सूर्यवंश में इक्ष्वाकु, अज आदि राजा बहुत पराामी एवं धर्मात्मा हुए हैं। इन्हीं के नाम से रघुवंश प्रसिद्घ हुआ। इसीलिए भगवान रामचंद्रजी के रघुवर, राघव, रघुपति, रघुवंश विभूषण, रघुनाथ आदि नाम हुए हैं। ये बड़े धर्मात्मा थे। इन्होंने अपने परााम से समस्त पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया था। चारों दिशाओं में दिग्विजय करके ये समस्त भूमण्डल के एकछत्र सम्राट हुए। ये प्रजा को बिल्कुल भी कष्ट देना नहीं चाहते थे। राज-कर भी ये बहुत ही कम लेते थे और विजित राजाओं को भी केवल अधीन बनाकर छोड़ देते थे, उनसे किसी प्रकार का कर वसूल नहीं करते थे।
एक बार ये दरबार में बैठे थे कि इनके पास कौत्स नाम के एक स्नातक ऋषि कुमार आये। अपने यहां स्नातक को देखकर महाराज ने उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया। पाद्य-अर्घ्य से उनकी पूजा की। ऋषि कुमार ने विधिवत् उनकी पूजा ग्रहण की और कुशल-क्षेम पूछा। कुछ देर बाद ऋषि कुमार चलने लगे, तो महाराज ने कहा, “”ब्राह्मण, आप कैसे पधारे और बिना कुछ अपना अभिप्राय बताये क्यों लौटे जा रहे हैं?”
ऋषि कुमार ने कहा, “”राजन, मैंने आपके दान की ख्याति सुनी है, आप अद्वितीय दानी हैं। मैं एक प्रयोजन से आपके पास आया था, किन्तु मैंने सुना है कि आपने यज्ञ में अपना समस्त धन-वैभव दान कर दिया है। यहां आकर मैंने प्रत्यक्ष देखा कि आपके पास अर्घ्य देने के लिए भी कोई सुवर्ण पात्र नहीं है और आपने हमें मिट्टी के पात्र से अर्घ्य दिया है। अतः अब मैं आपसे कुछ नहीं कहता।”
राजा ने कहा, “”नहीं, ब्राह्मण! आप मुझे अपना अभिप्राय बताइये, मैं यथासाध्य उसे पूरा करने की चेष्टा करूंगा।”
स्नातक ने कहा, “”राजन, मैंने अपने गुरु के यहां रह कर सांगोपांग वेदों का अध्ययन किया। अध्ययन के अनन्तर मैंने गुरुजी से गुरु-दक्षिणा के लिए प्रार्थना की। उन्होंने कहा, “”हम तुम्हारी सेवा से ही संतुष्ट हैं, हमें दक्षिणा नहीं चाहिए।” गुरु जी के ऐसा कहने पर भी मैं बार-बार उनसे गुरु-दक्षिणा के लिए आग्रह करता ही रहा। तब अन्त में उन्होंने झल्ला कर कहा, “”अच्छा, तो चौदह लाख सुवर्ण-मुद्राएँ हमें लाकर दो।” इसलिए मैं सुवर्ण-मुद्राएँ लेने के लिए ही आपके पास आया हूँ।”
महाराज ने कहा, “”ब्राह्मण, मेरे हाथों में धनुष-बाण के रहते हुए, कोई विद्वान ब्रह्मचारी ब्राह्मण मेरे यहां से विमुख जाय, तो मेरे राजपाट, धन-वैभव को धिक्कार है। आप बैठिये, मैं कुबेर-लोक पर चढ़ाई करके उनके यहां से धन लाकर आपको दूंगा।”
महाराज ने सेना को सुसज्जित होने की आज्ञा दी। बात की बात में सेना सज गयी। निश्र्चय हुआ कि कल प्रस्थान होगा। प्रातःकाल कोषाध्यक्ष ने आकर महाराज से निवेदन किया कि महाराज रात्रि में सुवर्ण की वृष्टि हुई है और समस्त कोष सुवर्ण-मुद्राओं से भर गया है। महाराज ने जाकर देखा कि सर्वत्र सुवर्ण-मुद्राएँ भरी हैं। वहां जितनी सुवर्ण-मुद्राएँ थीं, उन सबको महाराज ने ऊँटों पर लदवा कर ऋषि कुमार के साथ भेजना चाहा। ऋषि कुमार ने देखा कि ये मुद्राएँ तो नियत संख्या से बहुत अधिक हैं, तब उन्होंने राजा से कहा, “”महाराज, मुझे तो केवल चौदह लाख ही सुवर्ण-मुद्राएँ चाहिए। इतनी मुद्राओं का मैं क्या करूंगा?”
महाराज ने कहा, “”ब्राह्मण, ये सब आपके ही निमित्त आयी हैं, आप ही इन सबके अधिकारी हैं, आपको इन सबको लेना ही होगा। आपके निमित्त आये हुए द्रव्य को भला मैं कैसे ले सकता हूँ?”
ऋषि कुमार ने बहुत मना किया, किन्तु महाराज मानते ही नहीं थे। अन्त में ऋषि को जितनी जरूरत थी, वे उतना ही द्रव्य लेकर अपने गुरु के यहां चले गये। शेष जो धन बचा वह सब ब्राह्मणों को लुटा दिया गया। ऐसा दाता पृथ्वी पर कौन होगा, जो इस प्रकार याचकों के मनोरथ पूर्ण करे? अन्त में महाराज अपने पुत्र अज को राज्य देकर तपस्या करने के लिए वन में चले गये। अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए, जिन्हें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
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