मनुस्मृति की एक पंक्ति अक्सर उद्यृत की जाती है- पुत्रो रक्षति वार्धक्ये। यानी वृद्घावस्था में पुत्र रक्षा करता है। किसका? मनु की पंक्ति का उद्देश्य यह बताना है कि स्त्री का संरक्षण बाल्यावस्था में पिता द्वारा, यौवन में पति द्वारा और बुढ़ापे में पुत्र द्वारा किया जाता है। पूरा श्लोक इस प्रकर है-
पिता रक्षति कौमारे
भर्ता रक्षति यौवने
पुत्रो रक्षति वार्धक्ये
न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हंति।
इस कथन को लेकर स्त्री मुक्तिवादी प्रायः मनु की कड़ी आलोचना किया करते हैं। यहां मेरा मतलब उक्त श्लोक की तृतीय पंक्ति मात्र से है, जिसमें यह स्मरण दिलाया जाता है कि जब मां बूढ़ी हो जाती है, तब उसके संरक्षण का दायित्व जवान बेटे को अपने ऊपर ले लेना चाहिए। यहां तो यद्यपि केवल मां का ही पक्ष उठाया गया है, तो भी मेरा विचार है कि इसके साथ पिता के पक्ष पर भी विचार किया जाए तो “पुत्रो रक्षति वार्धक्ये’ का अर्थ होगा, जब मां-बाप बूढ़े हो जाते हैं, तब उनका संरक्षण करने का दायित्व पुत्र को अपने ऊपर ले लेना चाहिए। यहां “पुत्र’ शब्द के अर्थ का थोड़ा विस्तार करें तो पुत्री भी उसमें आ जाएगी। तब उसका आशय होगा- वृद्घ माता-पिता का संरक्षण करने का दायित्व युवा संतानों का है- चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियां। यानी हर बेटे और बेटी को चाहिए कि जब वे युवावस्था को प्राप्त हो जाएं, तब अपने मां-बाप का, जो कि सहज ही वृद्घावस्था का दुःख भोग रहे होंगे- संरक्षण स्वेच्छापूर्वक, सहज स्वधर्म मान कर करना है।
भारतीय समाज की यह विशेषता है कि पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से कुछ ऐसे मिथक प्रचलित होते रहे हैं, जिनके सहारे हमारी परस्पर स्नेह पर आधारित पारिवारिक संस्कृति बहुत कुछ अक्षुण्ण बनी रह पाई है। संतानों की “मातृ-पितृ भक्ति’ को उजागर करने वाली कई कथाएं हैं, जिनमें से एक है श्रवण कुमार की कथा, जिसने महात्मा गांधी को भी बचपन में बहुत अधिक प्रभावित किया था। इसी का सत्परिणाम है कि यद्यपि “संयुक्त परिवार प्रथा’ लगभग टूट-सी गई है और “अणु-कुटुंब प्रथा’ का सर्वत्र प्रचलन हो रहा है तो भी हमारे अधिकांश परिवारों में बूढ़े मां-बाप ही नहीं, दादा-दादी व नाना-नानी आदि का भी यथासंभव प्रेमपूर्वक संरक्षण युवा दंपत्ति करते हुए, अपने को कृतकृत्य मानते हैं।
लेकिन इसके बावजूद अपवाद स्वरूप ही सही, कहीं-कहीं बूढ़े मां-बाप के प्रति निर्ममता और ाूरता के साथ पेश आने वाली संतानों की खबरें भी यदा-कदा संचार माध्यमों में आती रहती हैं। उदाहरणस्वरूप एक खबर का सारांश यहां प्रस्तुत कर रहा हूं, जो मलयालम समाचार-पत्र “मातृभूमि’ में प्रकाशित हुई है। बूढ़ा पिता मधुमेह से ग्रस्त है, जिस कारण बायां पैर घुटने के ऊपर से काटा गया है। दो बेटों में छोटे की जान किसी दुर्घटना में चली गई। बड़ा बेटा मुंबई में था। तीन बेटियां हैं। तीनों अपने-अपने पति के साथ रहती हैं। वे आकर बूढ़े मां-बाप की सेवा किया करती हैं। हाल ही में बड़ा बेटा मुंबई से लौटा और धमकी देकर पिता की सारी संपत्ति अपने नाम लिखवा ली। यह जानकर बूढ़ी मां ने वह दस्तावेज रद्द करा लिये। इस पर ाूद्घ होकर बड़ा बेटा मां-बाप को शारीरिक व मानसिक रूप से उत्पीड़ित करने लगा। बहनों को मां-बाप की सेवा करने से रोका। अब न्यायालय का निर्णय आया है, जिसमें बड़े बेटे को अपने परिवार के साथ मां-बाप का घर छोड़ जाने का आदेश दिया गया और यह भी निर्देश दिया गया कि वह अपनी बहनों द्वारा की जा रही मातृ-पितृ सेवा में कोई विघ्न न डाले। इस खबर की सत्यता पर विश्र्वास करें या न करें, यह निर्णय तो अत्यंत न्याय संगत लगता है।
मेरी जान-पहचान के एक परिवार के एक सदस्य ने मुझसे कहा था कि उनके ससुराल में भी बूढ़े मां-बाप का ाूर उत्पीड़न उनके दो पुत्रों व बहुओं द्वारा किया जाता रहा। वहां भी उत्पीड़न का मूल कारण मां-बाप की संपत्ति पर अन्यायपूर्वक कब्जा करने का मोह था। कहते हैं कि पिता को धमकी देकर और कभी पीट कर भी चेक पर बलपूर्वक भारी रकम लिखवा कर हस्ताक्षर करा लेते थे और विरोध करने पर मनोरोग चिकित्सालय में दाखिल करा डालते थे। बूढ़े मां-बाप को बलपूर्वक वृद्घ सदन पहुंचाने वाली संतानों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। आवश्यकता है भारतीय संस्कृति के उन पुराने मिथकों को लौटा लाने की, जो मातृ-पितृ भक्ति का मूल्य बच्चों में पुनः संचरित कर सकें।
– के. जी. बालकृष्ण पिल्लै
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