मनुष्य का जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण जरूरी है। मनुष्य जीवन के प्रति जब तक दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, पदार्थों के प्रति आसक्त भाव नहीं छूटेगा। जिजीविषा की मूर्च्छा से वह अलग नहीं होगा तब तक जीवन में विपदाएँ आती रहेंगी। जीवन में सबकी रुचियां, उद्देश्य, आकर्षण, सोच, क्रिया बहुत कुछ भिन्न-भिन्न होती हैं। इसलिए उम्र का एक पड़ाव ऐसा आता है, जहॉं व्यक्ति स्वयं को स्वयं के चौराहे पर लक्ष्य की खोज में खड़ा पाता है। किधर मुड़े? क्या करे? कहॉं जाए? और उसी वक्त भारतीय संस्कृति और संत मनीषी सत् की ओर प्रस्थान का सम्बोधन देते हैं। श्रेष्ठता के शिखर तक पहुँचने के लिए तलहटी से विवेक के साथ सफर शुरू करने की इसी प्रेरणा का नाम है पुरुषार्थ चतुष्टय।
एक स्वस्थ, चरित्रवान, सुसंस्कारित, समाज निर्माण के लिए हमारे धर्मगुरुओं ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्टय की उपयोगी विधि एवं सार्थक जीवन शैली प्रदत्त की है। इन चार पुरुषार्थों से इहलोक और परलोक को सुखमय और स्वर्णिम बनाया जा सकता है।
अधिकांश ऐसे लोग होते हैं जो प्रतिबोध पाकर संबुद्घ होते हैं। बुराइयों के कुएँ में गिरते मनुष्य को किसी के दो हाथ थाम लें तो उन हाथों की पूजा होती है। पुरुषार्थ चतुष्टय भी एक ऐसा ही आध्यात्मिक उपाम है, जो मनुष्य को बचाता है अधर्म से, अज्ञान से, प्रमाद से, मूर्च्छा से और जीवन को देता है एक समग्र दिशा, विवेकपूर्ण दृष्टि और समर्थक जीवन-आयाम।
जीवन को सफल और सार्थक बनाने की पहली सीढ़ी है धर्म, फिर अर्थ और काम तथा अन्त में मोक्ष की प्राप्ति। धर्म कोई उपासना पद्घति न होकर एक विराट और विलक्षण जीवन-पद्घति है। यह दिखावा नहीं, दर्शन है। यह प्रदर्शन नहीं, प्रयोग है। यह चिकित्सा है मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन तक पहुँचाने की। यह स्वयं द्वारा स्वयं की खोज है। धर्म, ज्ञान और आचरण की खिड़की खोलता है और आध्यात्मिक विशुद्घता आत्मा से है। धर्म आदमी को पशुता से मानवता की ओर प्रेरित करता है। जियो और जीने दो के सिद्घांत का पालन करना और शांतिपूर्ण जीवन के आनन्द को भोगना धर्म पद्घति का भाग है। अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में संयम का होना है। मनुष्य तभी श्रेष्ठ माना जाएगा, जब वह अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित कर धर्म का जीवन जीएगा। गणि राजेन्द्र विजय कहते हैं – जिससे मनोरथ की सिद्घि हो, सर्वजन की वृद्घि हो, उन्नति हो और हम संसार के बंधन से मुक्त हो जाएं, वही धर्म है। ऐसा मनुष्य ही कर सकता है और वह भी धार्मिक मनुष्य ही, क्योंकि प्रकृति के प्रांगण में सबसे उन्नत प्राणी मनुष्य ही है। अपने को जीवित रखना और दूसरों को जीवित रहने में मदद करना ही वास्तविक धर्म है।
धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ का है। जीवन की प्रगति का मूल आधार ही धन है, अर्थ है। धर्म ही हमें मार्ग दिखाता है कि अर्थोपार्जन करते हुए प्रकृति से, समाज से, राष्ट से और आसपास के परिवेश से हमने जितना लिया है, उससे अधिक लौटाने का प्रयास करते रहें। यही वह सूत्र है जो समाज विकास का मूल आधार भी है। अर्जन के साथ विसर्जन के द्वारा ही मनुष्य जहॉं अपना जीवन उन्नत, सुखद और प्रेरक बना सकता है, वहीं वह समाज और राष्ट को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है।
धर्म और अर्थ के बाद काम को तीसरा स्थान दिया गया है। भारतीय संस्कृति में काम को धर्मपूर्वक, संयम एवं मर्यादा में बांध कर रखा गया है। काम के भोग पक्ष को मर्यादा, प्राकृतिक और सामाजिक नियमों व बंधनों से भोगने की व्यवस्था दी गई है। काम जीवन की प्राणशक्ति है।
धर्म, अर्थ और काम इन तीनों सीढ़ियों पर सफलतापूर्वक आरोहण करने वाले व्यक्ति को सहज ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। उसका जीवन यशस्वी, प्रेरक एवं सार्थक हो जाता है।
मनुष्य जब तक अपने संस्कारों से बंधा है, मुक्ति की बात उसके लिए अर्थशून्य है। आज हम जिस माहौल में जी रहे हैं, राष्ट की हर इकाई स्वतंत्र अस्तित्व के लिए संघर्षरत है, क्योंकि कोई भी इंसान औरों की वैसाखियों से चलकर मंजिल तक नहीं पहुँचना चाहता। वह स्वयं पैरों की बेड़ियां खोल कर दौड़-प्रतियोगिता में सम्मिलित होना चाहता है। जहॉं भी परतंत्रता होगी, व्यक्ति को उचित न्याय और अधिकार नहीं मिल सकेगा। बहुत जरूरी है मनुष्य अपने स्वतंत्र अस्तित्व का अहसास करे। उसमें मुक्त होने की तड़प जागे, क्योंकि बिना मुमुक्षा पुरुषार्थ चतुष्टय संभव नहीं।
मनुष्य का मन जब भी जागे, लक्ष्य का निर्धारण सबसे पहले करे। बिना उद्देश्य मीलों तक चलना सिर्फ थकान, भटकाव और नैराश्य देगा, मंजिल नहीं। स्वतंत्र अस्तित्व के लिए मनुष्य में चाहिए – सुलझा हुआ दृष्टिकोण, देश, काल, समय और व्यक्ति की सही परख, दृढ़ संकल्प शक्ति, पाथेय की पूर्ण तैयारी, अखण्ड आत्मविश्र्वास और स्वयं की पहचान। इसलिए यह व्यापक दृष्टिकोण और जीवन दृष्टि आज से और अभी से अपनाना जरूरी है। क्योंकि यह दृष्टि ऐसे सुख की तलाश है जो न पराधीन है और न ही खरीदा जा सकता है। स्वयं के द्वारा स्वयं के सुख को पाने की घटना है। असल में यह एक अहसास है जिसकी व्याख्या शब्द, शास्त्र, धर्म गुरु नहीं कर सकते। इसे तो सिर्फ जिया ही जा सकता है।
पुरुषार्थ चतुष्टय की इस प्रयोगशाला में कोई भी उतर सकता है। इसका संबंध उम्र से नहीं है। सचमुच, यह दृष्टिकोण एक प्रेरणा है, उन लोगों के लिए जो चौराहे पर खड़े हैं दिग्भ्रमित होकर। आत्मार्थी हैं पर रास्ता भूले हुए हैं। सत्य को देखना चाहते हैं मगर आँखें बंद किए हुए हैं। लक्ष्य तक पहुँचना है मगर कदम नहीं उठा पाते हैं। बहुत कुछ बनना चाहते हैं, लेकिन बनने की तैयारी नहीं है। ऐसे लोगों को सही मंजिल देना, निर्णायक भूमिका तक पहुँचाना, विवेक की आँखें खोलना इस पुरुषार्थ चतुष्टय रूपी आध्यात्मिक आरोहण का प्रेरक संकल्प है।
पक्षी जब भी उड़ेगा नीड़ को लक्ष्य बनाकर उड़ेगा। मनुष्य को भी पुरुषार्थ चतुष्टय के महान लक्ष्य को पाने के लिए चरण-न्याय करना होगा, तभी हर कदम पर सही दिशा, सही मंजिल पर पदचिह्न स्थापित हो सकेगा।
– मनीष जैन
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