फिर लहूलुहान हुई दिल्ली

दिल्ली एक बार फिर आतंकवादी निशाने पर आ गई है। शनिवार के दिन शाम अभी ढली ही थी कि शहर के तीन भीड़भाड़ वाले इलाकों में एक के बाद एक 5 बम-विस्फोटों ने 26 लोगों की जिन्दगियॉं मौत के हवाले कर दीं और 70 से ज्यादा लोग घायल हो गये। इसके पहले भी दिल्ली सन् 2005 के अक्तूबर महीने में ऐन दिवाली के त्योहार के पहले लहूलुहान हो चुकी है। आतंकवादियों ने अपनी इस दरिंदगीभरी कोशिश से यह साबित कर दिया है कि वे देश की राजधानी, जहॉं केन्द्र सरकार के लगभग सभी महत्वपूर्ण संस्थान और राष्टपति तथा प्रधानमंत्री जैसी आला हस्तियों की रिहाइश है, को भी सारे सुरक्षा प्रबंधों को तहस-नहस कर अपना निशाना बना सकते हैं। हमें दुःख तो होगा लेकिन सीने पर पत्थर रख कर यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि उन्होंने इस “महान’ देश की ताकत को अपने दुःसाहस के सामने सचमुच बौना साबित कर दिया है। वर्ना एक अरब से ऊपर की जनसंख्या का देश गिनती के आतंकवादियों के सामने इस तरह लाचार और बेबस नहीं दिखाई देता। आतंकवाद के शुरुआती दौर से अब तक की आतंकी घटनाओं की फेहरिश्त अगर हम अलग भी रख दें, तो भी अभी साल नहीं बीतने पाया है कि उन्होंने जयपुर, बेंगलुरु, अहमदाबाद तथा दिल्ली को अपने निशाने पर लिया और हमारी सुरक्षा-व्यवस्था की धज्जियॉं उड़ाते हुए जो चाहा और जैसे चाहा बेरोक-टोक किया। साल बीतते-बीतते उनकी हैवानियत अभी और कितने ़कत्लो-़गारत का इतिहास लिखेगी, कह पाना मुश्किल है।

उनके हौसले इस ़कदर बुलंद हैं कि अब वे हर घटना के पहले टी.वी. चैनलों को बाकायदा ई-मेल भेज कर चुनौती भी दे रहे हैं कि “रोकना चाहो तो रोक लो।’ गुजरात के अहमदाबाद की आतंकी घटना के बाद बड़े दावे के साथ कहा गया था कि हमारे हाथ आतंकवादियों के गिरेबान के नजदीक पहुँच गये हैं और अब हम बहुत जल्द इसकी जड़ों तक पहुँचने में कामयाब हो जायेंगे। “इंडियन मु़जाहिदीन’ नाम का तथाकथित आतंकवादी संगठन, जो इस बीच हुई आतंकवादी घटनाओं की, विभिन्न चैनलों को ई-मेल भेज कर जिम्मेदारी लेता रहा है, उसके बाबत यह दावा किया गया कि वह प्रतिबंधित सिमी का ही नया संस्करण है। इस बाबत कई महत्वपूर्ण गिरफ्तारियॉं भी की गईं और उनके नार्को टेस्ट भी कराये गये। पुलिसिया बयानों की इस सच्चाई पर अगर हम एतबार कर लें तो दावा इस लहजे में किया गया कि लगभग सभी घटनाओं में सिमी का हाथ है। मगर सिमी के महत्वपूर्ण लोगों से मिले सुरागों के बावजूद केन्द्र और प्रांत की सरकारें आतंकवादियों के ताने-बाने को न तोड़ पाई हैं और न उनका हौसला किसी मायने में कमजोर कर पाई हैं।

हाल की दिल्ली की घटना ने यह साबित कर दिया है कि अभी भी हमारी तहकीकात अंधेरे में भटक रही है। या तो हम जान-बूझ कर भटक रहे हैं और देश की जनता को सिर्फ सांत्वना परोसने की दृष्टि से गलत तथ्यों से रूबरू कराया जा रहा है अथवा आतंकवादी ़खुद अपनी स्टैटजी के तहत हमें गुमराह करते जा रहे हैं। इस गुमराहियत का अब तो एक लंबा इतिहास हमारे साथ जुड़ गया है कि दावे तो बहुत लंबे-चौड़े किये गये लेकिन कोई भी सूत्र आज तक हमें किसी एक भी घटना के तह तक नहीं पहुँचा सका। ग़जब तो यह भी है कि शीर्ष स्तर पर आतंकवाद से लड़ने की प्रतिबद्घता की लफ्फाजियॉं अब तक वही बनी हुई हैं। बहस की वास्तविक दिशा को मोड़ कर अपने-अपने राजनीतिक निहितार्थों को जिन्दा रखने की कवायद बहुत ते़ज कर दी जाती है और वास्तविक प्रश्र्न्न सलीब पर जहॉं का तहॉं लटका रह जाता है। संप्रग शासनकाल में जब भी कहीं कोई आतंकी घटना घटती है तो भाजपा की ओर से यही एक जुमला उछाला जाता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए पोटा जैसा कोई सख्त कानून होना चाहिए। जबकि इस तथ्य से वह भी वा़िकफ है कि उसके ़खुद के शासनकाल में इस कानून के होते हुए भी आतंकवादी घटनाओं पर कोई कारगर अंकुश नहीं लगाया जा सका था। लेकिन भाजपा बार-बार पोटा की ही व़कालत कर रही है। संभवतः वह देश को यह बताना चाहती है कि हमारा बनाया हुआ पोटा कानून ़खत्म करने का ़खामियाजा ही इन आतंकी घटनाओं के रूप में भुगतना पड़ रहा है।

कांग्रेस पोटा कानून के संबंध में भाजपा की इस पेशकश को हर बार ़खारिज कर देती है। उसका कहना है कि इस ़कानून का बड़े पैमाने पर बेगुनाहों, ़खासकर अल्पसंख्यक मुसलमानों के ़िखलाफ जमकर दुरुपयोग हुआ है। उसके अनुसार मौजूदा कानून आतंकवादियों को स़जा दिलाने के लिए काफी है। वह अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए यह भी कहती है कि ़जरूरत पोटा की नहीं है अपितु राष्टीय स्तर पर सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए एक “फेडरल एजेंसी’ की ़जरूरत है। गऱज यह कि दोनों ही बड़ी और राष्टीय पार्टियॉं अपने-अपने राजनीतिक पूर्वाग्रहों से बंधी हैं और आतंकवाद जैसे राष्टीय मुद्दे पर भी उनकी राजनीतिक हानि-लाभ की सोच बरकरार है।

वास्तविकता यह है कि इसी राजनीतिक सोच ने हमारी सुरक्षा एजेंसियों के भी हाथ-पॉंव बॉंध दिये हैं और वे भी अपने को नाकारा महसूस कर रही हैं। देश इतना कमजोर कत्तई नहीं है कि वह आतंकवादी हौसलों को कुचल न सके लेकिन ़खुदग़र्ज राजनीति ने उसकी सारी ताकत छीन ली है। जब तक यह ़खुदगर्जी का सिलसिला जारी रहेगा तब तक आतंकवादी विस्फोटों के सिलसिले को भी तोड़ा नहीं जा सकेगा।

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