ऐसा लगता है कि केन्द्र की संप्रग सरकार को अपने आपको अनावश्यक विवादों में उलझाना ही पसंद है। अभी-अभी उसने न्यूक डील के मुद्दे पर येन-केन-प्रकारेण विश्र्वास मत हासिल कर राहत की सांस ली है कि उसने फिर एक नये विवाद के केन्द्र में स्वयं को खड़ा कर दिया है। उसे यह ब़खूबी पता है कि धार्मिक और मजहबी आस्थायें जब रौद्र रूप धारण कर लेती हैं तो छोटी-सी चिन्गारी को ज्वाला बनते देर नहीं लगती। उसे यह भी पता है कि रामसेतु मुद्दे पर दाखिल किये गये उस विवादास्पद हलफ़नामे ने, जिसमें भगवान राम के अस्तित्व को नकारा गया था, किस स्तर तक जन-आस्था को उद्वेलित किया था। कहना न होगा कि खतरनाक मोड़ लेती इस जन-आस्था से भयभीत हो कर ही यह हलफ़नामा सरकार ने वापस भी लिया था। वापस लेते समय उसने उच्चतम न्यायालय से यह वादा भी किया था कि वह हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को चोट पहुँचाये बिना अपनी सेतु समुद्रम परियोजना के लिए अन्य विकल्पों की तलाश करेगी। लेकिन एक नासमझी भरा दुराग्रह उसका अभी भी बना हुआ है और वह रामसेतु मुद्दे पर फिर एक बार जनााोश को आमंत्रित करने पर आमादा समझ में आती है।
यह गनीमत है कि अपने इस नये दुराग्रह में उसने पहले की तरह भगवान राम के अस्तित्व को नकारने की गलती नहीं की है, लेकिन उसका नया तर्क भी किसी के गले नहीं उतरेगा। अब जिस नये तर्क के साथ वह सामने आई है उसमें राम को नहीं, रामसेतु के अस्तित्व को नकारा गया है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय में चल रहे मुकदमे के दौरान सरकारी वकील फली एस. नरीमन ने यह तर्क पेश किया है कि इस सेतु का अस्तित्व स्वयं भगवान राम ने ही लंका-अभियान के बाद समाप्त कर दिया था। इसके लिए उन्होंने तमिल भाषा में कम्बन द्वारा लिखी रामायण और पद्म पुराण का हवाला दिया है। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि रामसेतु स्वयं इसके रचनाकार राम द्वारा उनके जीवनकाल में ही खंडित कर दी गई ऐतिहासिक सच्चाई तो हो सकती है, लेकिन इस सच्चाई को न तो पूजा-अर्चना का विषय बनाया जा सकता है और न ही इसे कोई ऐतिहासिक स्मारक माना जा सकता है।
़गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय में दाखिल की गई याचिकाओं में यह मॉंग की गई है कि न्यायालय केन्द्र सरकार को अपनी सेतु समुद्रम परियोजना के चलते उस ऐतिहासिक सेतु को तोड़ने से मना करे जो हिन्दू आस्था के प्रतीक भगवान राम ने अपने लंका अभियान के समय नल-नील और अन्य वानरों के सहयोग से निर्मित किया था। सरकार के बचाव में प्रसिद्घ कानूनविद नरीमन ने बड़ा चालाकी भरा तथ्य प्रस्तुत किया है। उन्होंने सरकार के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि निश्र्चित रूप से धार्मिक आस्थाओं का आदर किया जाना चाहिए लेकिन रामसेतु के संबंध में जिस धार्मिक आस्था का उल्लेख किया जा रहा है, वह भ्रांत तथ्यों पर आधारित है। सरकार द्वारा की गई पहली गलती से सबक लेते हुए उन्होंने सेतु की ऐतिहासिकता को स्वीकार अवश्य किया है, लेकिन वे उसके वर्तमान अस्तित्व को नकार जाते हैं। उनकी तार्किक दक्षता ने इसके लिए “कम्ब रामायण’ और “पद्म पुराण’ से राम द्वारा इसे ध्वस्त कर देने का प्रमाण भी उपलब्ध कर लिया है। हालॉंकि इस सेतु को विखंडित कर देने का प्रसंग इन दो ग्रंथों के अलावा किसी अन्य ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। रामेश्र्वरम् से धनुष कोटि तक इस सेतु निर्माण की कथा तो वर्णित है जिससे होकर रामसेना ने लंका में प्रवेश किया था, लेकिन उसके बाद इस सेतु के होने न होने का कोई प्रसंग किसी धर्मग्रंथ में नहीं है। इस आधार पर सरकारी वकील के तर्कों को ़ किसी अन्य प्रमाण के जरिये खारिज नहीं किया जा सकता।
लेकिन सरकार को और उसके कानूनविद वकील को इस बात का ध्यान रखना होगा कि जन-आस्था कभी तर्कों से परिचालित नहीं होती। वह जिस भावना को समर्पित होती है, वह भावना उसके खिलाफ कोई तर्क नहीं सुनना चाहती। हिन्दू आस्था अगर यह मानती है कि उसके आराध्य भगवान राम ने इस विशेष स्थान पर किसी सेतु का निर्माण किया था, तो समझने की बात यह है कि उसके लिए वह सेतु पूज्य नहीं है, बल्कि वह स्थान और उस स्थान की मिट्टी प्रिय है जो उसे अपने आराध्य की सहज स्मृति से जोड़ती है। राजनीति भले ही उसकी इस आस्था का दोहन कर इस पूरे प्रकरण को नये आयाम में ढाल दे, लेकिन उसकी संवेदना किसी भी राजनीतिक घेरे से बाहर अपने यथार्थ में जीती है। सरकार ने इस संबंध में अपने दुराग्रह के चलते फिर एक नई गलती की है। यह नया तर्क यह सोच कर दिया गया है कि इसे लोग तार्किक आधार पर सहज ही स्वीकार कर लेंगे। लेकिन भूल यह की जा रही है कि आस्था की वास्तविक मानसिकता को समझे बिना इन तर्कों की सृष्टि की जा रही है। तर्क सही भी हो सकते हैं और अवास्तविक भी। यह ़जरूरी नहीं है कि जन-आस्था में सब के सब तर्क अपनी प्रकृति में वास्तविक ही हों। उनके विषय में यही कहा जा सकता है कि उनकी मान्यतायें सदियों-सदियों तक एक लीक पकड़ कर भागती रहती हैं। ऐसी हालत में सरकार के पास दो ही विकल्प हैं। एक यह कि वह जन-आस्था का आदर कर अपनी परियोजना के अन्य विकल्पों पर ध्यान दे और दूसरा यह कि जनााोश की महाज्वाला में स्वयं की आहुति दे दे।
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