अकिंचनता का अर्थ है- मैं कुछ हूँ, इस दर्पभाव का क्षय। भेदों से किंचनत्व की उत्पत्ति होती है, क्योंकि मद अथवा मोह अज्ञान-परिणति के नाम हैं। यद्यपि आत्मा संसार के क्षयिष्णु पदार्थों से पृथक तथा भिन्न है, परन्तु मोहवश वह परिग्रहों के साथ अनुबिद्घ होकर पदार्थ पर ममत्व करने लगती है तब उसमें किंचनत्व (मान, दर्प) प्रवेश करती है।
पुण्य सोने की बेड़ी है और पाप लोहे की। परमात्मा की प्राप्ति इन दोनों को हटाने से ही संभव है। इसलिए अपने परिणामों को उज्ज्वल रखो और किसी से राग-द्वेष मत रखो।
पर, व्यवहार में हम देखते हैं कि मनुष्य पैसे का दास बनता जा रहा है। मानों मनुष्य पैसे को नहीं कमाता वरन पैसा ही मनुष्य को कमाता है। हम परिग्रह की पकड़ में उस सांप की तरह फंस गये हैं, जो मुंह में छिपकली को पकड़ कर न उसे छोड़ सकता है और न ही खा पाता है, क्योंकि दोनों ओर उसे रोग अथवा मृत्यु का भय लगा रहता है। शास्त्रों में कहा गया है- तिल-तुष मात्र परिग्रह रखने पर विपुल कष्ट भोगने पड़ते हैं तो फिर बड़े-बड़े परिग्रह कितने दुःखदायी होंगे, इसका अनुमान आप कर सकते हैं।
एक गुरु और शिष्य थे। दोनों एक गांव से दूसरे गांव यात्रा करते रहते थे। महात्मा के पास एक लाठी थी, जिसका सहारा लेकर वे चलते थे। जब वे महात्मा जी गांव की सीमा के समीप पहुंंचते तो सर्वप्रथम अपने शिष्य को गांव में भेजते और कहते, “”जाओ, यहां के लोगों से पूछकर आओ कि यहां कोई भय तो नहीं है?” और शिष्य हर बार अपने गुरु से पूछता, “”आप किसलिए इस प्रकार पुछवाते हो? हमारे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसके कारण लोग भयभीत हों, फिर आप क्यों भय की बात करते हैं?” गुरुदेव कहते, “”जाओ पूछ कर आओ।” और वह उनकी आज्ञा स्वीकार कर लेता।
एक दिन वे एक गॉंव के समीप पहुँचे। वहां वर्षा ऋतु में मवेशियों के उपयोग हेतु घास-फूस एकत्रित किया जा रहा था। गुरु-शिष्य वहां कुछ देर विश्राम करने हेतु बैठ गये। कुछ देर पश्र्चात् वे उठे और अगले गांव के लिए रवाना हो गये। दो-तीन फर्लांग जाने पर महात्मा जी को ज्ञात हुआ कि (उस घास-फूस पर बैठने से उस गांव का) एक तिनका उनके बालों में उलझ कर आ गया है। गुरु ने शिष्य से पूछा, “”अरे यह कहां से आ गया?” शिष्य ने बताया, “”महात्माजी हम वहां बैठे थे, वहीं से साथ आ गया।”
“”ओहो, यह भी परिग्रह है।” ऐसा कहकर गुरु जी उस तिनके को उसी स्थान पर डाल आये, जहां से वह साथ लगा था और आगे बढ़े।
शिष्य ने सोचा, ओहो! मेरे गुरु कुछ भी परिग्रह नहीं रखते, धन्य हैं। वह उनसे बहुत प्रभावित हुआ। आगे गांव आ गया, यह गांव पिछले गांव की अपेक्षा थोड़ा बड़ा था। बाहर ही एक धर्मशाला थी। वहां बैठकर गुरु ने शिष्य से कहा, “”जाओ, पूछकर आओ कि यहां कोई भय तो नहीं है?” शिष्य ने कहा, “”महाराज, आप सदैव यह कैसी बात करते हैं? यहां कौन-सा भय है? न लोक भय है, न परलोक भय है, न हमको आकस्मिक भय है?” गुरु नहीं माने। शिष्य पूछ कर आ गया।
रात्रि हो चुकी थी, महात्मा जी को बहुत थके होने के कारण शीघ्र ही नींद आ गयी। किन्तु शिष्य को नींद नहीं आयी। वह इसी उलझन में लगा रहा कि आखिर क्या रहस्य है, जिसके कारण गुरु मुझे इस प्रकार ग्रामवासियों से पूछने भेजते हैं? गुरु के पास तो कुछ परिग्रह भी नहीं है, जिसके जाने के भय से वे भयभीत हों। वह सोचता रहा, जिससे उसकी उलझन बढ़ती गयी।
एकाएक उसे कुछ ख्याल आया। उसने महात्मा जी के पास रखी लाठी उठाई और घुमा-फिरा कर देखने लगा। उसे लगा, यह लाठी एक तरफ से खुल सकती है, अंदर से शायद खोखली है। उसने वह लाठी एक ओर से खोल ली। उसके अंदर से कुछ सोने के सिक्के निकले। शिष्य को रहस्य समझ में आ गया। उसने वे सब सिक्के कुएं में डाल दिये और उनके स्थान पर कंकर-पत्थर भरकर लाठी का मुंह बंद कर दिया। अब शिष्य को भली प्रकार नींद आ गयी।
प्रातःकाल पुनः गुरु-शिष्य अपनी यात्रा पर चल पड़े। संध्या के समय दूसरे गॉंव में पहुँचे, देखा यह तो पिछले गांव से भी बड़ा गॉंव था। महात्मा जी ने शिष्य से कहा, “”यहां तो भय अधिक होगा, जाओ तुम पूछकर आओ।” शिष्य ने कहा, “”अब कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं है।” “”क्यों?” गुरु ने पूछा। शिष्य ने कहा, “”भय तो पिछले गांव में ही रह गया, बहुत दूर।” महात्मा जी समझे नहीं। रात्रि हो चुकी थी। शिष्य शीघ्र ही गहरी नींद में सो गया। महात्माजी को नींद नहीं आ रही थी। वे ऊहापोह में फंस रहे थे कि शिष्य के द्वारा भय पिछले गांव में ही रह गया, ऐसा कहने का क्या तात्पर्य था? अचानक उन्हें अपनी लाठी का ध्यान आया, उसे खोलकर देखा तो स्वर्ण-मुद्राओं के स्थान पर कंकर-पत्थर भरे थे। तब उन्होंने सोचा कि जब सारा सोना गया तो फिर इस लकड़ी का भी क्या करूंगा? यह सोचकर उन्होंने लाठी का भी त्याग कर दिया। अब वे पूर्णतया निश्र्चिंत थे, निर्भय थे।
मनुष्य भव प्राप्त होना अत्यंत कठिन है, दुर्लभ है। भव्य होना, आर्य क्षेत्र की प्राप्ति, अंगोपांग की पूर्णता, सब सुविधाएँ प्राप्त होना सहज नहीं है। हमारी पांचों इन्द्रियां दुरूस्त हैं, स्वास्थ्य अच्छा है, सब साधन-संपन्न हैं। फिर भी यदि हम धर्मध्यान नहीं करते तो यह हमारा दुर्भाग्य ही है। इसी कारण कहा गया है कि –
धन-तन-कंचन-राजसुख,
सबहि सुलभ कर जान।
दुर्लभ है संसार में,
एक यथारथ जान।।
जब परमाणु मात्र भी हम अपने साथ नहीं ले जा सकते, तो फिर संग्रह-वृत्ति में, परिग्रह में इतनी लालसा क्यों रखते हैं। हमारा प्रयास तो सम्यकज्ञान को प्राप्त करना होना चाहिए। एक बार आप में इसके बीज प्रस्फुटित हो गए तो निश्र्चय मानिये कि आपका कल्याण, आपकी मुक्ति सन्निकट है।
– गणि राजेंद्र विजय
You must be logged in to post a comment Login