद्घा, सैकड़ों सेनापति। क्या तुम्हारे पास ऐसा वायुयान है जिसमें एक साथ दस-बारह या पन्द्रह हजार आदमी बैठ सकें?
और फिर यह त्रेता युग की बात है, लाखों वर्ष पहले की बात। आज से केवल पॉंच हजार वर्ष पहले की, महाभारत की बात सुनो। महाभारत में एक राजा का वर्णन आता है जिसका नाम “शां-सू’ था। उस राजा की पूरी राजधानी उड़ती फिरती थी – आज यहॉं कल वहॉं, क्योंकि यह राजधानी एक वायुयान में थी। इस वायुयान में बाजार थे, दुकानें थी, होटल थे, सिनेमाघर, और थियेटर भी, नहाने के तालाब, खेलने के मैदान, अस्पताल, अदालतें, कचहरियॉं, कार्यालय भी। राजा का दरबार इसी में लगता था। राजा के मंत्री इसी में रहते थे, फौज रहती थी, पुलिस रहती थी। और यह राजधानी भूमि, जल और अन्तरिक्ष, सब जगह चल सकती थी – भूमि पर एक बहुत बड़ी गाड़ी की तरह, पानी में एक बहुत बड़े समुद्री पोत की तरह, हवा में एक बहुत बड़े वायुयान की तरह। क्या ऐसी कोई राजधानी तुम्हारे पास है – उड़ती हुई, तैरती हुई, चलती हुई? फिर तुम्हारा विज्ञान शैशव-अवस्था में नहीं तो क्या है?
“शां-सू’ राजा के उस वायुयान, पृथ्वीयान और जलयान का नाम था – “सौभ’। इसे “सौभनगर’ भी कहते थे। इस आफत-जैसी राजधानी को लेकर शां-सू ने भगवान् कृष्ण की राजधानी द्वारिका पर आामण किया, तो भगवान् कृष्ण ने अपने साथियों से कहा – “”हवा में इसका मुकाबला न करो, इसे नीचे समुद्र में उतरने दो, वहीं मैं इसे नष्ट करूँगा।” जब यह समझकर- कि द्वारिकावालों ने हार मान ली है- शां-सू द्वारिका के सामने समुद्र में उतरा, तो भगवान् कृष्ण ने उसकी उड़ती, चलती, तैरती राजधानी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
ऐसे ही महाभारत में “पाशुपत अस्त्र’ का भी वर्णन आता है। भगवान् कृष्ण ने जब देखा कि युद्घ अनिवार्य है, तो अर्जुन को भगवान् शिव के पास भेजा कि उनसे “पाशुपत अस्त्र’ लेकर आये व उसको चलाने की विधि भी सीखकर आये। अर्जुन वहांँ गया। भगवान् शिव ने अर्जुन की योग्यता तथा सहनशक्ति को परखने के लिए उसको युद्घ के लिए ललकारा। बहुत भयानक युद्घ हुआ दोनों के बीच। अन्त में अर्जुन को पता लगा कि जिनके साथ वह लड़ रहा है, वही भगवान् शिव हैं, वह म्हारी योग्यता और सहनशक्ति की परीक्षा ले रहा था। आओ! मैं तुम्हें वह पाशुपत-अस्त्र देता हूँ, जो पल-भर में लाखों-करोड़ों लोगों को नष्ट कर सकता है। इसे चलाने और प्रयोग करने का ढंग भी सिखाऊँगा, इसे वापस बुलाने का भी। परन्तु एक बात याद रखो, यह अस्त्र केवल राक्षसों का या राक्षस-वृत्तिवाले लोगों का नाश करने के लिए है। अच्छे लोगों और धर्म के मार्ग पर चलने वालों का नाश करने के लिए नहीं।”
ऐसे ही श्री द्रोणाचार्य के “नारायण अस्त्र’ का भी वर्णन आता है। यह अस्त्र जब चलता था तो सभी हथियार बेकार हो जाते थे। इसके विपरीत चलाये गए हथियार, चलाने वालों को नष्ट करने लगते थे। भगवान् कृष्ण ने इस अस्त्र को महाभारत के युद्घ में चलते हुए देखा तो पाण्डवों की सारी सेना को आज्ञा दी, “”अपने हथियार फेंक दो, सिर झुका दो। यही इस हथियार को व्यर्थ करने का उपाय है।”
मैं पूछता हूँ कि क्या आज के विज्ञान के पास “सौभ’ जैसे यान हैं जिनमें पूरा नगर आबाद हो सके और जो जल, स्थल और हवा में तेजी से आगे बढ़ सकें? क्या कोई “पाशुपत अस्त्र’ है जिससे पल-भर में करोड़ों लोगों का नाश हो सके और जिसे अपनी इच्छा से वापस भी बुलाया जा सके? क्या “नारायण अस्त्र’ जैसा भी कोई हथियार है जिसके विरुद्घ चलाये जाने वाले सभी हथियार चलाने वालों को ही नष्ट करने लगें? नहीं हैं ऐसे हथियार। तब यह अभिमान किसलिए कि वर्तमान विज्ञान ने बहुत उन्नति की है?
ये सब बातें मैंने अमेरिका वालों को सुनाई। उन्हें कहा कि तुम्हारा विज्ञान अभी शैशव में है, इस पर अभिमान न करो।
कुछ लोग कहेंगे कि महाभारत में लिखी गई ये सब बातें केवल गप्प हैं।
मैं कहता हूँ कि यह गप्प नहीं है, यह सच्चाई है। यह क्या हठ है कि हम जो बात कहें उसे गप्प कह टाल दिया जाय, और आप जो बात कहें उसे सच्चाई मान लिया जाए!
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