दूध वाले से ऐसे जवाब की मैंने उम्मीद नहीं की थी। दो दिनों से दूध पतला आ रहा था। सुना दिया उसे। अब दूध पतला होने की शिकायत दूध वाले से न करें तो क्या भैंस से करें? मेरा तो मानना है कि जिस दूध वाले ने दूध पतला होने की शिकायत सुनी हो, उसे चुल्लू भर दूध में डूब मरना चाहिए। लेकिन इस दूध वाले लड़के ने पैकेट लेकर साफ कह दिया कि सेंटर पर आकर अपना हिसाब कर लीजिए। वह नयी नस्ल का दूध वाला जो था। कोठी और माप लेकर दूध बांटने वाला तो था नहीं, जो खिसिया कर चल देता या फिर अगले दिन बेहतर दूध की मलाईदार उम्मीद दिला कर पतला दूध थमा कर चला जाता। लेकिन यह तो पैकेट-बंद दूध बांटने वाला था। उसे दूध के मोटेपन से क्या लेना-देना? जैसा पैकेट-बंद दूध आता है, वैसा ही बांटता है। पैकेट में घुस कर तो पानी नहीं मिला सकता। वैसे मिलावट खोजी लोगों ने पैकेट-बंद दूध में मिलावट करने की तकनीक भी खोज ली है।
हमारे शहर में कोठी वाले दूध के साल में दो भाव होते हैं। होली से बढ़ते हैं तो राखी से कम होते हैं। भले ही पचास पैसे का फर्क ही क्यों न हो। पैकेट के दूध के भाव पेटोल के दामों जैसे चाहे जब बढ़ जाते हैं। इसकी सूचना दूध बांटने वाला नहीं देता। वह तो “अखबार में पढ़ लिया करो’ कह कर चल देता है। पैकेट के दूध के पैसे पहले देने पड़ते हैं, जबकि कोठी वाले दूध के पैसे दूध हजम हो जाने के बाद देने होते हैं। अल्पशिक्षित दूध वाला भी खड़ी-लेटी रेखाओं से कैल्कुलेटर जितना सही हिसाब लगा लेता है। साल में एक बार नवमातृत्व पाने वाली भैंस का दूध “चीका’ भी बोनस में दे जाता है। पैकेट वाला क्या जाने कि चीका क्या होता है? वह तो सिर्फ टोंड, स्टैंडर्ड, गोल्ड या डबल ाीम जानता है। कोठी वाला तो माप के बाद ऊपर से जरा-सी “धार’ भी डाल देता है। अगर बच्चा अलग से दूध ले तो उसे थोड़ा-सा दूध मुफ्त में देता है। पैकेट वाले से यह उम्मीद तो नहीं रखी जा सकती। क्या वह पैकेट फाड़ कर दे? इस कारण उससे “भैया’ का नाता भी नहीं जुड़ पाता। कोठी वाले दूध वाला तो घर भर का भैया होता है। चाहे बेटी हो, चाहे बहू हो।
पैकेट के इस युग में सब्जियां भी आजादी की सांस नहीं ले पातीं। पैकेट में बंद सब्जियों के भाव-ताव भी नहीं किये जा सकते। पैकेट पर वजन और कीमत लिखी होती है, उठाओ और चुकाओ। आम सब्जी वाले से तो मोल-भाव कर सकते हैं। ठीक से तोलने को कह सकते हैं। ज्यादा सब्जी लो तो दुकानदार धनिया-मिर्च ऊपर से मुफ्त में डाल देता है। पैकेट बंद सब्जी में तो धनिये-मिर्च का डंठल भी मुफ्त में नहीं मिलेगा। यहां तो संवादहीनता की स्थिति होती है। पहले लोग साल भर का गेहूं, चावल, दाल आदि भर कर रख लेते थे। इनकी कोठियों की जगह तय थी। इनका आकार परिवार के सदस्यों की संख्या को देखते हुए होता था। अब तो घरों में परिवार के सदस्यों के लिए भी जगह नहीं होती। ऐसे में आटे का पैकेट ही एकमात्र सहारा होता है। चक्की वाले से मेल-मुलाकात बंद हो जाती है। मुहल्ले, शहर की छुपी जानकारी नहीं मिल पाती और न ही अनाज के ताजा भाव। पहले होता यह था कि अगर महीने में एक बार नहीं गये तो वह पूछ लिया करता था, “”कहीं बाहर गये थे क्या?” अगर ज्यादा गेहूं पिसवाया तो पूछता था, “”मेहमान आये हैं क्या?” आटे के पैकेट से ऐसे सवाल की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। अब तो पका-पकाया भोजन भी पैकेटों में आने लगा है। बस फोन करो और आधे घंटे में हाजिर। किसी छोटे होटल में जाओ तो होटल वाले से बात कर सकते हैं, भोजन सर्व करने वाले से बतिया सकते हैं, सब्जी ज्यादा परोसने को कह सकते हैं, शिकायत कर सकते हैं, तारीफ कर सकते हैं। जिसका जवाब तुरन्त मिल जाता है। पैकेट बंद भोजन में तो नपा- तुला आता है। चुटकी भर नमक भी ज्यादा नहीं। तारीफ करो या आलोचना, कोई फर्क नहीं पड़ता। दुकानदार और ग्राहक के बीच कोई रिश्ता हो तब न। गांव उजड़ रहे हैं तो शहर आबाद हो रहे हैं। छोटे शहर बड़े शहर बनते जा रहे हैं और बड़े शहर मेटो सिटी। अब तो छोटे शहरों को भी मेटो सिटी होने का महारोग लग गया है। ढाई-तीन लाख की आबादी वाले मिनी शहरों में भी मॉल खुल गये हैं। मॉल संस्कृति भी अजीब है। यहां सभी नौकर होते हैं। मालिक कोई भी नहीं। साथ में झोला हो तो इसे बाहर काउंटर पर जमा करवाना होता है। ग्राहकों को अव्वल दर्जे का चोर मान कर छुपे कैमरों से रखवाली की जाती है। इस पर भी जब तक दरवाजे पर खड़े चौकीदार (सॉरी सिक्यूरिटी गार्ड) से सामान चेक करवा कर बिल पर “डिलीवर्ड’ का ठप्पा नहीं लगवा लेते, तब तक ग्राहक की ईमानदारी संदिग्ध रहती है। कुछ मॉल में तो बैग खुलवा कर देखे जाते हैं। ाी-होम डिलीवरी की सुविधा तभी मिलती है, जब पेशगी भुगतान किया जाता हो। पुराने दुकानदार तो सामान घर पहुंचा कर फिर भुगतान लेते हैं। साथ में साल भर की दालें-मसाले भरने की फेहरिस्त भी देते हैं। ऐसी दुकानों पर ग्राहक को भगवान माना जाता है और उन पर कोई निगरानी नहीं की जाती। वहां कोई सिक्योरिटी गार्ड भी नहीं होता, जो सामान खरीद कर निकले ग्राहकों के झोलों की तलाशी ले। पैकेट भरी जिंदगी ने आदमी का आदमी पर विश्र्वास खत्म कर दिया है।
पैकेट की जिंदगी जीने की मजबूरी वेतन तक आ पहुंची है। अब वेतन को सैलरी नहीं कहते बल्कि “पैकेज’ कहते हैं। पैकेज भी पैकेट का ही सगा शब्द भाई है। पहले वेतन नगद मिलता था, नोटों को छूने का आनंद अलग ही हुआ करता था। कई-कई बार गिनती होती थी। हर बार अलग-अलग निकलती थी। हर कोई तो नोट गिनने की मशीन नहीं खरीद सकता। और फिर नोटों को छूने का रोमांच भी कहां रहता? फिर चेक मिलने लगे। उस पर लिखी रकम देखकर आंखें ठंडी हो जाया करती थीं। नोट गिनने की झंझट नहीं। जितनी रकम लिखी है, उतनी ही जमा होगी। बैंक जाओ और चेक जमा करवा दो। जेबकटी का डर नहीं। कट भी गई तो दूसरा चेक बनवा लेंगे। इस पर भी पैकेट संस्कृति का साया पड़ गया। एक दिन कूरियर से बैंक का बड़ा-सा पैकेट आया। उसमें एक छोटा-सा पैकेट था। पैकेट में था, प्लास्टिक का कार्ड यानी एटीएम कार्ड। पैसा निकालना हो या भरना हो, एटीएम बूथ जाओ। यानी बैंक नहीं चाहता कि कोई ग्राहक उसके पास आये। इनसान को इनसान से दूर रखने की एक और साजिश। आपका बैंक-बैलेंस उस छोटे-से पैकेट में बंद प्लास्टिक कार्ड में है। ोडिट कार्ड के बाद तो दुकानदार भी नोट गिनने को तरस गये हैं।
इस पैकेट भरी जिंदगी ने आदमी का दिमाग भी पैकेट में बंद कर दिया है। खुली हवा नहीं, खुले विचार नहीं। बस कमाए जाओ, कमाए जाओ। रात-दिन काम किये जाओ। जब फुर्सत मिले तब पिज्जा-बर्गर खाये जाओ। सुबह हो या रात, पेट में ठूंसे जाओ। खाने के तुरन्त बाद काम पर लग जाओ। सेहत की चिन्ता मत करो। बीमार पड़ जाओगे तो इलाज के भारी-भरकम पैकेज का बंदोबस्त कम्पनी ही कर देगी और अगर मर गए तो घर पर पहुंचाने के लिए शव-पेटी यानी बड़ा पैकेट। क्यों सच है न?
– दिलीप गुप्ते
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