एक ऊंची चिमनी हमारी खिड़की और छत से साफ दिखती थी। उसके ऊपर से भूरा धुआं निकल कर आसमान पर फैलता रहता था। फैलने के बाद धुएँ का रंग गुलाबी हो जाता था। मां बताती है कि घर से आते-जाते यह गुलाबी आसमान एकदम सामने दिखता था। जिन दिनों वहां काम लगातार होता, हरेक घर पर चिमनी से उड़े कार्बन की बारीक पर्त जम जाती थी। दिन भर में चेहरे पर इतनी गर्द चिपक जाती थी कि शाम को मुंह धोने पर पानी के छपके मटमैले काले रंग के होते थे।
सरकार बाबू लावारिस थे। उन्हें अपना गांव छोड़े तब तक बारह वर्ष हो गये थे। इन वर्षों के दौरान वे बचपन के अंतिम छोर से उछल कर किशोरवय को पार करते अपनी जवानी में आ चुके थे। इसके बाद जब उनसे शहर छूटा तो सबसे पहले वे अपने गांव की खोज में निकले। चूंकि आते वक्त वे गांव से पश्र्चिम की ओर चले थे, इसलिए वापसी में सूरज के उगने से अनुमान लगा कर पूरब की ओर बढ़े। वे अपनी याद्दाश्त, और दूरी और समय के लम्बे अंतरालों पर मिलती मानव-संरचनाओं से पूछताछ के जरिए मदद लेते रहे और इस तरह एक रोज अपने गांव की सीमा तक पहुंचने में सफल भी हुए। लेकिन वहां अपने किसी परिजन को न पाकर उन्हें बहुत निराशा हुई। पुरखों के घर की कोई शिनाख्त तक नहीं बची थी। उसकी जगह गोरे बच्चों और अंग्रेजी परिवारों से सजी खूबसूरत कालोनी बस गयी थी। बचपन में वे आम और पपीते के जिस बगीचे में खेलते थे, उसकी जगह छोटी घास और फूलों से भरे एक सुंदर पार्क ने ले ली थी। जूट और धान से हरे रहने वाले खेत ऊंची चारदीवारी से घिरे हुए थे, जिसके भीतर दैत्याकार ऊंचाई की बेढब इमारतें बाहर की ओर घूरती थीं।
चहारदीवारी के विशाल दरवाजों में आते-जाते गोरे अफसरों से बच कर सरकार बाबू ने वहां तैनात देशी दरबानों से कुछ जानकारियां लीं। लेकिन अपनी नौकरी, पेट, परिवार और जान की दुहाई देते हुए, वे इतना ही बता सके कि गांवों के सभी बाशिन्दे कहीं और चले गये हैं।
कलकत्ता और कालीकट से बढ़ते निर्यात के साथ पूरे बंगाल में अंग्रेजों की जमात बढ़ती गयी। इसलिए उनके परिवारों के बसने की जगहें खोजी गयीं। जहां-जहां अंग्रेजी सेनाएं अथवा व्यापार के लिये रेलमार्ग थे, उन्हें अधिग्रहीत करके वहीं के बाशिन्दों से नये मुहल्ले बनवाये गये। मुहल्लों के बसने के साथ खपरैल और झोपड़ियां उजड़ती रहीं। लोगों का पलायन भी जारी रहा और जो स्वदेशी आखिर तक बचे थे वहां, उन्हें नौकर, दरबान या सफाईकर्मियों के तौर पर रख लिया गया।
अपने घर-परिवार की अज्ञात स्थितियों को जानकर सरकार बाबू को जमीन से लेकर आसमान तक सब कुछ पराया दिखने लगा – सिवाय उस बच्चे के जो उस वक्त उनके कंधे पर बैठा था और जमीन और आसमान के बीच कहीं नहीं दिख रहा था। बच्चे के साथ चलते हुए उनके कदम वापस मुड़े और वे पश्र्चिमोत्तर दिशा में चलने लगे।
श्रेय बच्चे की सहनशीलता को जाय कि सरकार बाबू से मिली हिफाजत को , इस बात में दुविधा है, लेकिन लगभग साल भर की पद-यात्रा के दौरान नौ साल के उस बच्चे का कुछ भी बुरा नहीं हुआ। लड़का पूरे ग्यारह माह तक जंगल-जंगल, बंजर-बंजर, चलते हुए किसी अनजान सफर के तमाम मंजर देखता रहा। तब जाकर उसे दिखीं कुछ झुग्गियां, मतलब मकान। लड़के का चेहरा, जो कभी गोरा था, धूल, थकान, अचरज और सफर की निरंतरता से एकदम बुझ-सा गया था। धोने के लिये सरकार बाबू उसे पास की किसी बावड़ी तक ले गये। बच्चे का चेहरा धोते हुए पानी में उन्हें अपना प्रतिबिम्ब भी दिख गया। उनका गेंहुआ रूप तब तक विद्रूप हो चुका था, लेकिन उसे कई तरह से धो-पोंछ कर वे कुछ बेहतर दिखने लगे।
लड़का भूखा था और वे भी। इसलिए पतले बांस और सरकंडों की मदद से उन्होंने कुछ बंसियां बनायीं। और थोड़े ही समय में ठीक-ठाक तादात में मछलियां जुटा लीं। बगुले-सी तेज आंखों के साथ बंसी की हरकतों में उलझे हुए, उन्हें इसकी खबर तक न रही कि उनका बदतर से बेहतर हो आया रूप क्या-क्या जादू कर चुका है। यह बात उन्हें तब मालूम हुई, जब उनकी गेंहुवा मूरत ने एक सांवली सूरत का सामना किया। सांवली उन पर यूं मोह गयी थी कि शर्म के मारे कई दिनों तक किसी से कुछ न बोली और सरकार बाबू जो उसके रंग पर फिदा हुए, तो जिन्दगी भर उसे सांवली ही बुलाते आये।
सरकार बाबू ने अपनी बलिष्ठ देह और दिमागी समृद्धि के प्रयोग से बहुतों की बिगड़ी बनाया और अनेक ग़ैर-ज़रूरी बनावटों को तोड़ा भी। मेरे गांव के सबसे गहरे चार कुएं उन्हीं के खोदे हुए थे। पागल हाथी या शातिर चीते-तेंदुओं को उन्होंने कई बार सबक सिखाया और बांस या लाठियों से ही धराशायी कर दिया था। सांपों के लिये तो वे इतने खतरनाक थे कि उन्हें देखते ही पकड़ लेते थे, मारने के लिए लाठी-डंडे बाद में खोजते थे और न मिले तो भी कोई बात नहीं, पटक-पटक कर मार देते।
इस तरह से गांव की जिन्दगी को आमूल प्रभावित कर देने वाले सरकार बाबू स्थायी रूप से वहीं रह गये और सबके चहेते बन गये। गोकुल के कन्हैया सरीखे। उनकी राधा हुई सांवली। राधा को कान्हा संग रास रचाने में कोई खास लुका-छिपी भी नहीं करनी पड़ी, लेकिन उसे शर्म बहुत आती थी। कुछ इतनी कि जब वह सिवान पर बनाये गये सरकार बाबू के घर में घुसी तो फिर बाहर कभी न दिखी। लड़का भी सरकार बाबू के हैरतअंगेज कारनामे खामोशी से देखता और उम्र के समानुपात में बढ़ता रहा। वह सांवली को “काकी’ कहने लगा और सरकार बाबू तो पहले से उसके “कक्का’ थे।
अब आगे उन लोगों की बात, जिन्हें कहानी कहने के लिये मैं अपना पूर्वज मानता हूं और मैं उनकी वंश परम्परा की अगली चौथी पीढ़ी में हूं। मतलब कहानी मेरे परदादा और परदादी की।
परदादा सौभाग्य या दुर्भाग्य से लगभग नियत रही उस परम्परा की अगली कड़ी के रूप में थे, जिसमें मेरे पुरखे इकलौती संतानों के रूप में बचते थे। खाने-पीने को लेकर वे आला दर्जे के लापरवाह से लेकर अव्वल दर्जे के शौकीन तक सब कुछ थे। दिन पर दिन, कई दिन बीत जाते, उन्हें खाने की जरूरत महसूस नहीं होती थी और इसके उलट जो कभी जी कर दिया तो रात गये अंधेरे से भी झाड़-झंखाड़ खंगाल कर तीतर-बटेर निकाल लाते। लेकिन अक्सर तो जो कुछ भी परस दिया जाय, चुपचाप खा लेते थे। लम्बे समय से ऐसा ही चल रहा था।
एक रोज खाते-खाते थाली खाली हो गयी, लेकिन उन्हें डकार नहीं आयी। तिरछी हथेली से पोंछ कर उन्होंने थाली को साफ और चिकना कर दिया, फिर भी भूख खत्म नहीं हुई। पूरे गांव की हालत यही थी। जायका बदलने वाले तीतर-बटेर हर किसी की खोज बन गये। उस घटना की बीती शाम परदादा ने कई झाड़ियां भी खंगाली थीं, लेकिन पहली बार कुछ साथ नहीं आया था। ये सभी छोटे परिन्दे और जानवर या तो पकड़ कर मार दिये गये थे अथवा लम्बे सूखे के कारण खत्म होती झाड़ियों से घने जंगलों में चले गये थे।
अपने पेट के अधूरेपन से परदादा को, बच्चों और पत्नी की भूख का एहसास हुआ। फिर वे सभी के चेहरे देख कर भीतर तक दहल गये। अकाल के इस खौफनाक दृश्य में अपने ही सामने पत्नी व बच्चों का तड़पना असह्य था और इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी नहीं था, लेकिन विकल्प खोजना अनिवार्य भी था। उस शाम भी वे रोज की तरह शौच को निकले, लेकिन पिछले दिनों की तरह वापस नहीं आये। उनके साथ जाने वाली इकलौती कीमती चीज वह लोटा था, जिसकी पूरी धारिता में पानी भर कर वे शौच के लिये जाते थे। लोटा एक ऐसे धातु का बना था, जिसके कम आयतन का वजन भी बहुत अधिक होता है। लोग उस धातु को अतार्किक रूप से “फूल’ कहते थे। शायद उन्हें किसी छोटे, लेकिन बहुत भारी फूल के बारे में पता हो।
परदादा गांव से पूरब की ओर गये थे, अरहर, मसूर के सूखते खेतों के पूरब, सूखी नदी पार के जंगल के पूरब- और बाद में यह सोच लिया गया कि वे पूरे देश के पूरब चले गये थे। दूसरे किसी देश यानी परदेश में। फिर कुछ इसी से मिलते-जुलते तरीकों से उनके पीछे कई लोग गये और लम्बे समय तक जाते भी रहे। चूंकि वे परदेश में भूख और गरीबी के विकल्प खोजने जाते, इसलिए त्रस्त परिवारों को उनकी वापसी का बेसब्री से इंतजार होता था। उन्हें लौटने में जितनी देर होती, परिवार बाहरी तौर पर उतने ही उद्विग्न दिखते थे। लेकिन भीतर उसी अनुपात में एक खुशी भी संचित रहती, जो धन और समृद्धि बढ़ने की उम्मीद से उपजती थी। इस तरह से परदेश एक खुशनुमा सपना बना गया। भूख, बीमारियां, दर्द और मौतों से जूझते हुए लोग उसके हकीकत बनने का इंतजार करते थे।
मेरे दादा तब तक एक बहन के गुजर जाने के बाद तीन भाइयों के बीच थे। और यूं खून और नस्ल के आगे न बढ़ने का डर, जो हमारे खानदान पर हमेशा बना रहता था, लगभग खत्म हो गया था। लेकिन परदादा के जाने के बाद ऐसा नहीं रहा। परदादी, दादा और उनके भाइयों के साथ पेड़ के नाम पर कांटों में बदल गयीं और झरबेरियां खोजने लगीं। उन पर उगे एक-एक फल पर उछलते-झपटते, धूप और लू में कुम्हलाते हुए वे जीते रहे। इसी बीच गांव के कुछ घरों से चूहों के गिरने और तड़प कर मर जाने की खबर फैली। लोग इस खबर की तेजी से ही घरों को छोड़ कर भागने लगे। यह एक महामारी के आने की सूचना थी। महामारी थी- “प्लेग।’ लोग इसे “हैजा’ भी कहते हैं। परदादी, दादा और उनके भाई जिन चीजों को जरूरी समझे, गठरियों में समेट कर गांव से बाहर आ गये। औरों की तरह वे भी एक बगीचे में रुके; जो एक बड़े-से जंगल से जुड़ा था।
लेकिन उनके जल्दी से भागने में भी शायद देर हो चुकी थी। दादा के एक और फिर दूसरे भाई के भी जिस्म तड़पने लगे। दादा को उनसे दूर कर परदादी ने बचा लिया। और यह उस पत्थरदिल की समझदारी की बदौलत सम्भव हुआ, जिसके तहत दादा के भाइयों की देह बगीचे में ही कई दिन तक सड़ती रही। किसी बगीचे में जब एक की मौत होती, तो उसके बाद वहां मौतों का सिलसिला-सा चल उठता। इसलिए लोग फौरन दूसरे बगीचों में चले जाते। भाइयों की मौत के बाद दादा और परदादी ने भी ऐसा ही किया।
इस तरह फिर से दादा अकेले बचे अपनी पीढ़ी में। दो बेटे खोकर परदादी भी जैसे टूट-सी गयीं। लेकिन यह टूटना कुछ ऐसा था कि बची जिन्दगियां बचाने के लिये परदादी ने अपनी सामर्थ्य का कतरा-कतरा जोड़ लिया। प्रवास जारी रहा और महीनों तक चला। इस बीच कांटों के बीच से झरबेरियां भी खत्म हो चुकी थीं। लोग बरगद के गोदे और कच्चे आम खाकर जीते रहे और उससे भी अधिक लोग मरते रहे। कुछ ऐसे ही चित्र देश के मानचित्र के विभिन्न हिस्सों में उग आये थे। यह बात सांख्यिकी और भौगोलिक आंकड़ों में आज भी दर्ज है कि बीती सदी के शुरुआती दो दशकों में देश की जनसंख्या वृद्धि में भारी गिरावट आयी थी।
– श्रीकांत दुबे
You must be logged in to post a comment Login