देवर्षि नारद की अनुभव कथा सुनकर हिमवान के आँगन में भावों की बूंदें बरस पड़ीं। वहॉं उपस्थित सभी ब्रह्मर्षियों, महर्षियों, मुनिजनों के साथ सिद्घों, गंधर्वों, विद्याधरों व देवों के अंतःकरण भक्ति से सिक्त हो गये। सब ओर एक व्यापक मौन पसर गया। इस मौन में स्पंद एवं निःस्पंद का अपूर्व संगम हो रहा था। प्रायः सभी के अंतर में भावों के स्पंदन से बोध की निस्पंदता अंकुरित हो रही थी, हालॉंकि चारों ओर पसरे मौन के बीच वातावरण में चहुं ओर एक प्रश्न की संभावनाएँ विचरण कर रही थीं। प्रश्र्न्न यही था कि भक्ति व ज्ञान के बीच क्या संबंध है- भक्ति से ज्ञान प्रकट होता है या फिर ज्ञान से भक्ति? देर तक किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। सभी अपने भावों में भीग रहे थे।
तभी वहां पर एक अपूर्व सुगंधित प्रकाश का वलय छा गया। इस अनुभव में अलौकिकता थी, जिसे सभी ने महसूस किया। इस अद्भुत एहसास की सघनता में सभी ने महर्षि आश्र्वलायन के दर्शन किये। आश्र्वलायन की प्रतिभा, मेधा, तप व तितिक्षा से सभी परिचित थे। वहां पर उपस्थित विभूतियों में से कुछ ने उनके बारे में सुन रखा था तो कुछ को उनके सुखद साहचर्य का अनुभव था। ब्रह्मापुत्र पुलस्त्य के वे बालसखा थे। उनकी अंतरंगता की कई गाथाएँ महर्षियों के बीच उत्सुकतापूर्वक कही – सुनी जाती थीं। आज अतिकाल के बाद वे दोनों फिर से मिले थे। इन महर्षियों ने एक-दूसरे को देखा तो न केवल इनके मुख पर बल्कि इन्हें देखकर उपस्थित सभी जनों के मुखों पर सात्त्विक भावनाओं की अनगिनत विद्युत रेखाएँ चमक उठीं।
ब्रह्मर्षि पुलस्त्य ने उमगते हुए भावों के साथ आश्र्वलायन को गले लगाया। मिलन में कुछ ऐसा उछाह और आनंद था कि भावों के अतिरेक में दोनों मित्र देर तक गले मिलते रहे। इसके बाद पुलस्त्य ने उन्हें अपने पास बैठने का आग्रह किया, परंतु आश्र्वलायन ने बड़े मीठे स्वरों में कहा, “”आप सब सप्तर्षिमंडल के सदस्य हैं। आपका स्थान विशिष्ट है। विधाता की इस मर्यादा का सम्मान किया जाना चाहिए।” ऐसा कहते हुए, वे देवर्षि नारद के समीप बैठ गये। आश्र्वलायन की यह विनम्रता सभी के दिलों में गहराई तक उतर गयी। अनेकों नेत्र उनकी ओर टकटकी बांधे देखते रह गये।
इन सात्त्विक दृश्यावलियों के बीच गायत्री महामंत्र के द्रष्टा महान ऋषि विश्र्वामित्र ने कहा, “”हे महर्षि आश्र्वलायन! आपकी प्रतिभा, विद्या, ज्ञान की कथाएँ ऋषियों के समूह में सादर कही-सुनी जाती हैं। आप अपने अनुभवों में घोलकर भक्ति एवं ज्ञान के संबंध का निरूपण करें।” ब्रह्मर्षि विश्र्वामित्र के इस प्रस्ताव ने आश्र्वलायन ऋषि को असमंजस में डाल दिया। संभवतः वे इसके लिए तैयार नहीं थे, इसीलिए उन्होंने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ कहा भी – “”मैं तो यहॉं आप सब महनीय जनों के संग के लिए आया हूँ। फिर इस भक्ति-अमृत के मध्य मेरी वाणी उपयुक्त एवं सार्थक होगी!” आश्र्वलायन के इन स्वरों के साथ देवों एवं ऋषियों के अनुरोध के स्वर भी तीव्र हो उठे।
इस आग्रह को वे ठुकरा न सके और कहने लगे- “”मैं आप सभी के आदेशों को शिरोधार्य करके अपना अनुभव-सत्य कहने का प्रयत्न कर रहा हूं, परंतु इसका निष्कर्ष तय करने की जिम्मेदारी आप सबकी है। मेरी ये अनुभूतियॉं तब की हैं, जब मैं युवावस्था को पार कर प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर रहा था। अपने अध्ययन के प्राथमिक चरण से ही मुझे सराहना मिली थी। आचार्यगण मुझे प्रतिभा एवं विद्या का पर्याय मानते थे। अनेक किंवदंतियां मेरे बारे में प्रचारित हो रही थीं। युवावस्था आने तक मैंने सभी विद्याओं एवं कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली, परंतु न जाने क्यों, आंतरिक मन बेचैन रहता था, जब-तब एक बेकली मुझे घेर लेती थी। इसे हटाने के लिए मेरे सभी तर्क निष्फल थे। सारा शास्त्रज्ञान अधूरा था।”
“”आखिरकार मैं हिमालय आ गया। सोचा यही था कि हिमवान की शीतलता अवश्य मेरी आंतरिक उष्णता का शमन करेगी। यहां आकर मैं यों ही सुमेरु की श्रृंखलाओं के बीच भ्रमण करने लगा। यहां भ्रमण करते हुए मुझे परम दीर्घजीवी देवों के भी पूज्य महर्षि लोमश मिले। उन्होंने मेरे सिर पर आशीष का हाथ रखा। उनका वह स्पर्श अति अलौकिक था। इस स्पर्श ने मेरी सभी क्षुधा, तृषा, थकान व बेचैनी हर ली। एक विचित्र-सी शीतल प्रफुल्लता की लहर मेरे अस्तित्व में प्रवाहित हो उठी। मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया। इस एक क्षण के अनुभव में मेरे अतीत के संपूर्ण अनुभव घुल गये।”
“”मेरी प्रतिभा व विद्या का दंभ जाता रहा। मेरे वे नुकीले तर्क जो सदा औरों को आहत करते रहते थे, आज पिघल गये। मैं तो बस हिमशिखरों के मध्य खड़े कालजयी महर्षि लोमश को निहारता रह गया। मुझे तो यह भी सुध नहीं रही कि मैं उनके पावन चरणों में माथा नवाऊँ। पर तभी उन करुणामय महर्षि ने मेरा हाथ थामा और मुझे एक ओर ले चले। थोड़ी दूर चलने के बाद एक गुफा आ गई। यहां का वातावरण अति सुरम्य था। परम प्रशांति यहां छाई थी। इस गुफा के पास ही एक सुंदर जलस्रोत था, जहां सुंदर पक्षी जलाीड़ा कर रहे थे। आसपास के स्थान में मखमली घास उगी थी। इस घास के बीच-बीच में सुगंध बिखेरते पुष्पित पौधे लगे थे। इस वातावरण को मैं देर तक थकित-चकित हो देखता रह गया। उन क्षणों में मैं भावों से भरा था और मेरे मुख से एक भी शब्द उच्चरित नहीं हो रहा था, पर महर्षि लोमश बड़े मधुर स्वरों में मुझसे कह रहे थे – वत्स आश्र्वलायन! ज्ञान के दो रूप हैं – पहला है विवेक और दूसरा है बोध। जो ज्ञान इन दोनों रूपों से वंचित हो, उसे ज्ञान नहीं, अज्ञान कहेंगे। कोरी बौद्घिकता से जानकारियों का बोध तो बढ़ता है, परंतु इससे सत्य सद्वस्तु की झलक नहीं मिलती। ज्ञान के अनुभव की प्रथम झलक विवेक के रूप में मिलती है। फिर वह अक्षरज्ञान से हो अथवा अक्षरातीत अवस्था में पहुंचकर।”
“”यह विवेक हुआ तो वासनाएँ स्वयं ही भावनाओं में रूपांतरित हो जाती हैं और अंतःकरण में भक्ति अंकुरित होती है। प्रभु के स्मरण, उनमें समर्पण, विसर्जन से इस भक्ति का परिपाक होता है और तब ज्ञान का दूसरा रूप बोध के रूप में प्रकट होता है। इस अवस्था में मनुष्य को परात्पर तत्त्व का साक्षात्कार होता है। वह सत्य के झरोखे से ऋत् की झांकी देखता है। यह बुद्घि की सीमा से सर्वथा पार व परे है। यहां न तर्क है और अनुमान। यहां पर तो प्रभु की शाश्र्वतता का साकार व संपूर्ण बोध है।” अपने इस कथन को पूरा कहने के पूर्व ही आश्र्वलायन की भावनाएं बरबस आँखों से छलक पड़ीं। वे स्वयं को संयत करते हुए पुनः बोले – “”मैं तो यही कह सकता हूं कि भक्ति ज्ञान का सार है।” आश्र्वलायन के इस वचन को आत्मसात् करते हुए देवर्षि नारद ने अपने सूत्र का सत्योच्चार किया – तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके।। 28।। उसका (भक्ति का) साधन ज्ञान ही है, किन्हीं (आचार्यों) का यह मत है। इस सूत्र को सुनने के साथ सभी के मन मौन में डूब गये। संभवतः इस सत्य का कोई अन्य पहलू अवतीर्ण होने की प्रतीक्षा में रत था।
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