वैश्र्वीकरण की बाजारवादी अर्थव्यवस्था का मुलम्मा उतरना शुरू हो गया है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था जो पिछले कई दशकों से विश्र्व के अधिकतर देशों के लिए न सिर्फ आदर्श बनी हुई है, अपितु इनके संचालन की बागडोर भी इसी के हाथ में है, आज खुद लड़खड़ाने लगी है और उसका खोखलापन सारी दुनिया के सामने उजागर हो गया है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की इस लड़खड़ाहट के साथ वैश्र्विक आर्थिक संकट भी बढ़ता जा रहा है। इस वित्तीय संकट को हल करने की कोशिशों में अमेरिकी अर्थशास्त्री और उसके बैंक जी-जान से जुटे हैं। लेकिन ये कोशिशें किस हद तक कामयाब होंगी अथवा होंगी या नहीं होंगी, इस बारे में कोई निश्र्चित भविष्यवाणी कर पाना बहुत कठिन है। फिलहाल अमेरिकी वित्तीय संकट के और गहरा जाने तथा अब इसका प्रसार यूरोप तक में फैलने के कारण दुनियाभर की सरकारों और कारपोरेट क्षेत्र में चिन्ता बढ़ती ही जा रही है। निवेशकों को अरबों-खरबों का नुकसान हो रहा है। लगभग सभी देशों की अर्थव्यवस्थायें मंदी का शिकार हो रही हैं। अमेरिका के वित्तीय प्रबंधन और बैकिंग प्रणाली इसका फौरी हल तलाशने में जुटे हैं, लेकिन इस संकट का स्थायी समाधान उसके पास नहीं है।
इस संकट से जहॉं हर देश के शेयर बा़जारों में भारी गिरावट दर्ज की जा रही है, वहीं ठीक इसके उल्टे मंदी में “बीमा’ माने-जाने वाले बुलियन अर्थात सोने-चॉंदी में निरंतर तेजी आती जा रही है। पिछले बुधवार को विश्र्व-बाजार में सोने के भाव 900 डॉलर प्रति औंस के भाव से भी ऊपर चले गये। मंदी की आशंका से कच्चे तेल की कीमतें भी कम हो रही हैं। अमेरिका में फ्लैटों और अपार्टमेंटों के भाव कई गुना कम हो गये हैं। हालत यह है कि अमेरिका के लगभग हर शहर के अधिकतर मकानों पर “फॉर सेल’ की तख्ती लटकी देखी जा सकती है। अमेरिका में लाखों लोगों के बेरोजगार होने का खतरा बढ़ गया है जो उस समाज के सामाजिक संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देने की स्थिति में है। जहॉं तक भारत का सवाल है, इस संकट से भारत भी अछूता नहीं है। हालॉंकि इस संबंध में भारत का वित्तीय प्रबंधन देश को बार-बार आश्र्वस्त कर रहा है कि हमारे लिए घबराने जैसी कोई बात नहीं है और हम इस संकट को झेलते हुए अपनी अर्थव्यवस्था को सकुशल बचा ले जायेंगे, लेकिन जिस तरह से हमारा शेयर बाजार गोते मार रहा है उसे देखते हुए पूरी तरह आश्र्वस्त भी नहीं हुआ जा सकता। ़खास कर जब देश का वित्तमंत्री अपनी ओर से यह चेतावनी जारी कर रहा हो कि शेयर बाजार में पूंजी निवेश बहुत सोच-समझ कर किया जाय।
यह जरूर है कि सरकार ने बाजार से धन उगाही के अनेक प्रयासों को अंजाम दिया है जो मंदी की मार को कुछ हद तक बेअसर करने में कामयाब हो सकते हैं। लेकिन कई मायनों में हमारी अमेरिकी अर्थनीति पर निर्भरता हमें हानिकारक प्रभाव नहीं देगी, यह सोचना एक शतुरमुर्गी ख्याल होगा। भारतीय निवेशकों को भी अमेरिकी मंदी की मार झेलते हुए काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। शेयर बाजार में दर्ज होने वाली यह उथल-पुथल किस तरह भारतीय निवेशकों के लिए जानलेवा सिद्घ हो रही है, उसका एक उदाहरण यह है कि जनवरी, 2008 में उनकी कुल निवेश “एसेट्स’ 73 खरब रुपये थी जो अब घट कर 36.5 खरब रुपये रह गई है। इस हालत में भी देश के वित्तमंत्री अगर देश की अर्थव्यवस्था के अविचलित रहने का दिलासा दे रहे हैं तो उनके इस दिलासे पर पूरी तरह यकीन करना खाई में कूदने जैसा ही होगा। कम से कम अब वह समय आ गया है जब “भूमंडलीकरण’ की बाजारवादी व्यवस्था की हिमायत करने वालों को अपनी आर्थिक नीतियों पर पुनिर्ंिर्वचार करने की तात्कालिक आवश्यकता है। उन्हें इस बात को बखूबी समझना होगा कि यह विफलता अर्थव्यवस्था की नहीं है। इस विफलता के साथ अर्थनीति का खोखलापन उजागर हुआ है।
अपने ढहते हुए आर्थिक साम्राज्य को अमेरिका संभाल पायेगा अथवा नहीं तथा उसके प्रभाव में कितने देशों की अर्थव्यवस्थायें गोता लगाने को मजबूर होंगी, इसका कोई स्पष्ट आकलन नहीं प्रस्तुत किया जा सकता। लेकिन कम से कम इस बात पर तो सोचा ही जा सकता है कि वैश्र्विक अर्थव्यवस्था को क्या किसी ऐसे बिन्दु पर खड़ा करना उचित होगा, जहॉं एक देश की अर्थव्यवस्था इस कदर अपरिहार्य हो जाय कि उसका उठना-गिरना सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को आंदोलित कर दे। पूंजीवादी अर्थशास्त्र का सीधा मतलब है मुनाफे की अर्थव्यवस्था और इसे मानवीय तो किसी कोण से नहीं कहा जा सकता। इसने अन्तर्राष्टीय स्तर पर उन सभी राष्टीय अर्थव्यवस्थाओं को तोड़ा है जो मानवीय संदर्भों से जुड़ी थीं। पूंजी का यह प्रच्छन्न साम्राज्य एक नई औपनिवेशिक अवधारणा का ही संपोषक है। इसके केन्द्र में अमेरिका है, उसके वर्चस्व वाला विश्र्व बैंक है और उसकी बहुराष्टीय कंपनियां हैं। इन्होंने अपने इस अर्थशास्त्र को नाम तो दिया भूमंडलीकरण का और उदारीकरण का, लेकिन जो संजाल विभिन्न देशों में इसने फैलाया उसके सारे तंतु शोषण के ही बारीक धागों से बुने हैं। पूंजीवाद अब अपने प्रसार के अंतिम बिन्दु को छूकर गुब्बारे की तरह फूटने को है। अतः यह कहना कि वे प्रभावित होंगे, खुशफहमी भर है। प्रभावित पूरी दुनिया का अर्थशास्त्र होगा और तब तक प्रभावित रहेगा जब तक दुनिया पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प नहीं खोज लेती।
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