शरीर में कई तरह के केंद्र हैं। हठयोग में इन्हें “चा’ कहा गया है। प्राचीन जैन-साहित्य में “करण’ कहा गया है। प्रेक्षाध्यान में इन्हें “चैतन्य केंद्र’ कहते हैं। उन पर मन टिकाओ, एक अलग तरह की अनुभूति होगी। महावीर की ध्यान-साधना में वर्णन आता है कि महावीर अनिमेष ध्यान करते थे, बिल्कुल त्राटक का प्रयोग। वे एक पुद्गल पर दृष्टि को टिका देते थे अथवा दृष्टि को नासाग्र पर टिका देते थे। जिनका मन भटकता है, वे नासाग्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करें, मन टिकने लगेगा।
इन सारे संदर्भों में महावीर-वाणी का वह सूत्र बहुत महत्वपूर्ण है – “शरीर माहु नावत्ति’ अर्थात शरीर एक नौका है। ाोध, लोभ, अहंकार, भय आदि इस नौका के छिद्र हैं। हमारा दृष्टिकोण सही हो, सम्यक् हो, तो नौका निश्छिद्र रह सकती है। जैन-दर्शन में चारित्र को प्रथम स्थान नहीं दिया गया। पहला स्थान दिया गया है दृष्टि को। जैन-दर्शन में कहा गया- पढमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान, फिर दया या आचार। पहले ज्ञान और ज्ञान से भी पहले सम्यक्-दर्शन। पहले दृष्टिकोण गलत तो ज्ञान भी गलत और ऐसे में सही आचरण की आशा कैसे की जा सकती है? ऊँचे मकान के लिए मजबूत नींव रखनी पड़ेगी। यह नींव है दृष्टिकोण की। पहले आधार को मजबूत बनाओ। आधारशिला है- सम्यक् दृष्टिकोण। दृष्टिकोण भी व्यापक हो, संकीर्ण नहीं। यह हमारे वर्तमान जीवन को ही नहीं, भावी को भी प्रभावित करता है।
जैन-धर्म में चार गतियां मानी हुई हैं – नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। नरक और तिर्यंच- ये दो नीची गतियां हैं। मनुष्य और देव- ये दो ऊँची गतियां हैं। आदमी यह चिंतन करे कि दो अशुभ गतियों को तो मैं पार कर गया, मनुष्य बन गया। अब मेरे द्वारा ऐसा कोई कार्य न हो, जिससे फिर से नरक और तिर्यंच गति को प्राप्त होऊं। हमारे एक मुनि हैं। वे कहते हैं, “”पूर्वजन्म में मैं गाय का बछड़ा था।” मैंने कहा, “”अब मनुष्य, और मनुष्य में भी साधु बन गये हो, तो बछड़ा होने की बात ही समाप्त हो गई। मनुष्य योनि मिली है। इससे आगे देव गति का लक्ष्य रखो। बछड़े पर बार-बार मत अटको।”
(ग्रन्थ-महाप्रज्ञ ने कहा, भाग-17)
प्रस्तुतकर्त्ता – बालकवि बैरागी
– महाप्रज्ञ
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