विकास की गति को कुछ शब्दों में बताने के लिए अकसर यह कहा जाता है कि …फिर उसने मुड़कर नहीं देखा, लेकिन कवि एक ऐसा जीव है, जिसका रचनात्मक संसार पीछे मुड़कर देखने से ही तामीर होता है। इसीलिए वह भूत को वर्तमान से जोड़ने का काम करता है। जब वह वर्तमान से भूत की तुलना करने लगता है, तो उसे काफी कुछ बदल जाने और पाने से अधिक खोने का एहसास सताने लगता है। जम्मू-कश्मीर के जन्नत जैसे माहौल में पला-बढ़ा एक कवि लंबे समय तक मुंबई में रहकर जब एक दिन वापिस लौटता है तो वह क्या पाता है? जहॉं पर आधी रात को अंधेरे में निडरता से घूमते थे, आज वहॉं रौशनी में भी डर फैला हुआ है। कब बम फटे और कब गोलियॉं चले, पता नहीं रहता। हवाओं की ताज़गी, फिज़ाओं में खुशनुमा ज़िन्दगी, सब धुआँ-धुआँ हो गयी है। जहॉं अमन का राज था, आज वहां खून की होलियॉं हैं। ऐसे में कवि अपने आपसे पूछता है-
घने-घने जो साये थे चिनार के, कहॉं गये
वो चीड़ के दरख्त देवदार के, कहॉं गये
हरे थे ताज परबतों के सर पे कौन ले गया
ये कौन सारे मौसमों के रंग को बदल गया
मेरा वतन बदल गया
राकेश कौशिक हैं तो बही-खातों के आदमी, लेकिन अपनी अनुभूतियों को लफ्ज़ों के हवाले करने के लिए भी कुछ समय निकाल लेते हैं। वे इन दिनों मुंबई में एस बी आई म्युचवल फंड में उपाध्यक्ष के पद पर कार्य कर रहे हैं। उनका संबंध जम्मू से है।
जब देश की स्थिति को देखते हैं, तो उनके मन में कई सारे प्रश्र्न्न उठते हैं। क्या यह वही देश है, जो सारे विश्र्व को संदेश देने की क्षमता रखता था? जब विश्र्व के दूसरे देश अपनी समस्याओं का समाधान नहीं पाते थे, तो भारत की ओर देखते थे और सोचते थे कि यहॉं से कोई समाधान निकल आएगा? यहॉं तो सब बंट गये हैं, कोई गिरजे से बंधा हुआ है, तो किसी ने किरपाल उठा ली है। काशी और काबे का नाम लेकर अब लोग एक-दूसरे से मिलते नहीं बल्कि लड़ते हैं।
जानवर भूल गये हैं जंगलीपन
आदमी जंगलों को भागा है
लोग तो सो रहे हैं सड़कों पर
आप कहते हैं देश जागा है…
लोग कतरा रहे हैं अपनों से
दिन पुराने हुए हैं सपनों से
एक आंधी चली है नफ़रत की
प्यार का टूट गया धागा है
कौन कहता है देश जागा है
लेखन में अपनी रुचि के बारे में राकेश कौशिक कहते हैं,”कुछ रुचियॉं मुझे विरासत में मिली हैं। लिखना उन्हीं में से एक है।’ ग़ज़ल लिखने के लिए वे चाहते हैं कि शहर में शांति का माहौल हो। अगर किसी के दर पर खड़े हैं, तो वह मेहरबॉं हो और सिर पर रहमतों के बादल छाए रहें। ज़िन्दगी से समझौता नहीं किया है, यह कहने भर से कुछ नहीं होगा, बल्कि इसका इम्तहान भी लिया जाना चाहिए।
पत्थर को बोलने का हुनर इसलिए दिया
अपना भी कुछ वजूद हो कोई निशॉं तो हो
शाहों के म़कबरे से शिकायत नहीं हमें
ज़िंदों के वास्ते मगर एक आशियॉं तो हो
“कौशिक’सुनाएंगे तुम्हें हम बाद में ग़ज़ल
पहले हमारे शहर में अम्नो अमॉं तो हो
राकेश कौशिक का मानना है कि जब तक अनुभूति को सही अभिव्यक्ति नहीं मिलती, मन को चैन नहीं मिलता। उन्होंने गीत-ग़ज़ल, कविता सहित विभिन्न विधाओं में अपनी बात रखी है। ग़ज़ल में उनका लहजा हालांकि सामान्य है, लेकिन अपनी बात रखने का हुनर उनके पास मौजूद है। विषय नये हों या पुराने। चाहे वह मकॉं को घर बनाने की बात हो या गांव के शहर हो जाने की।
ईंट गारे का मकॉं था, घर न था
तुम जो आये तो ये घर होने लगा
हर किसी को अपनी अपनी फिा है
गांव मेरा अब नगर होने लगा
ज़िंदगी के सफ़र में जीवन के मूल्यों के साथ डटे रहना आसान काम नहीं है, इसके साथ रहने वाला आदमी अकसर काफिले से अलग हो जाता है। इसी बात को कौशिक कुछ इस तरह रखते हैं।
साथ मेरे ज़मीर है वरना
संग मेरे भी काफिला होता
दर्द वो मेरा समझता शायद
झुग्गियों में अगर रहा होता
माना जाता है कि मुहब्बत, वफ़ा, जुदाई, बेवफाई, दर्द, ग़म जैसी भावनाओं से ही कविता या शायरी की शुरूआत होती है। जब नज़र से कोई अपना दूर हो जाता है तो कुछ खोया-खोया-सा लगता है। ऐसा महसूस होता है कि ज़िन्दगी को कोई रोग लग गया है।
कोई फूल चुनकर कांटे बो जाता है, तो भला जीवन का क्या अर्थ रह जाता है। ऐसे में भाग्य को चाहे जितना पुकारो, वह गहरी नींद से नहीं जागता। सभी चेहरे अपरिचित से लगते हैं, शहर अजनबी हो जाता है। … लेकिन समय के साथ प्रेम जब नीरस होने लगता है और दर्द मज़ा देने लगता है तो कविता में जान आ जाती है। और फिर नयी उम्मीद बंधती है-
यदि आज है दुःख, कल सुख होगा,
यारो ग़म से घबराना क्या
जो बीत गया, उसके बारे में
सोच सोच पछताना क्या
है परवाने का काम
शमा के आगे पीछे मंडराना
नज़दीक शमा के आकर भी,
जो जला नहीं, परवाना क्या
– एफ. एम. सलीम
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