पर्वाधिराज की महिमा

वाह क्या आनंद है! क्या उत्साह है! सभी का अंतर हर्षोल्लास से पल्लवित है। वास्तव में यह सब क्यों है? तो इसका जवाब है-पर्युषण महा-पर्वाधिराज का आगमन!

अहो! अहो! सर्वोत्तुंग पर्व शिरोमणि महान पर्वाधिराज पर्युषण पर्व!

पर्वाधिराज! आपकी महिमा ही अपूर्व एवं अवर्णनीय है। आपकी महिमा का गान तीर्थंकर परमात्मा ने भी अपने श्रीमुख से किया है। तीर्थंकरों के हृदय में भी आपका अद्वितीय स्थान है। देवी-देवता भी आपको मानते हैं, विशेष श्रद्घा धरते हैं। चावर्ती, वासुदेव, राजा-महाराजा, अनेक मानव गण तथा नारक के नेरीए भी अंतरभाव से आपकी कामना करते हैं और आपकी आराधना करने के लिए लालायित रहते हैं।

वाह पर्वाधिराज! क्या अनूठी महिमा है आपकी! क्या है अलौकिकता आपकी!

विश्र्व के सर्वोत्तम पुरुष एवं साधारण जीव आपके आने से अंतर में परम आह्लाद का अनुभव करते हैं, तो मैं भी पीछे क्यों रहूं? हे पर्वाधिराज! आपकी अपूर्व महिमा एवं स्मृति मात्र से ही मेरे रोम-रोम में आत्मा के एक-एक प्रदेश में रोमांचकता का अनुभव हो रहा है।

आपकी साधना मेरी आत्मा को शाश्र्वत समाधि में ले जाएगी। आपकी भक्ति मुझे भगवान बनाएगी।

हे पर्वाधिराज पर्युषण! अभी तक मैंने कई प्रकार की आराधनाएं की हैं, परंतु मुझे किसी में भी सफलता प्राप्त नहीं हुई। मैंने जिस सुख की आशा की, उसके लिए जो प्रयत्न किये, उसमें हताशा ही मिली। उन्नति करने की जहां तमन्ना थी, वहां पतन … पतन.. और पतन ही हुआ। जिस साधना में मेरा अधिकार मान कर आगे बढ़ने की चेष्टाएं कीं, वहां मुझे धिक्कार ही मिला, जिसे अपना माना था, वह अंत समय में पराया ही बना। जिसका लक्ष्य रखकर मैं निश्र्चिंत बना था, वही चिंता मुझे घेरे बैठी थी। अंत में संसार के सभी पर्वों में मेरी आत्मा को अशांति, असमाधि व दुःख ही मिला। अन्य साधना में प्रारंभ तो अच्छा लगा, परंतु आत्मिक संतोष नहीं था। वह मेरी आत्मा के साथ ठगाई थी, परिणाम में देखा तो शून्यता ही अनुभव में आई। अब मुझे इन पर्वों की साधना को छोड़कर आपकी ही साधना करनी है।

आपकी अंतरभाव से साधना करके अब मैं मेरी आत्मा को पावन बनाना चाहता हूं। यह मेरे प्रबल पुण्य का क्षण है। यह पाप के विनाश का क्षण है। महापर्व की आराधना के लिए मुझे जो भी कुछ करना होगा, वह सब कुछ करने के लिए तैयार हूं। हे पर्वाधिराज पर्युषण महापर्व!!! मैं अभी तक अज्ञानवश भान भुला था। संसार के रंग-राग में मस्त बना हुआ था। परंतु अब मुझे यह संसार असार लग रहा है। मुझे यह सब भोग अब रोग के समान दिख रहे हैं। पुद्गल के संबंध भी बंधन-से लग रहे हैं। । कषाय-कुटिलता अति भयंकर स्थान लग रहे हैं। द्वेष दावानल-सा बना है। राग में रंज नहीं है। ममता मुसीबतों का स्थान है। वैभव-विलास मुझे व्याकुल बना रहे हैं। अब इन सभी आत्मघाती दुष्ट तत्त्वों को हटा कर आत्म-साधना में ही मुझे रमना है। इन दुष्ट तत्त्वों ने मेरे आत्म-भाव को छिन्न-भिन्न कर दिया है। इनके चक्कर में न फंस कर ज्ञान-दर्शन, चारित्र, तप को अंगीकार करके सभी आत्म-साधना की विपरीतता को दूर करने में पूर्ण जागृत हूं।

प्रस्तुति – तरुणभाई पारेख

 

-मुनिश्री पारसमुनिजी म.सा.

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