भगवान बुद्घ पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने अपनी शिक्षा में “शून्यवाद’ का प्रचार किया, जिसके कारण मनुष्य के अन्दर अकर्मण्यता की उत्पत्ति हुई। इस मिथ्या प्रचार का सबसे बड़ा कारण है, बुद्घ के “शून्य’ शब्द का अर्थ समझने में त्रुटि। बुद्घ का कहना था कि मनुष्य का चित्त इतना निर्मल हो जाये कि वह राग-द्वेष व मोह से “शून्य’ हो जाये, खाली हो जाये। राग-द्वेष रहित हो जाये। ऐसे चित्त में मैल का काम नहीं होगा। वह हर स्थिति में समता में रहता है, जैसे सागर में नदियां गिरती हैं, पर वह चलायमान नहीं होता। अथवा हिमालय पर्वत पर आंधी-तूफान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह स्थिर रहता है। ऐसा शून्य चित्त अनन्त करुणा, अनन्त मैत्री, अनन्त मुदिता एवं अनन्त उपेक्षा (समता) से भर जाता है अर्थात् ऐसे चित्त में इन गुणों का सागर लहराता है। ऐसे चित्त को “शून्य’ न कहकर “पूर्ण’ ही कहेंगे। आकाश को क्या कहेंगे? खाली जगह पर वह असीमित है, जिसे पूर्ण ही कहा जायेगा। इस प्रकार शून्य का अर्थ पूर्ण ही हुआ। अतः “शून्य’ और “पूर्ण’ दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। दोनों समता के प्रतीक हैं। इसी स्थिति को गीता के अध्याय 2 के श्र्लोक 71-72 में निम्न प्रकार कहा गया –
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्र्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्यविमुह्याति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है।
हे अर्जुन, यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है। इसे पाने के पश्र्चात योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर वह ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार “शून्य’ का अर्थ हुआ कि चित्त “तृष्णा की आसक्ति’ से पूर्ण मुक्त हो जाये अर्थात तृष्णा रहित हो जाये और परम शान्तिपूर्ण निर्वाण की स्थिति में आ जाये। तब चित्त इसी जीवन में रोग-क्लेश, दुःख, आदि-व्याधि से मुक्त हो जाये (शून्य हो जाये)। “निर्वाण’ का अर्थ ही है – तृष्णा की तृप्ति की जलन से मुक्ति (शून्यता)। दूसरे शब्दों में जन्म-मरण के चा (संस्कारों) से छुटकारा।
एक बार बुद्घ ने अपने शिष्य “आनन्द’ से कहा, “”कोई भिक्षु यह न सोचे कि वह भिक्षु-संघ में रहकर ही वैराग्य, सुख, शान्ति तथा संबोधि प्राप्त कर सकता है। कान्त और शून्यागार में रहकर, भीड़भाड़ से दूर, जो भिक्षु शान्त-चित्त से इस प्रकार का प्रयत्न करता है, वह शीघ्र चित्तवृत्ति के निरोध को प्राप्त करके समता में रहता है।” बुद्घ ने आगे कहा, “”मैंने स्वयं भी इसी प्रकार दुःख व क्लेश से मुक्ति पाई।” इन्द्रियों का विषयों से संपर्क होने पर शरीर व मन में जो संवेदना प्रकट होती है, उसके प्रति कोई प्रतििाया न करना ही मन की शून्यता है। इसी को मन का समता में रहना कहा गया है।
इसे एक उदाहरण से समझें। बाहर कोई घटना घटी, जिससे हमें ाोध आया। ाोध जागते ही शरीर में एक जैव-रासायनिक िाया होने लगी। एक विशेष प्रकार का रसायन तैयार होकर हमारी धमनियों में रक्त के साथ बहने लगा। ऐसा रसायन बहने लगा, जो हमें बहुत बेचैन बना जाता है। इसका कारण यह है कि मन और शरीर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। जब हम बेचैन हुए तो गुस्सा आया। गुस्सा आया तो बहाव और तेज हो गया। बहाव तेजी से बहा तो और गुस्सा आया। और गुस्सा आया तो यह रसायन और तेजी से बहा। इस प्रकार यह दुष्चा चलता रहा और बढ़ता रहा। इसका अन्त कहां होगा? भगवान बुद्घ ने इससे बाहर निकलने का रास्ता बताया – “”इसे जैसा है, वैसा देखो। देखते-देखते दृष्टाभाव से, बिना कोई प्रतििाया किए, यह रासायनिक बहाव शान्त हो जायेगा। अतः मनुष्य आश्रव शून्य हो गया। इसी प्रकार शेष इन्द्रियों से संबंध है।”
इस प्रकार बुद्घ की साधना-विधि “विपश्यना’ के अभ्यास से जब एक व्यक्ति आश्रव विहीन हो गया, तो मुक्त हो गया। अर्थ जीवनमुक्त हो गया। उसके सारे आश्रव “शून्य’ हो गये। यही “शून्यवाद’ का अर्थ है, बुद्घ की शिक्षा में।
– के. कुमार
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