न्यूक डील अब अपने अंतिम पड़ाव पर है। डील को अंतिम रूप देने के लिए 25 सितम्बर को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को राष्टपति जॉर्ज बुश का वाशिंगटन आने का न्यौता भी मिल गया है। इससे यह माना जा रहा है कि अमेरिकी संसद से तब तक अमेरिकी प्रशासन इसके लिए स्वीकृति भी हासिल कर लेगा। हालॉंकि अभी बुश प्रशासन के लोग संभावित विरोध को शांत करने में जुटे हैं, फिर भी कूटनीतिक तौर पर स्वीकृति के पहले ही बुश द्वारा मनमोहन सिंह को वाशिंगटन बुलाना इस बात का संकेत जरूर देता है कि बुश इसकी स्वीकृति के प्रति पूर्ण आश्र्वस्त हैं। कायदन उन्हें होना भी चाहिए। जब उनके प्रयासों ने न्यूक डील को आईएईए और एनएसजी का बैरियर पार करवा दिया और उन सभी देशों से सहमति दिलवा दी जो इसे हर हाल में रोकने की कसम खाये बैठे थे, तो खुद वे अपनी संसद की स्वीकृति नहीं दिलवा सकेंगे, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। अतएव अब मानकर यही चलना होगा कि डील के बाबत अमेरिकी कांग्रेस की स्वीकृति सिर्फ औपचारिकता की बात रह गई है।
इसका परोक्ष ही सही, एक संकेत तब मिला था जब अमेरिकी विदेशमंत्री कोंडालिजा राइस ने बयान दिया था कि भारत को अमेरिकी हितों का भी खयाल रखना चाहिए। उनके इस बयान की कई तरह की व्याख्यायें की गई थीं। लेकिन यह एक सीधी-सपाट उक्ति थी जो पहले तो यही दर्शाती थी कि भारत अब अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए किसी भी देश से व्यापार करने का वैध अधिकारी है। उनका कहना इस अर्थ में सही भी था कि एनएसजी की स्वीकृति मिलने के बाद अमेरिका के अलावा भी कई देश भारत के साथ परमाणु व्यापार करने के काफी इच्छुक दिखाई दिये। अब भारत इस हैसियत में आ गया है कि वह परमाणु ईंधन और तत्संबंधी टेक्नोलॉजी दुनिया के किसी देश से हासिल कर सकता है। राइस का इशारा सिर्फ इतने भर का है कि भारत को यह हैसियत दिलाने में अमेरिका की जो भूमिका रही है, भारत को उसे विस्मृत नहीं करना चाहिए।
अमेरिका के मन में अगर भारत से इस तरह की कोई अपेक्षा है तो उसे ़गलत भी नहीं ठहराया जा सकता। उसने अपनी इसी अपेक्षा की पूर्ति के लिए तीन साल तक लगातार पापड़ बेले हैं। उसने अपने बल पर भारत के पक्ष में विश्र्व के पारमाणविक इतिहास में एक अपवाद की सृष्टि की है। वह यह कि उसने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत के लिए असैन्य परमाणु व्यापार का बंद रास्ता खुलवा दिया है। अतः वह भारत से यह अपेक्षा रखने का वास्तविक ह़कदार है कि व्यापार का फायदा अधिकतम उसके हिस्से में जाय। हालॉंकि भारत इस व्यापार पर अमेरिका का एकाधिकार किसी सूरत में नहीं चाहेगा और खुद अमेरिका भी शायद ही ऐसा सोचे, लेकिन इस व्यापार में अमेरिका को वरीयता तो मिलनी ही चाहिए। अगर अमेरिका हमारी परमाणु ऊर्जा की ़जरूरतों को अन्य देशों के समान मूल्य पर अथवा कम मूल्य पर पूरी करता है तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि हम उसे व्यापार में तरजीह न दें। वैसे भी हमारी ऊर्जा ़जरूरतें भविष्य के विकास के पैमाने पर इतनी अधिक हैं कि हम अपने पारमाणविक व्यापार को विश्र्व स्तर पर बहुत आसानी से प्रतिस्पर्धात्मक बना सकते हैं।
न्यायिक स्वच्छता अभियान
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को बर्खास्त कर उन पर महाभियोग चलाने की केन्द्र सरकार से सिफारिश की और उसके बाद उन्होंने हरियाणा उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों से पूछताछ करने की अनुमति सीबीआई को प्रदान की। अब उच्चतम न्यायालय को यह निर्णय करना है कि गाजियाबाद (उ.प्र.) नजारत में तृतीय व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के भविष्य निधि खातों से 23 करोड़ के गबन का मामला जॉंच के लिए सीबीआई को सौंपा जाए या नहीं?
ये सारी कवायदें यह साबित करती हैं कि देश का कोई ऐसा संस्थान अब बचा नहीं रह गया है जहां भ्रष्टाचार ने अपना प्रसार न कर लिया हो। निचले स्तर पर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की चर्चा तो बहुत दिनों से चल रही है। लेकिन उच्च स्तर पर अभी इसे विश्र्वास के योग्य माना जा रहा था। इस बात को स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है कि भ्रष्टाचार अब इस देश के सामाजिक जीवन का पर्याय बन गया है। इसने देश के असहाय और गरीब आदमी के विकास के हर रास्ते को रूंध दिया है। फिर भी देश का आम आदमी बहुत हद तक न्यायपालिका पर अपना विश्र्वास बनाये हुए है। उसका मानना है कि हर कहीं से ठुकराये जाने के बाद देर-सबेर न्यायपालिका उसके पक्ष में ़जरूर खड़ी होगी। लेकिन ऐसी हालत में जब उसके सामने माननीय न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के किस्से सुनाये जायेंगे, तब उसके विश्र्वास का अंतिम आसरा भी समाप्त हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इस भरोसे को कायम रखने के लिए जो न्यायिक स्वच्छता का अभियान छेड़ा है उसे सराहना भी मिलनी चाहिए और सहयोग भी। यह न्यायपालिका के प्रति देश के आम आदमी की आस्था को बनाये रखने में कारगर सिद्घ होगा।
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