बार-बार जब कहे ब्राह्मणी, हुवे सूदामा तैयार।
चावल की पोटली ले, पहुँचे है- मोहन के द्वार॥ टेर ॥
पहुँच्यो द्वारका जाय, कन्हैयो कहाँ बसे।
देख बावरो लोग नगर का सभी हँसे॥
इतने में एक मिल्यो दयालू, दिनो महल बताय.। 1 ॥
द्वारपाल जा कहयो, आदमी एक आयो।
फाटा कपडा नाम सूदामा बतलायो॥
इतनी सुनकर नंगे पाँवों, दौडे कृष्ण मुरारी॥ 2 ॥
लिनों कष्ट लगाय, सिंहासन बैठायो।
देख सखा को हाल जिवडो दुःख पायो॥
अँसुवन जल से, पाँव धो रहे, जग के पालन हार.। 3 ॥
करी खातरी खुब सूदामा शरमायो।
चाँवल की वा पोट, बगल में सरकायो॥
नजर पडी जब कृष्णचन्द्र की, लिनी भूजा पसार॥ 4 ॥
दो मुट्ठी गये खाय, तीसरी भरने लगे।
रुक्मण पकडयो हाथ, नाथ क्या करने लगे।
तीन लोक तो दिये सखा को, हो गये बेघर बार॥ 5 ॥
ठहरियो दिन दोय चार, कहयो जद विदा करो।
माँग्यो मुख से नाहिं, नाहिं प्रभु कुछ भी दिये।
घर जाऊँ तो पूछे ब्राह्मणी, देस्यूँ काँई जवाब॥ 6 ॥
पहुँच्यों नगरी माँहि, झोपडी मीली नहीं।
महलाँ ऊपर खडी, ब्राह्मणी बुला रही॥
दासी आकर कहयो आपने बुला रही घरनार॥ 7 ॥
लग्यो सोंचने आप, कन्हैय्यो खुब करी।
लीला अपरम्पार नाथ यूँ गावे हरी॥
भक्त मण्डली हिलमीले गावे दाता तेरे द्वार॥ 8 ॥
You must be logged in to post a comment Login