बढ़ता उपभोक्तावाद और पर्यावरण क्षरण

अभी हाल ही में जब विश्र्व में छाई आर्थिक मंदी और बेहद तीव्र गति से बढ़ती महंगाई के कारणों और परिणामों की विवेचना और विश्र्लेषण किया जा रहा था तो ऐसे में अमेरिकी राष्टपति के बयान और विचारों ने एक नई बहस को जन्म दे दिया। अमेरिकी राष्टपति ने कहा कि विश्र्वभर में बढ़ती महंगाई की वजह है विकासशील देशों में बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति।

उन्होंने भारत सहित कई देशों का उदाहरण सामने रखकर बताया कि वहॉं के लोगों के खान-पान, रहन-सहन, सुविधा-फैशन तथा आर्थिक स्तर व जीवन शैली ने विश्र्व भर में उत्पाद मूल्यों में जबरदस्त तेजी ला दी है। स्वाभाविक रूप से बुश के इस बयान की तीखी आलोचना हुई और जो इस मत से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे, वे थे अर्थशास्त्री।

इससे अलग, पिछले दिनों कुछ देशों की यात्रा पर निकले ईसाई धर्मगुरु पोप ने कहा कि विश्र्व समाज को अपनी उपभोगी मनोवृत्ति को अब थोड़ा नियंत्रित करना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसका कुपरिणाम न सिर्फ मानव सभ्यता बल्कि प्रकृति और पर्यावरण को भी झेलना होगा।

पोप ने जो बात आज कही है वही बात भारतीय इतिहास के फकीर दर्शनशास्त्री कबीर और संत तुलसीदास जैसे लोग पहले ही कह गए थे। उनका भी कहना था कि मनुष्य को इस पर्यावरण से अपनी ़जरूरत के लिए उतना ही लेना चाहिए जितना आवश्यक है यानी संसाधनों का दोहन संतुलित और नियंत्रित रूप में ही होना चाहिए।

तो क्या यह समझा जाए कि अचानक सामने आए विश्र्वव्यापी खाद्यान्न संकट और लगातार एक के बाद एक आ रही प्राकृतिक आपदाओं ने विश्र्व समाज और शक्तिशाली शासकों को यह सदबुद्घि दी है कि यदि अब भी न चेते तो फिर विनाश ही अंतिम परिणाम है। हालांकि इसके बाद के घटनााम ने तो यही ़जाहिर किया है कि स्थिति कमोबेश अब भी वही है। विगत दिनों विश्र्व के सबसे शक्तिशाली आठ देशों के समूह जी-8 ने अन्य मुद्दों के साथ वैश्र्विक महंगाई पर भी चर्चा की मगर इसकी वास्तविकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सम्मेलन का आयोजन विश्र्व के सबसे महंगे होटलों में से एक में किया गया।

विश्र्व में छाई आर्थिक मंदी के कई कारण और उतने ही पहलू हैं। शक्तिशाली और विकसित देशों के लिए आर्थिक मंदी का पर्याय है उनकी विकास दर में कमी आना, उनके उत्पादों के लिए वैश्र्विक बाजार मंडी का अभाव होना और जो कच्चा माल वे छोटे विकासशील देशों से मनचाहे मूल्यों पर खरीद कर उसे भारी मुनाफे के साथ बेचते हैं, उससे अर्जित आय में कमी आना।

विशेषकर कच्चे तेल और पेटो पदार्थों पर आधारित हो चुकी इस विकसित अर्थव्यवस्था को जब अपने बेहिसाब सुख-सुविधा और ऐशो-आराम के लिए मनोनुकूल और पर्याप्त पेटो साधन उपलब्ध होने में कठिनाई होने लगी तब जाकर उन्हें संसाधनों के अत्यधिक दोहन तथा वैश्र्विक महंगाई आदि की चिंता सताने लगी। इसके लिए भारत तथा ऐसे ही अन्य विकासशील देशों को इसलिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है क्योंकि इन देशों के बढ़ते आर्थिक कद से यहॉं के उपभोक्ता भी विश्र्व बाजार के ग्राहक बन गए हैं। ऐसे में ़जाहिर है कि विकसित देशों के लोगों के लिए यह महॅंगा साबित हो रहा है।

इस संदर्भ में एक अन्य गंभीर पहलू यह है कि आीकी महादेश, मध्य एशियाई देशों तथा और भी अन्य देश जो अलग-अलग कारणों से आज बेहद कठिन दौर से गुजर रहे हैं, उनके लिए तो अपना अस्तित्व बचाना ही दुरूह हो गया है। ऐसे में विश्र्व में छाई आर्थिक मंदी या महंगाई की प्रत्यक्ष लाभ-हानि उन्हें प्रभावित नहीं करती।

नाइजीरिया, कंबोडिया, सोमालिया, फिलीस्तीन, अफगानिस्तान, इराक आदि देशों में अब भी लोग रोज लाखों की संख्या में मर रहे हैं, कहीं भूख से, कहीं बीमारी से तो कहीं कुपोषण से। ऐसे नागरिकों को भूमंडलीकरण के दौर की उदार अर्थव्यवस्था का कोई लाभ मिला हो, ऐसा तो नहीं लगता। हॉं, इन देशों में उपलब्ध कच्चे माल, पेटो पदार्थों, वन प्रदेशों तथा सस्ते श्रम का दोहन तो विकसित देशों ने अपने हित साधने के लिए जारी रखा है।

यह बात इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि जब भी पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण की बात चलती है या ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक की, हानिकारक जीन बीजों के इस्तेमाल पर रोक की या संपूर्ण भूमंडल को दूषित करने वाले साधनों पर प्रतिबंध की, हमेशा इसके मुख्य उत्तरदायी देश खुद को इससे अलग कर विकासशील देशों पर सारा दोष मढ़ कर मनमानी शर्तों के पालन हेतु बाध्य करते हैं।

प्राचीनकालीन फकीरों, दर्शनशास्त्रियों का मत हो या पोप बेनेडिक्ट सोलहवें द्वारा हाल ही में दी गई नसीहत, इतना तो तय है कि प्रारंभ से ही मानव सुविधा और सुखोन्मुख प्रवृत्ति के अनुरूप ही वातावरण में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करता रहा है किंतु सबसे बड़ा कारण है दोहन और उपभोग में आए असंतुलन की प्रवृत्ति। यदि आँकड़ों पर ऩजर डाली जाए तो चाहे प्राकृतिक संसाधनों के सर्वाधिक दोहन की बात हो या बदले में पारिस्थितिकीय तंत्र को प्रदूषण से सर्वाधिक नुकसान पहुँचाने की, विकसित देश ही सबसे आगे रहे हैं। इससे अलग आीकी महादेश और एशिया के देश अब भी प्राकृतिक धरोहरों को प्रचुर और संपन्न करने में ही लगे हैं।

इस पूरे घटनााम में जो एक सकारात्मक संदेश चेतावनी के रूप में विकासशील देशों को मिला है उससे उन्हें इतना सचेत तो हो जाना चाहिए कि जिन पश्र्चिमी देशों का अंधानुकरण आज वे जाने कौन-कौन सी कीमत चुका कर कर रहे हैं, एक समय आने पर वे स्वयं उनके जैसी स्थिति में आ सकते हैं।

आज विकास की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं के निर्माण में लगे इन पर्वतों, नदी, घाटियों तथा किसानों की उपेक्षा का दुष्परिणाम देर-सवेर झेलना ही पड़ेगा। आज तो सिर्फ खाद्यान्न संकट और नियमित रूप से अलग-अलग क्षेत्रों में आ रही विभिन्न तरह की प्राकृतिक आपदाओं जैसी चंद गिनी-चुनी मुश्किलें हैं। भविष्य में इसके विकराल स्वरूप की कल्पना सहज ही की जा सकती है। देखना तो ये है कि यह बात सियासतदानों की समझ में कब आती है।

 

– अजय कुमार झा

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