पौराणिक और ऐतिहासिक नगरी धर्मपुरी

dharmapuriमध्य-प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में नर्मदा (रेवा) नदी के किनारे बसी हुई एक छोटी-सी नगरी धरमपुरी है, जो सड़क-मार्ग द्वारा इंदौर से जुड़ी हुई है। यह नगरी मुंबई-आगरा राजमार्ग पर इंदौर से मुंबई की ओर जाते हुए खलघाट नामक स्थान से मात्र ग्यारह किलोमीटर पश्र्चिम की ओर स्थित है। इंदौर से इसकी कुल दूरी पचानवे किलोमीटर है।

प्राचीन ग्रंथों के आधार पर इस नगरी का नाम पहले धर्मपुरी था। संभवतः धर्मराज युधिष्ठिर ने इसी स्थान पर राजसूय-यज्ञ किया था। यही नहीं, इस नगरी को सहस्रार्जुन एवं उसके पश्र्चात् महाराज शिशुपाल की राजधानी होने का गौरव भी प्राप्त था। महाभारत के पश्र्चात् परीक्षित भारत के सम्राट बने। उस समय तक धर्मपुरी का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुका था।

धर्मपुरी में रेवा का कुंजा नदी से संगम होता है। रेवा-कुंजा संगम के इस तीर्थ का महात्म्य समस्त तीर्थों से बढ़कर बताया गया है। पुराणों के अनुसार सूर्यवंशी राजा रतिदेव गुरु वशिष्ठ के निर्देशानुसार यज्ञ और तप करने कुंजा तीर्थ पर आये। जब राजा का यज्ञ प्रारंभ हुआ, तब वेद ऋचाओं की ध्वनि सुनकर महाबाहु और सुबाहु नामक राक्षस यहां आकर यज्ञ-विध्वंस करने लगे। राक्षसों के उत्पात से उपस्थित मुनिगण एवं देवतागण वेद ऋचाओं को भूलने लगे। यह देख राजा ने अपने मंत्र बल के परााम से उन राक्षसों को पराजित किया। राजा भगवान शिव के परम भक्त थे। अतः यज्ञ में उन्होंने भगवान शिव का तप करते हुए, बिल्व (बेल) फल एवं आम्रफलों की आहुति दी। इससे प्रसन्न हो भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिये। तदुपरान्त उसी स्थान पर शिवलिंग का उद्भव हुआ। यह परम पावन शिवलिंग आज भी धरमपुरी में स्थित है और बिल्वामेश्र्वर अथवा बिल्वामृतेश्र्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है। हालॉंकि भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में इसकी गणना नहीं की जाती है।

भगवान बिल्वामृतेश्र्वर मंदिर के आसपास अनेक शिवालय एवं मंदिर हैं। इसके पूर्व की ओर सिद्धपीठ की पावन और जागृत तपोभूमि है। यह साधकों के लिए कल्पलता के समान अभीष्ठ फलदायिनी है। दक्षिण तट पर ग्यारह लिंगी का पावन स्थान है, जहां नर्मदा की परिामा करने वाले भक्तगण अपनी थकान मिटाने हेतु विश्राम लेते हैं। यहीं पर अनेक दर्शनीय मंदिर हैं। यही नहीं, अनेक सुंदर मस्जिदों के साथ-साथ यहां हजरत मोहम्मद शाह चिश्ती की दरगाह भी है। रेवा के तट पर प्राचीन शिवालय के बाहर पाली भाषा में एक शिलालेख है। इसी शिव-मंदिर के पास पांच गुफाएँ बनी हुई हैं। इनमें से एक गुफा का दूसरा छोर मांडू में है।

इन्हीं गुफाओं की चट्टानों पर पर्याप्त ऊँचाई पर पत्थरों में खुदी हुई तीन भगवान विष्णु, नृसिंह तथा शिवजी की विशाल मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों को देखकर भी इस स्थान की प्राचीनता प्रकट होती है।

पौराणिक महत्ता के साथ-साथ इस स्थान का ऐतिहासिक महत्व भी है। कहावत है कि पलाश-पत्र, चना-पात्र बनकर खाने के पानों के साथ राजदरबार में पहुंच जाता है। किसी अरण्य अथवा एकांत उपवन के फूल सुवासित होने से देवता के मस्तक पर अर्पित किये जाते हैं या राजमुकुट में शोभा पाते हैं अथवा नव वर-वधू के गलहार बनकर स्वयं अपने भाग्य पर इठलाते हुए प्रेमी-युगल को मंत्र-मुग्ध करते हैं।

यही बात धरमपुरी से जुड़े हुए गांव खुजावां के एक ठाकुर परिवार के ढोली व्यवसायी की पुत्री रूपा पर लागू होती है। रूपा बाद में मांड़वगढ़ की रानी रूपमती बनी। रूपा का बचपन भी इसी गांव की वादियों में बीता था। रूपा का जन्म काफी मान-मनौतियों के पश्र्चात् मां नर्मदा की असीम कृपा से हुआ था। यही कारण था कि शुरू से ही रूपा में नर्मदा मैया के प्रति अगाध श्रद्धा थी। वह नर्मदा मां के दर्शन किये बिना जल भी नहीं ग्रहण करती थी। कालान्तर में पारिवारिक परिवेश के कारण उसकी रुचि गीत-संगीत में जागृत हुई। असीम सौन्दर्य की धनी गरीब रूपा को किशोरावस्था से ही एक महान संगीताचार्य गुरु की प्राप्ति हुई। गुरु के मार्ग-दर्शन में रूपा का कला-पक्ष और मजबूत होता चला गया। परिणाम यह हुआ कि उसके संगीत की खुशबू राजमहलों तक पहुंची।

उस समय मांडवगढ़ या मांडू पर सुल्तान बाज बहादुर का शासन था। वह स्वयं एक बड़ा संगीतज्ञ और संगीत-कला का प्रेमी था। शिकार के सिलसिले में उसका धरमपुरी में प्रायः आना-जाना होता था। वहीं उसकी भेंट रूपा से हुई। बाद में रूपा मांडवगढ़ की रानी रूपमती बनी। किन्तु वह इस शर्त पर मांडवगढ़ गई कि उसे एक ऐसा स्थान मांडव में बनाकर दिया जाये, जहां से वह नित्य नर्मदा मां के दर्शन कर सके। अतः मांडू में सबसे ऊँचे स्थान पर रानी रूपमती का महल बनाया गया, जिसकी छत से वह नर्मदा के दर्शन किया करती थी। आज भी मांडू जाने वाले पर्यटक वहां से नर्मदा के दर्शन करते हैं। बाद में धरमपुरी में रानी रूपमती के गुरु की काफी ऊँची छत्री का निर्माण कराया गया। इस छत्री के शीर्ष पर नित्य एक दीप जलाया जाता था। चूंकि धरमपुरी से मांडवगढ़ की वायु-दूरी चालीस किलोमीटर से अधिक है, इसलिए वह छत्री तो रानी रूपमती के महल से स्पष्ट दिखायी नहीं देती थी, किन्तु उस पर लगे हुए विशाल दीप की लौ वहां से टिमटिमाते हुई दिखाई देती थी। रानी मांडवगढ़ में अपने महल से अपने पूज्य गुरु की छत्री को नित्य दीपक के सहारे ही प्रणाम किया करती थी।

रानी रूपमती के गुरु की छत्री के पास ही एक प्राचीन शिवालय है, जो नागेश्र्वर के नाम से विख्यात है। यहां एकाधिक प्राचीन मंदिरों का समूह है।

इन छोटे-छोटे मंदिरों के द्वारों एवं स्तम्भों पर चित्ताकर्षक खुदाई की गई है। नागेश्र्वर मंदिर समूह के चारों ओर अनेक मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। मंदिरों के आसपास रेवा तट का सौंदर्य स्वर्गिक आनंद की प्राप्ति कराता है।

विन्ध्याचल और सतपुड़ा के मध्य निमाड़ क्षेत्र में अनेक दर्शनीय तथा धार्मिक स्थल हैं। नर्मदा का यह तट अनादिकाल से भक्तों की साधना-स्थली रहने के अलावा प्राकृतिक सुषमा बिखेर कर लोगों को आनंदित करता रहा है।

काल के प्रभाव ने देश के इस पौराणिक और ऐतिहासिक भू-भाग को क्षत-विक्षत कर दिया है। इसीलिए आज यह वैभव वंचित हो अपने नग्न कंकाल का अस्तित्व टिकाये हुए सुषुप्तावस्था में प्रकृतिलीन है। तथापि भ्रमणशील पर्यटक एवं श्रद्धालुओं को आकृष्ट करने के लिए अभी भी यहां बहुत कुछ है।

 

– निर्विकल्प विश्र्वहृदय

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