पल्लवकालीन सप्तरथ मन्दिर – महाबलिपुरम

mahabalipuram-templeपल्लवकाल (600 ईस्वी से 900 ईस्वी) में मुख्यतः शैलकृत रचनाओं का निर्माण हुआ तथा ये सभी एक ही स्थान महाबलिपुरम में बनायी गयीं। यह चेन्नई से छप्पन किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। इसकी स्थापना महमल्ला नामक एक शासक ने समुद्र पत्तन नगर के रूप में की थी। महमल्ला के नाम पर यह “मामल्लपुरम’ कहलाया। परन्तु एक अन्य विचार के अनुसार मामल्लपुरम् का अर्थ है – “मल्ल का नगर’। “मल्ल’ पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन प्रथम की उपाधि थी। इसी कारण यह नाम पड़ा। यह नगर पल्लव नरेशों की राजधानी कांजीवरम से भी पलार नदी द्वारा जुड़ा था, जो यहॉं से चौसठ किलोमीटर दूर थी। यहॉं के समुद्री तट पर कठोर पत्थर की चट्टानें हैं, जिनमें से कुछ को समूचे रूप में गढ़कर अनेक एकाश्म गुफाओं, मंदिरों तथा मूर्तियों का निर्माण किया गया है।

पल्लव वास्तु के प्रथम चरण के अंतर्गत केवल शैलकृत वास्तु का ही निर्माण हुआ, जिसके अंतर्गत दो प्रकार के भवन मण्डप तथा रथ आते हैं। मण्डप पर्वतीय अंचलों की खड़ी चट्टानों को छेद कर बनाये गये तथा रथ विशाल चट्टानों को बाहर-भीतर से गढ़कर बनाये गये मंदिरों के आकार हैं। इन्हें “रथ’ इसलिए कहा गया है, क्योंकि मंदिर प्रायः बैलों या घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथों के आकार के बनाये जाते थे।

महाबलिपुरम के एकाश्म मंदिर यानी सप्तरथ मंदिर एक नवीन प्रकार की ही अभिव्यक्ति हैं। पश्र्चिमी कला समीक्षकों ने इन्हें “सैवन पगोडास’ नाम दिया। इनमें से प्रत्येक को, एक बड़ी शिला को भीतर व बाहर से काट-तराश कर एक समूचे मंदिर का आकार प्रदान किया गया है। संभवतः इन्हें समकालीन ऐसे ही आकार के काष्ठ निर्मित मंदिरों की तर्ज पर बनाया गया है। ये भवन दक्षिण भारतीय विमान शैली के मंदिरों का प्रारंभिक स्वरूप होने के कारण महत्वपूर्ण हैं। इनके प्रत्येक निर्माण का रूपाकार भिन्न है। इनके निर्माण का उद्देश्य क्या था? यह भी समझना कठीन है, क्योंकि इनके भीतर भाग न तो पूर्ण किये गये हैं और न ही ऐसा लगता है कि इनमें कभी पूजा की गई है। अतः हो सकता है, ये वास्तव में बड़े आकार में बनाये जाने वाले मंदिरों की लघु प्रतिकृति या “मॉडल’ के रूप में बनाये गये होंगे। वैसे इनका निर्माण रहस्यमय लगता है।

गणेश रथ – महाबलिपुरम की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक इस रथ को सहदेव और भीम रथों की शैली में बनाया गया है। इसमें प्रवेश इसकी लम्बी भुजा में निर्मित स्तम्भ युक्त ऊर्धमण्डप से होकर है। इस अधर्मण्डप में सिंह आधार वाले दो स्तम्भ तथा दो अर्ध स्तम्भ हैं। विशाल कक्ष के पीछे वाले एक छोटे प्रकोष्ठ में कभी शिवलिंग स्थापित था। इस रथ की गज पृष्ठाकार छत की रीढ़ पर नौ कलश कृति वाले शिखांत बनाये गये हैं।

धर्मराज रथ – यह अपने समूह का विशालतम तथा सबसे शानदार रथ है। वर्गाकार आधार पीठिका वाले इस तिमंजिले भवन के आधार तल में दो गर्भगृह तथा तीन ओर स्तम्भ युक्त खुले बरामदे बनाये गये हैं। यहां के स्तम्भ सिंह आधार युक्त हैं। ऊपरी मंजिलों में गजपृष्ठाकार मण्डपों की लघु-प्रतिकृतियां तथा कुड्डु अलिंद बनाये गये हैं, जिनमें प्रतिमा शास्त्र के कुछ बहुमूल्य नमूने सज्जित हैं। नीचे की दो पंक्तियों में शिव के अर्द्घनारीश्र्वर आदि रूप तथा सबसे ऊपरी मंजिल में ब्रह्मा, विष्णु एवं सूर्य आदि देवताओं की मूर्तियां सज्जित हैं। इस रचना के विकसित अनेक वास्तु-स्मारकों के मूल स्वरूप को देखा जा सकता है।

भीम रथ – विशालकाय भीम रथ की लंबाई 14.35 मीटर, चौड़ाई 7.65 मीटर तथा ऊँचाई 7.95 मीटर है। यह रथ आयताकार आधार वाले दो तलीम भवन की प्रतिकृति है। इसकी निचली छत में स्तूपिकायें तथा ऊपरी छत को गजपृष्ठाकार बनाया गया है। इनकी मिहिराभों में मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इसके आधार की एक छोटी भुजा तथा दो बड़ी भुजाओं में स्तम्भ युक्त बरामदे बनाये गये हैं। स्तम्भ सिंह आधार वाले हैं। एक मान्यता के अनुसार ऐसी छतों में परवर्ती दक्षिण भारतीय गोपुरों का आदि रूप देखा जा सकता है।

अर्जुन व द्रौपदी रथ – इन दोनों रथों को ही चट्टान में से काटकर गढ़ा गया है, क्योंकि दोनों की आधार पीठ एकाश्म है। ये दोनों रथ वास्तव में भगवान शिव एवं माता पार्वती के प्रतीत होते हैं, क्योंकि द्रौपदी रथ के गर्भगृह की पिछली दीवार पर माता दुर्गा की रिलीफ मूर्ति अंकित है। दूसरे इन दोनों रथों के निकट ही दो छोटी चट्टानों से माता दुर्गा के सिंह तथा भगवान शिव के नंदी बैल की एकाश्म मूर्तियां गढ़ी गई हैं।

अर्जुन रथ, धर्मराज रथ का ही लघु संस्करण है तथा यह दो मंजिला प्रसाद-सा लगता है। प्रवेश स्थान में दो सिंह स्तम्भों पर आधारित बरसाती तथा एक सोपान है। इस रथ की प्रमुख मूर्तियों में नंदी पर झुके हुए भगवान शिव, ऐरावत हाथी पर इन्द्र देवता तथा गरुड़ पर आरूढ़ भगवान विष्णु हैं।

द्रौपदी रथ सभी रथों में छोटा, सादगी पूर्ण तथा अलग प्रकार का है। इसकी छत का आकार झोपड़ी के छप्पर जैसा है तथा भीतर एक पंशाला है। बाहरी ओर से चारों कोनों में चार अर्द्घ स्तम्भ बनाये गये हैं, जो छत को संभालते हुए से लगते हैं। प्रवेश-द्वार के दोनों ओर दो नारी द्वारपालों की प्रतिमाएं हैं जैसा कि इसकी आकृति से प्रतीत होता है, बहुत संभव है कि यह एक स्थान से दूसरे स्थान के विषय में जान सकने वाले किसी ग्रामीण मंदिर की प्रतिकृति हो।

नकुल सहदेव रथ – इस रथ का प्लान बौद्घ चैत्यों की भांति अंग्रेजी के “यू’ अक्षर के आकार का है। यह बहुत ही छोटी नापों वाला है। दक्षिणमुखी इस मंदिर के प्रवेश-द्वार के सामने दो सिंह युक्त स्तम्भों पर टिकी बरसाती है। हो सकता है, यह रथ इन्द्र देवता के लिए बनाया गया हो, क्योंकि इसके निकट ही एकाश्म हाथी की मूर्ति गढ़ी गई है।

– निर्विकल्प विश्र्वहृदय

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