एनएसजी की बैठक दुबारा शुरू होने के ठीक दो दिन पहले अमेरिकी अखबार “वाशिंगटन पोस्ट’ में इस बात का खुलासा होना कि राष्टपति बुश ने भारत-अमेरिकी असैन्य परमाणु समझौते के बाबत एक गोपनीय पत्र लिख कर अमेरिकी कांग्रेस को बताया था कि परमाणु परीक्षण करने पर भारत को ईंधन की सप्लाई रोक दी जाएगी, कई कोणों पर कई-कई संदेह पैदा करता है। इस ़खुलासे के बाद सर्वाधिक संदेहास्पद स्थिति तो भारत सरकार और उसके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की हो गई है जो यह बार-बार दुहरा रहे थे कि आवश्यकता पड़ने पर हमारा परमाणु विस्फोट करने का अधिकार समझौते के तहत सुरक्षित है। इस तरह का आश्र्वासन उन्होंेने संसद को भी दिया हुआ है। लेकिन इस गोपनीय पत्र के खुलासे ने कम से कम यह बात तो साफ कर ही दी है कि समझौते के पीछे भी कोई समझौता हुआ है, जिसकी जानकारी सिर्फ राष्टपति बुश और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक सीमित है। न्यूक डील के पक्ष में अब तक इसके समर्थकों द्वारा यह भी कहा जा रहा था कि न सिर्फ इससे अन्तर्राष्टीय स्तर पर भारत पर आयद किया गया प्रतिबंध हटेगा बल्कि अत्याधुनिक परमाणु टेक्नोलॉजी भी हासिल करने में सफलता मिलेगी। लेकिन बुश का यह ़खत इसका स्पष्ट तौर पर खंडन करता हुआ अमेरिकी कांग्रेस को आश्र्वस्त करता है कि अमेरिका यह टेक्नोलॉजी भारत को हस्तांतरित नहीं करेगा।
़जाहिर है कि इस चिट्ठी के खुलासे के बाद बनी हुई आशंकायें फिर से एक बार नये तेवर के साथ सामने आती हैं। खुलासे के बाद मनमोहन सरकार पर देश को धोखे में रख कर समझौता करने का आरोप दायें-बायें बाजू से लगना फिर शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने इस मसले पर झूठा आश्र्वासन देकर संसद को गुमराह किया है। एक आरोप यह भी है कि बुश की इस चिट्ठी का संज्ञान प्रधानमंत्री को था लेकिन उन्होंने इस पर चुप्पी साध कर भारतीय पक्ष को कमजोर बनाया है। जहॉं तक सरकार का सवाल है, वह अपना पुराना राग अलाप रही है कि भारत अमेरिका के साथ जिस समझौता-123 से बंधा है उसमें भविष्य में परमाणु विस्फोट न करने की कोई शर्त आयद नहीं की गई है। उसका यह भी कहना है कि समझौता-123 के अलावा भारत अन्य किसी कानून से न बाधित है और न ही उसे बाधित किया जा सकता है। भारतीय प्रवक्ता का कहना है कि हमें अमेरिका के आंतरिक पत्राचार से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हमारा इस मुत्तलिक सारा सरोकार 123 की संविदा से है।
सरकार भले ही अपनी ओर से किसी तरह की सफाई दे लेकिन बुश की गोपनीय चिट्ठी के खुलासे ने समर्थकों के मन में भी संदेह के बीज बो दिये हैं। यह बात भी गौर करने लायक है कि एनएसजी की बैठक के ठीक पहले इस खुलासे का अर्थ और मकसद क्या हो सकता है? अमेरिका की ओर से इसे एनएसजी की स्वीकृति दिलाने की दिशा में उठाया गया कदम माना जाय या वह इस स्वीकृति के रास्ते में कॉंटे बोने का काम कर रहा है? भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह इस स्वीकृति के लिए थोपी गई किसी अतिरिक्त शर्त को स्वीकार नहीं करेगा। जबकि एनएसजी देशों की एकमात्र आपत्ति इस बात की है कि अमेरिका के साथ हुआ यह समझौता भारत को भविष्य में परमाणु-विस्फोट करने से कहीं से नहीं रोकता। उनकी आपत्ति इसी एक तथ्य पर टिकी है कि परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत को यह छूट किस आधार पर दी जा सकती है। हालॉंकि भारत ने इस छूट के लिए यह तर्क दिया है कि परमाणु प्रसार के संबंध में उसका अब तक का रिकॉर्ड बेदाग रहा है और उसने भविष्य में परमाणु विस्फोट न करने की एकतरफा घोषणा भी कर रखी है। लेकिन उसका यह तर्क एनएसजी के आपत्तिकर्त्ता देशों को संतुष्ट करने में सक्षम सिद्घ नहीं हो रहा। इस दृष्टि से क्या यह माना जा सकता है कि इस गोपनीय पत्र का ठीक समय पर खुलासा करके अमेरिका ने आपत्तिकर्त्ताओं को संतुष्ट करने और मसविदे को स्वीकृति दिलाने की चाल चली है अथवा वह किन्हीं राजनीतिक कारणों से अब इस समझौते से अपने को बरी करना चाहता है? संभावना इस बात की भी बनती है कि वह भारत पर दबाव बनाकर परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करवाना चाहता हो अथवा एनएसजी के मसविदे में यह साफ तौर पर उल्लेख करवाना चाहता हो कि भारत भविष्य में कोई परमाणु विस्फोट नहीं करेगा?
इनमें से कोई भी कारण हो सकता है अथवा कोई अन्य कारण भी हो सकता है, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि चिट्ठी के खुलासे के लिए जो समय चुना गया है वह बेमकसद तो कत्तई नहीं है। एक बड़ा सवाल यह है कि भारत को न्यूक डील को लेकर अपने पुराने स्टैंड पर टिके रहना होगा। परमाणु ऊर्जा हमारे लिए ़जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा ़जरूरी है भारत का भारत बने रहना। ़खुदा न ़खास्ता अगर यह डील सिरे नहीं चढ़ पाती है तो इससे हमारी प्रतिष्ठा को उतना धक्का नहीं लगेगा, जितना अमेरिका इससे आहत होगा। अगर भारत के साथ वह अपने वादे नहीं निभा पायेगा तो अन्तर्राष्टीय स्तर पर साख अमेरिका की जाएगी, भारत की नहीं। इस विषय को राजनयिक स्तर पर अमेरिका नहीं समझता होगा, यह भी नहीं माना जा सकता। इस डील के फंदे में वह भारत से कहीं ज्यादा फंसा है। अतः हमें यह मान कर चलना होगा कि वह अपनी नाक बचाने की गऱज से इस डील को अंजाम तक पहुँचाने की हर तजवी़ज आजमायेगा।
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