बाढ़ का संकट बढ़ाते तटबंध और बांध

बिहार की कोसी नदी में आई भयंकर बाढ़ से एक बार फिर यह रेखांकित हुआ है कि बाढ़ का बढ़ता क्षेत्र और इसकी बढ़ती जानलेवा क्षमता को तभी समझा जा सकता है जब बाढ़ नियंत्रण के दो मुख्य उपायों-तटबंधों और बांधों पर खुली बहस हो। यह जानने का प्रयास किया जाये कि अनेक स्थानों पर क्या बाढ़ नियंत्रण के इन उपायों ने ही बाढ़ की समस्या को नहीं बढ़ाया है और उसे अधिक जानलेवा नहीं बनाया है? राष्टीय बाढ़ आयोग की रिपोर्ट (1980) में भी नियंत्रण के उपायों की इन सीमाओं की ओर ध्यान दिलाते हुए ऐसी परिस्थितियों का भी जिा था जब इनका निर्माण, रख-रखाव या संचालन उचित न होने से बाढ़ की समस्या और उग्र हो सकती है।

बाढ़ नियंत्रण उपाय के रूप में तटबंधों की एक तो अपनी कुछ सीमाएं हैं तथा दूसरे निर्माण कार्य और रखरखाव में लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण हमने इनसे जुड़ी समस्याओं को और भी बहुत बढ़ा दिया है। तटबंध द्वारा नदियों को बांधने से जहॉं कुछ बस्तियों को बाढ़ से सुरक्षा मिलती है वहीं कुछ अन्य बस्तियों के लिए बाढ़ का संकट बढ़ने की संभावना भी उत्पन्न होती है। अधिक गाद लाने वाली नदियों को तटबंध से बांधने में नदियों के उठते स्तर के साथ तटबंध को भी निरंतर ऊँचा करना पड़ता है। जो आबादियों, तटबंध और नदी के बीच में फंसकर रह जाती हैं, उनकी दुर्गति के बारे में जितना कहा जाए कम है। कोसी नदी के तटबंधों में लगभग 85 हजार लोग इसी तरह फंसे हुए हैं। ऐसे लोगों के पुनर्वास के संतोषजनक प्रयास बहुत कम हुए हैं।

तटबंधों द्वारा जिन बस्तियों को सुरक्षा देने का वादा किया जाता है उनमें भी बाढ़ की समस्या बढ़ सकती है। यदि वर्षा के पानी का नदी में मिलने का मार्ग अवरुद्घ कर दिया जाये और तटबंध में इस पानी के नदी तक पहुँचने की पर्याप्त व्यवस्था न हो तो दलदलीकरण और बाढ़ की एक नयी समस्या उत्पन्न हो सकती है। नियंत्रित निकासी के लिए जो कार्य करना था उसकी जगह तो छोड़ दी गयी है, पर लापरवाही से कार्य पूरा नहीं हुआ तो भी यहॉं से बाढ़ का पानी बहुत वेग से आ सकता है। तटबंध द्वारा “सुरक्षित’ की गयी आबादियों के लिए सबसे कठिन स्थिति तब उत्पन्न होती है जब निर्माण कार्य या रखरखाव उचित न होने के कारण तटबंध टूट जाते हैं और अचानक बहुत-सा पानी बस्तियों में प्रवेश कर जाता है। इस तरह जो बाढ़ आती है वह नदियों के धीरे-धीरे उठते जलस्तर से कहीं अधिक विनाशकारी होती है।

तटबंध बनाने और उनके रखरखाव में भ्रष्टाचार की बहुत शिकायतें मिलती रही हैं। जब इस महत्वपूर्ण कार्य में अनुचित ढंग से पैसा कमाने को ही प्राथमिकता मिलती है, तटबंध का रखरखाव कैसा होना चाहिए- इसकी ओर ़जरूरी ध्यान नहीं दिया जाता है। आज ़जरूरत इस बात की है कि तटबंधों को भ्रष्टाचार और निहित स्वार्थों के दायरे से बाहर निकाल कर खुली बहस की जाए कि तटबंध कहॉं बनाए जाने चाहिए और कहॉं नहीं, उन्हें बनाने और उनके रखरखाव में कौन-सी सावधानियां बरती जाएं। ऐसा नहीं हुआ तो तटबंधों के गलत निर्माण या तटबंध टूटने से आने वाली बाढ़ की विनाशलीला बढ़ती रहेगी।

बांध या डैम निर्माण से कितनी बाढ़ सुरक्षा हो रही है, इस बारे में भी कुछ सवाल उठाने ़जरूरी हैं। बांध प्रायः सिंचाई और पनबिजली उत्पादन के लिए बनाये जाते हैं, पर साथ ही उनसे बाढ़ नियंत्रण का महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होगा, यह भी कहा जाता है। यह लाभ तभी प्राप्त हो सकता है जब अधिक वर्षा के समय बांध के जलाशय में पर्याप्त जल रोका जा सके और बाद में उसे धीरे-धीरे नियंत्रित ढंग से छोड़ा जा सके। पहाड़ों में जो वन-विनाश और भू-कटाव हुआ है उससे जलाशयों में बहुत मिट्टी-गाद भर गयी है और जल रोकने की क्षमता कम हो गयी है। इसी कारण तेज वर्षा के दिनों में पानी का वेग भी बहुत अधिक होता है क्योंकि वर्षा के बहते जल का वेग कम करने वाले पेड़ कट चुके हैं। बांध के संचालन में सिंचाई और पनबिजली के लिए जलाशय को अधिक भरने का दबाव होता है। दूसरी ओर वर्षा के दिनों में बाढ़ से बचाव के लिए ़जरूरी होता है कि जलाशय को कुछ खाली रखा जाए। दूसरे शब्दों में बांध के जलाशय का उपयोग यदि बाढ़ से बचाव के लिए करना है तो पनबिजली के उपयोग को कुछ कम करना होगा। जब ऐसा नहीं होता है तो जलाशय में बाढ़ के पानी को रोकने की क्षमता नहीं रहती है।

ऐसी स्थिति में बहुत-सा पानी वेग से एक साथ छोड़ना पड़ता है जो भयंकर विनाश उत्पन्न कर सकता है। कोई बड़ा बांध टूट जाये तब तो खैर प्रलय ही आ जाती है जैसा कि मच्छू बांध टूटने पर मोरवी शहर के तहस-नहस होने के समय देखा गया। बांध बचाने के लिए जब बहुत-सा पानी एक साथ छोड़ा जाता है तो उससे आने वाली बाढ़ सामान्य बाढ़ की अपेक्षा कहीं अधिक विनाशक और जानलेवा होती है। वर्ष 1988 में पंजाब के एक बड़े भाग में बहुत प्रलयंकारी बाढ़ आई। इसमें बहुत से लोग मारे गए, लाखों बेघर हुए और फसलों, संपत्ति आदि के नुकसान का तो अनुमान लगाना ही कठिन है। इस बाढ़ के बारे में व्यापक स्तर पर कहा गया है कि भाखड़ा व उसके सहायक बांधों से अधिक पानी छोड़े जाने की इस बाढ़ में महत्वपूर्ण भूमिका थी। दूसरी ओर बांध अधिकारियों ने कहा कि यदि यह पानी न छोड़ा जाता तो भाखड़ा बांध के विफल होने का खतरा था और यदि ऐसा होता तो बाढ़ इससे भी कहीं अधिक प्रलयंकारी होती। भाखड़ा-ब्यास मैनेजमेंट बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन ने पत्रकारों को बताया कि पंजाब में व अन्य स्थानों पर सितम्बर के अंतिम सप्ताह में हमारी याद के सबसे भयंकर हादसों में से एक हादसे से हम मात्र 0.03 इंच दूर थे। भाखड़ा के कंाीट निर्माण में 0.99 इंच का झुकाव हुआ जबकि खतरे का निशान 1.04 इंच पर है। हमने भाखड़ा को बचा लिया क्योंकि इसे बचाना ़जरूरी था, नहीं तो सब खत्म हो जाता। जब चेयरमैन महोदय से पूछा गया कि यदि भाखड़ा बांध विफल हो जाता तो इसका क्या असर होता, तो अति अनुभवी व प्रशिक्षित अधिकारी ने अपने नेत्र बंद कर, ऊपर की ओर हाथ उठाकर कहा, “यह विचार डरा देने वाला है। हम आज बाढ़ की विभीषिका के बारे में बात करने के लिए न बैठे होते।’

वर्ष 1978 में पंजाब में आई बाढ़ की जांच के लिए नियुक्त समिति के सदस्यों ने स्वीकार किया था कि बाढ़ की समस्या विकट करने में भाखड़ा से मजबूरी में छोड़े गए अधिक पानी की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी। एक सदस्य ने बताया कि जलाशय में पानी इतना ऊँचा उठ गया था कि बांध की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इसे और ऊपर नहीं उठने दिया जा सकता था। यदि बांध को कुछ हो जाता तो आधा पंजाब जलमग्न हो जाता। इस तरह एक दशक के भीतर दो बार भाखड़ा की सुरक्षा को गंभीर खतरा उत्पन्न हुआ तथा वह काफी बड़े इलाके को बाढ़ग्रस्त करने के बाद ही टाला जा सका, वह भी बड़ी कठिनाई से।

दामोदर घाटी कारपोरेशन के बांधों के रिकॉर्ड को देखें तो पता चलता है कि बाढ़ नियंत्रण में उन्हें भी दिक्कत होती रही है। दामोदर और बाराकर नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में वनों का निर्मम कटान हुआ और यहॉं ओपन-कास्ट खनन भी बहुत निर्ममता से हुआ। इस कारण यहॉं के जलाशयों में अनुमानित दर से कहीं अधिक गाद व मलबा पहुँचता रहा। साथ ही जलाशयों के संचालन में बाढ़ नियंत्रण की अपेक्षा विद्युत उत्पादन पर अधिक-ध्यान दिया गया जिससे अधिक पानी छोड़े जाने और नीचे बाढ़ आने की संभावना अधिक बनी रहती थी।

यदि हम पिछले कुछ वर्षों के बाढ़ के दिनों के समाचारपत्रों को ध्यान से पढ़ें तो हमें पता चलेगा कि सबसे अधिक विनाशक और जानलेवा बाढ़ प्रायः वहॉं आई है जहॉं तटबंध टूटे हैं, बांध से बड़े पैमाने पर पानी छोड़ा गया है या बांध टूटे हैं या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए हैं। अब आगे के लिए जो भी नियोजन हो, उसके लिए बाढ़ के इस बदलते रूप को ध्यान में रखना ़जरूरी है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्षा के दिनों में पर्वतीय क्षेत्रों में होने वाली क्षति और मौतों में बहुत वृद्घि हुई है। पर्वतीय क्षेत्रों में पानी का वेग भी बहुत होता है तथा यहॉं से बहुत-सा मलबा, मिट्टी-गाद आदि नीचे के जलाशयों और नदियों में पहुँचते हैं व वहॉं बाढ़ की गंभीरता को बढ़ाते हैं। बाढ़ की बढ़ती हुई विनाशलीला के लिए पर्वतों में वन-कटान, विस्फोटों का अधिक उपयोग, असावधानी से किया निर्माण व खनन कार्य इन सबकी बहुत भूमिका रही है। जब तक पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश नहीं रुकेगा, तब तक बाढ़ से बढ़ते विनाश को नहीं थामा जा सकता है।

 

– भारत डोगरा

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