भारत-अमेरिकी न्यूक डील ने शुावार को समझौता 123 पर भारतीय विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी और उनकी समकक्ष कोंडालिजा राइस के हस्ताक्षर के बाद अपनी अंतिम बाधा भी पार कर ली। ़गौरतलब है कि इस महत्वाकांक्षी डील को अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 8 अक्तूबर को अपने हस्ताक्षर से मंजूरी दे दी थी। तीन साल का लंबा सफर पार करने में इस डील को कितने अवरोधकों और विरोधों को पार करना पड़ा है, इसकी गणना नहीं की जा सकती। इस डील को विरोध का सामना दोनों ही देशों में समान रूप से करना पड़ा और ऐसी भी परिस्थितियों से इसे मु़खातिब होना पड़ा जब यह लगने लगा कि डील अपनी यात्रा सकुशल पूरी नहीं कर पायेगी तथा बीच रास्ते ही इसका दम निकल जाएगा। लेकिन इसने सभी विपरीतताओं को सिर्फ पार ही नहीं किया, कहा तो यह भी जा सकता है कि यह उनका दलन और दमन करती हुई आगे बढ़ती रही। जिसे कुछ दिनों या महीनों पहले असंभव माना जा रहा था अब वह प्रणव मुखर्जी और कोंडालिजा राइस के दस्तावेजी हस्ताक्षर के बाद एक हकीकत बन चुकी है।
यह ़जरूर है कि भारत में इस हकीकत को पचा पाने की क्षमता का प्रदर्शन न विपक्ष की भाजपा कर पा रही है और न ही वामपंथी दल कर पा रहे हैं। लेकिन हकीकत तो ह़कीकत है और वह यह है कि इसके चलते पिछले कई दशकों का हमारा परमाणु-वनवास समाप्त हुआ है। अब हम आधिकारिक तौर पर विश्र्व के एक परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। हम हर उस देश से अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के अनुरूप असैन्य परमाणु व्यापार कर सकते हैं जो हमसे सहयोग करने को इच्छुक है। अमेरिका के सामने भारतीय हितों की बलि चढ़ने का आरोप लगाने वाले विपक्षी आलोचकों को कम से कम अब इस विषय पर तो विचार करना ही चाहिए कि परमाणु व्यापार करने की पेशकश करने वाले देशों की कतार में सिर्फ अमेरिका ही नहीं, बहुत से देश खड़े हैं। बल्कि सच्चाई तो कुछ और ही बयां हो रही है। बहुत सारा पापड़ बेलने के बावजूद अमेरिका पीछे छूट गया और पहला व्यापार समझौता करने का अवसर ाांस ने लूट लिया। अमेरिका का महत्व इस संदर्भ में कमतर कत्तई नहीं आंका जा सकता लेकिन इतना तो कहना होगा कि भारतीय विदेश नीति को अमेरिका का गुलाम बनाये जाने का जो आरोप वामपंथी और भाजपा के लोग मनमोहन सरकार पर चस्पां कर रहे थे उनमें सत्यता न कल थी और न आज है।
समझौते का जो प्रारूप अंतिम तौर पर सामने आया है, वह वही है जिसकी स्वीकृति भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद से ली थी और जिसके बाहर किसी अन्य शर्त को न स्वीकारने का आश्र्वासन भी संसद को दी थी। अगर कुछ आशंका शेष भी थी तो अमेरिकी राष्टपति बुश ने उसका समाहार भी कर दिया है। बुश ने कहा है कि अमेरिका की ओर से हमारे रियेक्टरों के लिए परमाणु ईंधन की आपूर्ति निर्बाध होगी। यूं विपक्ष बुश के इस बयान को महज औपचारिक बता रहा है, लेकिन अमेरिकी राष्टपति का वक्तव्य खुद अमेरिकी कानून के अऩुसार वक्तव्य की नहीं, कानून की मान्यता रखता है। कहने को तो विपक्ष अब भी यह कह रहा है कि समझौता 123 अमेरिकी कानून हाइड एक्ट से बाधित होगा, लेकिन यह या तो आलोचना के लिए आलोचना है अथवा तथ्यों की गलत व्याख्या पर आधारित है। सच यह है कि दोनों देशों द्वारा हस्ताक्षरित होने के बाद अब समझौता 123 ने एक अन्तर्राष्टीय कानून की शक्ल ले ली है जिसे किसी भी देश का घरेलू कानून अब न सीमित कर सकता है और न ही बाधित। अतएव समझौता अगर राजनीतिक दृष्टि से न व्याख्यायित किया जाय तो देश को परमाणु युग में प्रतिष्ठित करने में सक्षम है।
इस उपलब्धि का एक कोण यह भी है कि भारत ने इसे अपनी शर्तों पर हासिल किया है और इसे उपलब्ध कराने में सहायक वह अमेरिका हुआ है जिसने 1974 और 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद सबसे आगे बढ़ कर भारत को पारमाणविक व्यापार के लिए प्रतिबंधित किया था। इसमें अगर अमेरिका की सहयोगात्मक भूमिका है तो उसके पीछे भारत का विश्र्व-पटल पर एक अपरिहार्य शक्ति के रूप में उभरना भी एक कारण माना जाना चाहिए। लेकिन दुःखद यह है कि देश के वामपंथी आज भी भारत को पिछली सदी के छठें-सातवें दशक का भारत मान रहे हैं, और आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि भारत की विदेश नीति अमेरिका की पिछलग्गू हो जाएगी। उन्हें कम से कम अब तो इस बात का एहसास हो ही जाना चाहिए कि भारत अब इतना शक्तिशाली है कि वह औरों को भले ही पिछलग्गू बना ले, ़खुद किसी का पिछलग्गू किसी मूल्य पर नहीं हो सकता। अमेरिका सहायक की भूमिका में भले हो और इसके लिए हमको उसका शुागुजार भी होना चाहिए। लेकिन देश को और देशजन को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत ने यह उपलब्धि अपनी क्षमताओं को सिद्घ करते हुए हासिल की है।
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