फिर मंडराने लगे मध्यावधि चुनावों के बादल

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार केंद्र में अपने चार वर्ष पूरे कर चुकी है। यदि निर्धारित समय पर लोकसभा के आम चुनाव हों तो अब मात्र 11 महीने का समय ही चुनाव हेतु शेष रह गया है। परन्तु यदि मीडिया की अटकलों पर ध्यान दिया जाए तो दिसम्बर अथवा जनवरी में भी चुनाव होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। अमेरिका व भारत के मध्य होने वाले प्रस्तावित भारत-अमेरिका परमाणु करार तथा मंहगाई जैसे मुद्दों को लेकर केंद्र सरकार पर कई बार संकट गहरा चुका है। परन्तु संभवतः गठबंधन नेताओं ने कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में हुए ताजातरीन मध्यावधि चुनावों के परिणामों से यह सबक सीख लिया है कि देश के मतदाता कम से कम अब उन नेताओं को अथवा उन राजनैतिक दलों को माफ किए जाने के मूड में नहीं दिखाई देते जोकि मध्यावधि चुनावों के लिए जिम्मेदार हों।

कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के चुनाव परिणाम भले ही किसी भी राजनैतिक दल के पक्ष में क्यों न गए हों, परन्तु मध्यावधि चुनाव के जिम्मेदार लोगों को नकारने का मतदाताओं का निर्णय राष्टीय स्तर पर सराहा गया है। इसमें कोई शक नहीं कि मतदाताओं के इसी प्रकार के निर्णय राजनैतिक दलों द्वारा की जाने वाली मनमानी तथा उनके द्वारा मनमाने तरीके से सरकारें गिराने जैसे घातक फैसलों पर रोक लगा सकते हैं।

बहरहाल, ज्यों-ज्यों लोकसभा चुनावों का समय नजदीक आता जा रहा है, देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों द्वारा अपनी रणनीतियों पर अमल करना शुरू कर दिया गया है। बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला किया है। इसका कारण उन्होंने देश में बढ़ती हुई मंहगाई को बताया है। जबकि आगरा के ताज गलियारा प्रकरण में मायावती को केंद्र सरकार द्वारा अपेक्षित सहयोग न दिया जाना समर्थन वापसी का मुख्य कारण माना जा रहा है। उधर समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में मायावती के पैरों के नीचे से जमीन खींचने के लिए अपनी मुख्य प्रतिद्वन्दी पार्टी कांग्रेस से समझौता करने के मूड में नजर आ रही है। पिछले दिनों आपातकाल के दिनों की याद को ताजा करते हुए एक कार्याम आयोजित किया गया जिसमें आपातकाल के अनेकों भुक्तभोगी नेताओं ने शिरकत की। प्रत्येक वर्ष इसी अवसर पर कांग्रेस विशेषकर स्व. इन्दिरा गांधी गांधी की कथित तानाशाही नीतियों को पानी पी-पी कर कोसने वाले मुलायम सिंह यादव इस वर्ष आपातकाल की याद ताजा करने वाले इस आयोजन में शरीक तो हुए परन्तु आश्र्चर्यजनक ढंग से इस बार उन्होंने न ही इन्दिरा गांधी को कोसा, न ही कांग्रेस पार्टी को। इसके बजाए उन्होंने मायावती पर यह कहते हुए निशाना साधना अधिक बेहतर समझा कि उत्तर प्रदेश में आज के हालात आपातकाल के हालात से भी अधिक भयानक हैं। विश्लेषकों के अनुसार इस राजनैतिक कलाबाजी को भी आगामी लोकसभा चुनाव के पूर्व पैदा होने वाले नए समीकरणों के रूप में देखा जा सकता है।

परन्तु सत्ता का स्वाद चख चुकी भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनावों में अपने पक्ष में कुछ अधिक ही आस लगाए बैठी है। भले ही देश की वह जनता जोकि इस समय विश्र्वव्यापी मंहगाई की मार झेल रही है, वह निर्धारित समय से पूर्व कोई भी चुनाव देश में संचालित होते नहीं देखना चाहती हो, परन्तु भारतीय जनता पार्टी हर समय इस बात के लिए प्रतीक्षारत दिखाई दी कि परमाणु करार जैसे विवादित मुद्दे पर कब वामपंथी दल कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार से अपना समर्थन वापस लें और यथाशीघ्र इस देश में मध्यावधि चुनाव हों। और इस प्रकार यथाशीघ्र बिल्ली के भाग्य से छींका टूटे। सत्ता हासिल करने की उम्मीदों के चलते भाजपा; मतदाताओं की इस सोच के करीब भी नहीं जाना चाहती कि यदि मध्यावधि चुनाव हुए तो इसका असर महंगाई के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ना भी लाजमी है।

मीडिया प्रबंधन एवं मार्केटिंग में महारत रखने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अपने दल की ओर से भावी प्रधानमंत्री के रूप में लालकृष्ण आडवाणी का नाम घोषित किया है। उधर आडवाणी को भी चुनाव पूर्व भगवान श्रीराम की याद सताने लगी है।

आगामी लोकसभा चुनावों में अत्याधिक उत्साहित दिखाई दे रही भाजपा ने अपने 6 उम्मीदवारों की पहली सूची भी जारी कर दी है। संभवतः देश में पहली बार ऐसे समाचार प्राप्त हुए हैं कि न तो लोकसभा भंग हुई, न ही लोकसभा का कार्यकाल पूरा हुआ, न ही चुनाव की अधिसूचना जारी हुई, न ही संसदीय बोर्ड द्वारा प्रत्याशियों के विषय में सुझाव आमंत्रित किए गए और न पर्यवेक्षकों की तैनाती हुई, परन्तु इन सबके बावजूद 6 प्रत्याशियों के नाम घोषित कर दिए गए। कोई इसे भाजपा के अत्यधिक उत्साहित होने के रूप में देख रहा है तो कोई इसे भाजपा का उतावलापन करार दे रहा है। परन्तु दरअसल यह सब कुछ भाजपा की वैसी ही रणनीति का एक हिस्सा है जैसी कि पिछले लोकसभा चुनाव के समय भाजपा द्वारा इंडिया शाइनिंग को लेकर आ़ख्तयार की गई थी।

एक ओर तो भारतीय जनता पार्टी राजनैतिक संगठन के रूप में अपनी रणनीतियां आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर तैयार करने में जुट चुकी है तो वहीं उसके सहयोगी हिन्दुत्ववादी संगठन भी कमर कसकर मैदान में डट चुके हैं। आम आदमी की दाल रोटी, रोजगार, स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों से दूर, कहीं रामसेतु आन्दोलन तो कहीं गंगा बचाओ अभियान या फिर अमरनाथ का ताजातरीन भूमि आबंटन प्रकरण, ऐसे भावनात्मक मुद्दों पर चुनावी धार तेज की जा रही है। राम मंदिर निर्माण के संकल्प को पुनः दोहराया जा रहा है।

बहरहाल, आगामी लोकसभा चुनावों में जहां भारतीय जनता पार्टी लालकृष्ण आडवाणी की वरिष्ठता एवं लम्बे राजनैतिक अनुभव को वोट प्राप्त करने के हथियार के रूप में प्रयोग करने जा रही है, वहीं कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को आगे लाकर देश के युवाओं में यह संदेश देना चाह रही है कि अब देश को युवा, उत्साही एवं प्रगतिशील सोच रखने वाले नेताओं की दरकार है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का समय करीब आता जा रहा है, वैसे-वैसे चुनावी बादल भी मंडराने शुरू हो गए हैं। आशा की जानी चाहिए कि चुनाव का समय और नजदीक आते-आते अभी और कई नए समीकरण, नए हथकंडे, नए रहस्योद्घाटन तथा नए निराले आरोप-प्रत्यारोप तथा प्रत्येक चुनावों से पूर्व बड़े पैमाने पर होने वाले दल-बदल सब कुछ देखने को मिलेंगे।

 

– निर्मल रानी

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