मुल्क अपनी आ़जादी की बासठवीं दहलीज पर खड़ा है। उसकी एक आँख में कुछ चमकते सुनहरे सपने हैं, तो दूसरी आँख में पथराया हुआ धुआँ। हम दोनों ही हकीकतों को एक साथ जी रहे हैं। सपनों की ताबीर हमने उसी समय शुरू कर दी थी जब मुल्क गुलाम था और अपनी आ़जादी के जद्दोजहद से जूझ रहा था। तभी इन सपनों में कुर्बानियों और शहादत का रंग भी भरा गया था। ये सपने ताल्लुक तो आ़जाद भारत से रखते थे, लेकिन देखे गुलाम भारत में गये थे। इन सपनों के कोण अलग-अलग थे, इनकी भाषा और परिभाषा भी अलग-अलग थी, लेकिन हर किसी का रंग एक ही था। आ़जादी के प्रमुख रचनाकार राष्टपिता गांधी ने अपनी परिकल्पना में ग्राम-स्वराज्य को स्थापित किया था, जो प्रतीक था एक स्वावलम्बी भारत का। शहीदे-आ़जम भगत सिंह ने कितनी भावपूर्ण मुद्रा में यह बात कही थी कि वे आ़जादी के संदर्भ में यह कभी नहीं चाहेंगे कि देश गोरे अंग्रेजों की गुलामी से आ़जाद होकर काले अंग्रे़जों की गुलामी में चला जाय। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने अपने अमृतसर अधिवेशन में रावी के तट पर “पूर्ण स्वराज्य’ की घोषणा की थी। देश के प्रथम आर्थिक रचनाकार जे.आर.डी. टाटा ने आज से सौ साल पहले कहा था कि वे आर्थिक रूप से संपन्न भारत के पक्षधर नहीं हैं, बल्कि खुशहाल भारत देखना चाहते हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने आ़जाद भारत को एक लोकतंत्रीय व्यवस्था से बांधा और यह परिकल्पना प्रस्तुत की कि हमारा लोकतंत्र अपनी ़जमीनी ह़कीकत के साथ बिना किसी भेदभाव के इस स्वतंत्र राष्ट के सपने को पूरा करेगा।
लेकिन उस सपने की हकीकत आज जिस मोड़ पर खड़ी है, उससे रूबरू होने के बाद रूह कॉंप उठती है। एक ओर ये सुनहरे सपने हैं और दूसरी ओर इनकी सारी चमक-दमक पर कालिख पोतती अभी हाल में आई सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि “इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकता।’ कहने को तो अब भी कहा जा रहा है कि भारत विश्र्व-पटल पर एक ताकत बन कर उभर रहा है। और यह भी कि इक्कीसवीं सदी भारत के नाम दर्ज होगी। देश का प्रत्येक प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त को लाल किले से देश की झोली में डाली गई उपलब्धियों को अब तक गिनाता आ रहा है। इस पंद्रह अगस्त को भी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसी रस्म-अदायगी का परिपालन करेंगे। यही नहीं, आ़जादी के सारे जश्र्न्न बदस्तूर मनाये जायेंगे। प्रभात-फेरियॉं होंगी, मार्च-पास्ट करती स्कूली बच्चों की टोली नई सज-धज के साथ “झंडा ऊँचा रहे हमारा’ गीत की पंक्तियॉं बैंड-बाजों की धुन पर दुहरायेगी, माला-फूल और बंदनवार से स्वतंत्रता की देवी का यशोगान गाया जाएगा। गर्मागरम भाषणों में एक बार फिर देश की आ़जादी के लिए शहीद होने वालों को याद कर घड़ियाली आँसू बहाये जायेंगे। सब कुछ होगा और बदस्तूर होगा। हमें आ़जादी का इस्तकबाल करने का पूरा-पूरा ह़क है और हम अपने को इस ह़क से महरूम भी नहीं रखना चाहेंगे।
लेकिन इस बासठ वर्षीय आ़जादी का चेहरा सामने आता है, तो मन भारी वितृष्णा से भर जाता है। संभवतः उसकी इसी कुरूपता को देख कर सर्वोच्च न्यायालय को इतनी तल़्ख टिप्पणी करनी पड़ी है कि देश को भगवान भी नहीं बचा सकता। हमारे अर्थशास्त्री रहनुमाओं ने जिस अर्थशास्त्र के गणित को आर्थिक विकास दर में देखा है, उसने देश के आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है। गरीब आदमी की रोटी को बढ़ती महंगाई ने खतरे में डाल दिया है। लूट-खसोटवादी भ्रष्टाचार को बड़ी फरा़गदिली के साथ युग धर्म स्वीकार किया जा रहा है। जिस लोकतंत्र को हमने राष्ट-निर्माण का संकल्प घोषित किया था वह राजनीति के बा़जार में टके-टके को बिक रहा है। संसद में नोटों की गड्डियॉं लहराई जा रही हैं। बा़जारवादी व्यवस्था ने युगों पुराने हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया है। अरबपतियों और करोड़पतियों की संख्या में इ़जाफा ़जरूर हो रहा है, लेकिन उस संख्या को दशकों से लगातार होने वाली किसान आत्महत्यायें बहुत पीछे ढकेल देती हैं।
राष्टीय एकता के सारे सूत्र बड़ी बेरहमी से तोड़े जा रहे हैं। कोई भी राज ठाकरे नमूदार होकर घोषणा करने को स्वतंत्र है कि महाराष्ट सिर्फ मराठों का है। ऐसे समय पर क्या यह सवाल उठना लाजमी नहीं है कि फिर भारत राष्ट किसका है? उत्तर देने वाले अगर साफ़गोई का सहारा लेंगे तो यह कहने में कोई हिचक नहीं होगी कि राष्ट देश-तोड़क अलगाववादियों के नाम हो गया है। राष्ट चप्पे-चप्पे पर ़खूनी तहरीर लिखने वाले आतंकवादियों का हो गया है। राष्ट नक्सलवाद के नाम पर ऩिजाम को अपने इरादों का गुलाम बनाने वाले माओवादियों के नाम हो गया है। माफ़िया तंत्र की जकड़बंदी में आम आदमी के ह़क और हु़कूक पीसे जा रहे हैं। यह देश की दूसरी आँख के पथराये हुए सपनों की तस्वीर है। फिर भी हम आ़जादी को कमतर नहीं आंक सकते। क्योंकि वह सारी विसंगतियों और विरोधाभासों के बावजूद हमारे जन-गण-मन की एक मात्र आकांक्षा है। तमाम झंझावातों से लड़ती इस दीप-शिखा को हमें नमन करना ही होगा। संभवतः इस शे’र की पंक्तियां हमें और हमारे राष्ट को कुछ अर्थ दे जायें-
इक न इक शम्मां अंधेरे में जलाये रखिये,
सुबह होने को है, माहौल बनाये रखिये।
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