“पर्युषण महापर्व’ को दिगम्बर मतावलंबी “दसलक्षण-पर्व’ के नाम से महा-महोत्सव के रूप में मनाते हैं। पर्युषण-पर्व का अर्थ है- हर तरह से अपने कषाय और कर्मों को ऊष्ण करना, तप्त करना, भस्म करना। यह पर्व विशुद्घ आध्यात्मिक पर्व है, जिसमें कषायों और कर्मों को नाश करने की विधिवत् साधना की जाती है। इसके 10 आयाम हैं-
- उत्तम क्षमा 2. उत्तम मार्दव 3. उत्तम आर्जव 4. उत्तम शौच 5. उत्तम सत्य 6. उत्तम संयम 7. उत्तम तप 8. उत्तम सत्य 9. उत्तम आकिंचन्य 10. उत्तम ब्रह्मचर्य।
इन्हें ही दसलक्षण धर्म कहते हैं। यह दसों धर्म उत्तरोतर आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर ले जाते हैं और परम मुक्तिधाम में प्रवेश कराते हैं। वैसे तो यह पर्व साल में तीन बार आता है- माघमास, चैत्रमास और भादो मास में। किंतु भाद्रपद मास में यह पर्व महोत्सव का रूप ले पाता है। इस महापर्व के पीछे एक सनातन घटना जुड़ी हुई है।
जैन-दर्शन के अनुसार भरत क्षेत्र कर्म-भूमि है, जिसमें कर्म की प्रधानता है। कालचा का परिणमन भरत क्षेत्र के छः कालों के रूप में होता है, जिसमें तीन काल भोग-भूमि के और तीन काल कर्म-भूमि के होते हैं। इन कालों को उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के भेद स्वरूप सृष्टि व्यवस्था में हानि व वृद्घि के रूप में जाना जाता है। उत्सर्पिणी काल वह होता है- जहां मनुष्य की आयु व बल उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं और अवसर्पिणी काल वह होता है, जहां मनुष्य के बल व आयु का शनैः शनैः ह्रास होता है। हर उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल के पश्र्चात सृष्टि में परिवर्तन होता है।
प्रकृति का अद्भुत व रहस्यमय यह परिवर्तन स्वतः ही होता रहता है। अवसर्पिणी काल के अंत समय में सृष्टि पर महाप्रलय होती है। यह महाप्रलय 49 दिनों तक चलती है, जिसमें सात दिन तक शीत क्षार की वर्षा आकाश से होती है, सात दिन तक विष (जहर) की वर्षा होती है, सात दिन तक धूम्र उठता है, सात दिन तक धूल उड़ती है, सात दिन वापात होता है, सात दिन तक अग्नि वर्षा होती है, जिसमें नदी, नाले, वन-खण्ड सभी ़खाक हो जाते हैं और अंत के सात दिन तक धुआं ही धुआं व्याप्त रहता है। ज्वालामुखी, भूकम्प, सारी पृथ्वी को तहस-नहस कर देते हैं। इस महा-विनाश के समय सौधर्म इन्द्र 72 स्त्री-पुरुषों के जोड़ों तथा 72 पशुओं के जोड़ों को इस महाप्रलय से बचाकर विजयार्ध पर्वत की गुफाओं में छिपा देते हैं। शेष सभी नर व पशु जाति नष्ट हो जाती है। 49 दिनों की इस भीषण तबाही के बाद नयी सृष्टि का सृजन होता है। हर विध्वंस अपने में सृजन छिपाये है और हर सृजन एक दिन विध्वंस को प्राप्त होता है। यही प्रकृति की व्यवस्था है। बनाना और बिगाड़ना यही संसार है। 49 दिन के बाद सृष्टि पर सात दिन तक शीतल जल की वर्षा होती है, सात दिन पृथ्वी शीतल होती है, सात दिन दूध की वर्षा, सात दिन घी की वर्षा, सात दिन अमृत वर्षा, सात दिन दिव्य-रस की वर्षा, सात दिनों में पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है। पेड़ों में फल आ जाते हैं, औषधियां आ जाती हैं। नयी सृष्टि की रचना हो जाती है। तब सौधर्म इन्द्र विजयार्थ पर्वत की गुफाओं में छिपाये गये 72 नर-नारी व 72 पशु के जोड़ों को बाहर निकालते हैं। प्रारंभ में वे नग्न विचरण करते हैं। फल खाते हैं, धीरे-धीरे ज्ञान के विकास के साथ ही वे वस्त्रादि पहनते हैं।
श्रावण मास के कृष्णपक्ष की एकादशी से भादो सुदी चतुर्थी तक ही 49 दिनों में सुवृष्टि के बाद भादो सुदी पंचमी को सृष्टि के सृजन का प्रथम दिन होता है। उस दिन से 72 जोड़े सम्वेद शिखर पर जाकर जिनेन्द्र भगवान का महापूजन करते हैं। दस दिन भगवान की आराधना करते हैं। पूजन-भक्ति के साथ-साथ उपवास आदि भी करते हैं। उन्हीं दिनों की स्मृति के स्वरूप आज भी दसलक्षण महापर्व को भाद्रपद मास में महामहोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
आज भी जैन श्रावक इन दस दिनों में उन्हीं 72 जोड़ों की तरह अपनी जीवनचर्या में परिवर्तन ले आते हैं। खान-पान, रहन-सहन, चिंतन-मनन सभी को आध्यात्मिक बना लेते हैं। कोई उपवास करता है, कोई एकासन करता है, सादगी से जीवन बिताते हैं एवं श्रावकगण यथा शक्ति दस धर्मों के पालन का अभ्यास करते हैं।
– मुनि प्रसन्न सागर
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