जन आकांक्षाओं का उमड़ता सैलाब आंध्रप्रदेश के लोगों ने मेगास्टार चिरंजीवी की तिरुपति देवस्थानम की जनसभा के पहले कभी देखा था या नहीं, यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन यह तो निश्र्चित रूप से कहा जा सकता है कि अगर देखा भी होगा तो सिर्फ एन.टी. रामाराव की उस जनसभा में ही देखा होगा जिसमें उन्होंने इसी तरह अपनी फिल्मी जिन्दगी को अलविदा कह कर परिवर्तन की एक दस्तक के साथ राजनीति में प्रवेश किया था। परिवर्तन की वही आंधी जो रामाराव लेकर आये थे और जिसने प्रदेश की राजनीति में एक भूचाल पैदा कर, स्थापित कांग्रेस के पांव उखाड़ दिये थे, चिरंजीवी भी लेकर नमूदार हुए हैं। समानता यह है कि दोनों ने अपने फिल्मी कॅरियर को तिलांजलि देकर राजनीति में प्रवेश किया था और दोनों बार सत्ता की गद्दी पर काबिज कांग्रेस ही थी। रामाराव ने वर्षों से स्थापित कांग्रेस सत्ता के राजमहल को तहस-नहस कर दिया था। उन्हीं के नक्शे-कदम पर अपनी राजनीति को धार देने वाले चिरंजीवी क्या कुछ कर पायेंगे, अभी यह समय के गर्भ में है। दोनों में एक समानता यह भी है कि जब एन.टी.आर. ने अपनी “तेलुगु देशम’ पार्टी बनाकर राजनीति में धमाकेदार प्रवेश किया था तब भी राज्य विधानसभा का चुनाव कुछ ही महीने दूर था और अब जब चिरंजीवी ने अपनी राजनीतिक पार्टी “प्रजा राज्यम’ की घोषणा के साथ प्रवेश किया है, तब भी चुनाव कुछ ही महीनों बाद होने हैं।
लाखों-लाख की भीड़ में जिस तरह इस मेगास्टार ने जड़ हो गई व्यवस्था से निराश हो गये लोगों के मन में उम्मीद और परिवर्तन की एक लहर पैदा की है, उसके चलते अगर जनाकांक्षा चिरंजीवी के चेहरे में एन.टी.आर. का चेहरा झलकता देख रही है तो इसे हर हाल में एक बड़े परिवर्तन की दस्तक ही माना जाएगा। व्यवस्था की ऐसी ही जड़ता को इसी तरह के जन सैलाब में एन.टी.आर. ने भी तो बहाकर किनारे लगा दिया था। तब किसी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं अपितु एक दैवी शक्ति के रूप में एन.टी.आर. महानायक बन कर उभरे थे। चिरंजीवी के प्रति वह पूज्य भाव अभी सामान्य जन के मन में भले ही न बना हो, लेकिन समाज के हर तबके के लोग उन्हें राज्य की राजनीति में एक अपरिहार्य शक्ति के अवतार रूप में स्वीकार तो कर ही रहे हैं। जनसभा में उन्होंने अपनी पार्टी का जो एजेंडा घोषित किया है, अगर उस पर ईमानदारी से अमल हुआ और वे सत्ता-समीकरण की गुणा-गणित वाली राजनीति में नहीं फॅंसे तो भविष्य निश्र्चित तौर पर उन्हें भी उसी तरह नवाजेगा जिस तरह उसने एन.टी.आर. को अपनी पलकों पर बिठाया था।
जनता को संबोधित अपने पहले भाषण में उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए अपनी चिन्ता प्रकट की है। उनकी प्रत्येक घोषणा को सभा में उपस्थित भारी भीड़ का समर्थन भी मिला है। कहने को यह ़जरूर कहा जा सकता है कि जो बातें किसानों, महिलाओं, युवाओं और गरीबों तथा दलितों के बारे में चिरंजीवी ने अपने भाषण में कही हैं, उनका उल्लेख तो लगभग हर राजनीतिक दल करता है। फिर इसमें कोई नई बात कहॉं से तलाशी जाय। इसे अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता कि ये मुद्दे अब तक सर्वाधिक दुहराये जाने वाले मुद्दे हैं। अन्तर सिर्फ इतना है कि इन मुद्दों को सिर्फ भाषणों तक सीमित रखा गया है। इनकी अमलावरी के प्रति राजनीतिक दलों ने किसी गंभीर प्राथमिकता का प्रदर्शन नहीं किया है। अगर जनहित की योजनाओं का सूत्रपात होता भी है तो वह सामान्य जन को लाभ पहुँचाने की जगह दलगत राजनीति की हितचिन्तक बन जाती है। अलावा इसके, उसके फायदे का असर आम आदमी तक पहुँचने के पहले भ्रष्टाचार की जेब के हवाले हो जाता है। इस राजनीतिक त्रासदी से जूझता आम आदमी अब राजनीति से भी निराश हो गया है, राजनीतिक दलों से भी और राजनीतिज्ञों से भी। वह राजनीति को हाथी का दॉंत समझने लगा है जो खाने को और होता है और दिखाने को कुछ और। इसलिए सबसे बड़ा संकट सिर्फ प्रदेश ही नहीं, पूरे देश की राजनीति में अगर सामने आया है तो वह विश्र्वसनीयता का संकट है।
लेकिन जब कोई चिरंजीवी जैसा अराजनीतिक व्यक्तित्व राजनीति में प्रवेश करता है, तो आम आदमी के मन में मुरझाया हुआ विश्र्वास फिर से एक बार लहलहाने लगता है। चिरु ने अभी कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की है, वे कर पायेंगे या नहीं, यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता, मगर मुरझाये विश्र्वास को उन्होंने फिर से एक संजीवनी दी है। अन्य बातों को अगर दरकिनार भी कर दिया जाय और सिर्फ उनकी एक बात ही सही अर्थ ले सके कि वे राजनीति में अच्छे लोगों के लिए जगह बनायेंगे, तो इस उपलब्धि को कमतर नहीं आँका जा सकेगा। जनसभा में उमड़ी भीड़ और भीड़ द्वारा प्रदर्शित किया गया उत्साह यह साबित करता है कि अगर वे दृढ़ निश्र्चय के साथ अपने ध्येय-पथ पर आगे बढ़ेंगे तो उन्हें जनसमर्थन की भी कमी नहीं पड़ेगी। कहा जाता है कि इतिहास फिर लौट कर नहीं आता, लेकिन वे, हूबहू भले न हो, मिलता-जुलता ही सही, आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव के इतिहास का भविष्य लिख सकते हैं। बशर्ते परिवर्तन की यह दस्तक, दस्तक होने के पार, एक पुकार बन सके।
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