ओलंपिक खेलों का जिक्र छिड़ते ही भारतीय खेल परिदृश्य बेहद धुंधला दिखने लगता है। यह आश्र्चर्यजनक दुर्भाग्य का विषय है कि 1 अरब 16 करोड़ से ज्यादा की आबादी के बावजूद हमें अभी भी ओलंपिक की किसी वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में स्वर्ण पदक का इंतजार है। क्या इस बार यह प्रतीक्षा पूरी होगी? हर बार हम इसी उम्मीद से ओलंपिक जाते हैं। मगर निराशा के साथ लौटते हैं। कभी भाग्य हमसे रूठ जाता है तो कभी ऐन वक्त पर हमारे खिलाड़ियों की प्रतिभा कुंद हो जाती है।
बहरहाल, इस निराशा भरे और पदक के लिहाज से अंधियारे परिदृश्य में भी रह-रह कर सितारे कौंधते रहे हैं तो क्यों न बीजिंग ओलंपिक शुरू होने के पहले हम ऐसे ही भारतीय सितारों को याद करें। शायद उनकी प्रेरणा भारत के लिए बीजिंग को यादगार और खुशनुमा बना दे।
ध्यानचंद
ध्यानचंद को हॉकी का जादुगर कहा जाता है। उन्होंने अपने 22 साल के कॅरिअर में 1000 गोल किए। अब तक दुनिया का दूसरा कोई खिलाड़ी यह चमत्कारिक कारनामा नहीं कर सका। ध्यानचंद सेना में सिपाही थे। वह सेना की टीम में खेला करते थे। उन्होंने 3 ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व करते हुए, दुनिया के दर्शकों को सम्मोहित कर दिया था। 1932 ओलंपिक में जब भारतीय हॉकी टीम ने अमेरिका को 24 गोलों से हराया, उसमें ध्यानचंद और उनके छोटे भाई ने मिलकर अकेले 8 गोल किये थे। 1936 के ओलंपिक खेलों में ध्यानचंद भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे। उनके नेतृत्व में भारत ने बर्लिन में ऐतिहासिक स्वर्ण पदक जीता।
उस साल भारत ने 37 मैच खेले थे और 338 गोल किए थे। इनमें 133 गोल अकेले ध्यानचंद के थे। उनके इस अद्भुत खेल को देखने के बाद एडोल्फ हिटलर ने उनकी तारीफ करते हुए कहा था, “”अगर तुम एक जर्मन होते तो मैं तुम्हें कम से कम मेजर जनरल तो बना ही देता।” जब ध्यानचंद मैदान में होते थे, तो वह किसी जादुगर की ही तरह लगते थे। हमेशा गेंद उनकी स्टिक से चिपकी रहती थी। जब भारत ने 1935 में ऑस्टेलिया और न्यूजीलैंड का दौरा किया तो वह भारतीय टीम का नेतृत्व करने के लिए सबकी एकमत पसंद थे। इस दौरे में भारत ने 48 मैच खेले और सभी मैच जीते। भारत ने 584 गोल किए, जिसमें अकेले ध्यानचंद ने ही 200 गोल किए। उन दिनों डॉन ब्रैडमैन िाकेट के जादुगर के रूप में मशहूर थे। वह ध्यानचंद का यह कारनामा देखकर आश्र्चर्यचकित रह गये और एक मजेदार टिप्पणी की- “”ध्यानचंद हॉकी के खिलाड़ी हैं या िाकेट के बल्लेबाज हैं।”
ध्यानचंद को 1956 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 1980 में उनके सम्मान में एक डाक-टिकट जारी किया गया। उनके जन्मदिन 29 अगस्त को भारत सरकार ने राष्टीय खेल दिवस के रूप में घोषित किया है।
उड़न सिख मिल्खा सिंह
उड़न सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह 1960 के रोम ओलंपिक में बस दुर्भाग्य के चलते एक व्यक्तिगत पदक से चूक गये वरना उन्होंने वह कर दिखाया था, जो तब से अब तक किसी भी भारतीय पुरुष धावक ने नहीं किया। मिल्खा सिंह 1960 के रोम ओलंपिक में 400 मीटर की दौड़ में फाइनल में पहुंचे। लेकिन पदक हासिल करने की उनकी हसरत महज सेकंड से भी कुछ कम समय के अंतराल से रह गयी। उन्होंने चौथा स्थान हासिल किया। उनका टाइम रहा 45.6 सेकंड। मजे की बात यह है कि उस साल फाइनल में पहुंचे चारों धावकों ने विश्र्व रिकॉर्ड तोड़े थे। पहले और दूसरे स्थान पर रहे धावकों ने नया विश्र्व रिकॉर्ड कायम किया था तो तीसरे स्थान पर रहे दोनों धावकों ने नया ओलंपिक रिकॉर्ड बनाया था। कहने का मतलब यह है कि मिल्खा सिंह का दुर्भाग्य ही था कि 1960 के रोम ओलंपिक में जितने भी धावक दौड़े, सबने अद्भुत कारनामा किया।
1958 में मिल्खा सिंह ने 200 मीटर और 400 मीटर में राष्टीय रिकॉर्ड कायम किया था। यह रिकॉर्ड इन्होंने कटक में संपन्न राष्टीय खेलों में बनाये थे। 1958 के टोकियो एशियाड में उन्होंने 400 मीटर की दौड़ जीती और उसी साल राष्टकुल खेलों में भी उन्होंने 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक हासिल किया था।
उड़नपरी पी.टी. उषा
हालांकि पी.टी. उषा भी उड़न सिख मिल्खा सिंह की तरह एशिया की महान धाविका होने का खिताब पाने के बावजूद ओलंपिक पदक बस पाते-पाते रह गयीं। एक सेकंड के सौवें हिस्से से उनके हाथ से कांस्य पदक फिसल गया। वह भी 400 मीटर की दौड़ में ही। बस फर्क यह था कि यह बाधा दौड़ थी।
पयोली एक्सप्रेस के नाम से मशहूर 1964 में केरल में जन्मीं पी.टी. उषा पहली भारतीय महिला और पांचवीं भारतीय खिलाड़ी हैं, जो ओलंपिक खेलों की किसी व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा में फाइनल तक पहुंची हैं। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक में वह भी नाटकीय तरीके से एक सैकंड के सौवें हिस्से से पीछे रहकर कांस्य पदक से वंचित रह गयीं। फोटो फिनिश में वह चौथे स्थान पर मानी गयीं। पी.टी. उषा ने पहली बार किसी अंतर्राष्टीय प्रतिस्पर्धा में सन् 1980 में पाकिस्तान में पाकिस्तान ओपेन नेशनल मीट में हिस्सा लिया था। पहली ही बार में उन्होंने 4 स्वर्णपदक जीते। उन्हें 200 मीटर में स्वर्ण पदक और 100 मीटर में कांस्य पदक सिओल में आयोजित विश्र्व जूनियर इनविटेशन मीट में मिले। यह सन् 1982 का साल था। लॉस एंजिल्स ओलंपिक उनके लिए दुर्भाग्यपूर्ण रहा और उसके बाद सिओल ओलंपिक 1988 भी उनके लिए निराशा ही लेकर आया। इस ओलंपिक में वह फाइनल में जगह ही नहीं बना पायीं। लेकिन वह एक बार फिर अगले ही साल नई दिल्ली में आयोजित एशियन टैक फेडरेशन मीट में चमकीं, जब उन्होंने 4 स्वर्ण, 2 रजत पदक जीते। इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन ने उन्हें “स्पोर्ट परसन ऑफ द सेंचुरी’ का खिताब दिया है और सरकार ने उन्हें अर्जुन अवार्ड 1983 में और पद्मश्री 1985 में दिये हैं।
लिएंडर पेस
लिएंडर पेस ने 1996 में अटलांटा ओलंपिक में लॉन टेनिस के एकल मुकाबले में कांस्य पदक जीता। 1973 में जन्मे और महेश भूपति के साथ जोड़ी बनाकर भारत को टेनिस का पहला ग्रैंड स्लैम दिलाने वाले लिएंडर पेस महज दूसरे ऐसे भारतीय रहे, जिन्होंने 1996 में ओलंपिक कांस्य पदक जीता। सेमीफाइनल में उन्होंने आन्द्रे अगासी के साथ खेला, एक बेहद मजबूत प्रतिद्वंद्वी के विरुद्घ। कांस्य पदक के लिए वह फर्नांडो मेलिगेनी से भिड़े और 3-6, 6-2, 6-4 से पदक अपने नाम किया। सन् 2000 में आयोजित सिडनी ओलंपिक में उन्होंने महेश भूपति के साथ जोड़ी बनायी, लेकिन वह दूसरे राउंड से आगे नहीं बढ़ सके और 2004 में भी यही किस्सा दोहराया गया। हालांकि इस बार उनकी जोड़ी सेमीफाइनल के पहले ही हार गई। गौरतलब है कि शुरू में फुटबॉल खेलने में रुचि रखने वाले लिएंडर पेस के पिता वेस पेस हॉकी के खिलाड़ी थे और उन्होंने भी ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया था।
कर्णम मल्लेश्र्वरी
सन् 2000 में कर्णम मल्लेश्र्वरी भारत के लिए 69 किलोग्राम की श्रेणी में भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीतने वाली अकेली खिलाड़ी रहीं। आन्ध्रप्रदेश के एक छोटे से गांव से आने वाली कर्णम मल्लेश्र्वरी ने अपने बलबूते पर लौह महिला का खिताब हासिल किया। 1993 में वह विश्र्व चैम्पियन बनीं और 1994 में 63 किलोग्राम भार उठाने की श्रेणी में उन्होंने चीन में आयोजित वर्ल्ड वेटलिफ्ंिटग चैम्पियनशिप में भी विजेता रहीं। 1995 में कर्णम मल्लेश्र्वरी 54 किलोग्राम की श्रेणी में रिकॉर्ड बनाते हुए 3 स्वर्ण पदक जीते। कर्णम ने देश में बहुत सम्मान पाया। उन्हें 1994-95 का राजीव गांधी खेल रत्न भी प्रदान किया गया है।
राज्यवर्द्घन सिंह राठौर
राज्यवर्द्घन सिंह राठौर लाइमलाइट में तब आये, जब उन्होंने 2004 में एथेंस में आयोजित ग्रीष्म ओलंपिक में भारत के लिए मेन्स डबल्स टैप शूटिंग प्रतिस्पर्धा में रजत पदक जीता। राज्यवर्द्घन सिंह राठौर भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल हैं। 1993 से वह लगातार नेशनल चैम्पियनशिप जीत रहे हैं। कर्नल राठौर ने 2002 में आयोजित 17वें राष्टकुल खेलों में एक नया रिकॉर्ड कायम किया। 2004 में उन्होंने सिडनी में आयोजित विश्र्वकप शूटिंग में स्वर्ण पदक जीता और इसके साथ ही टीम के साथ मिलकर भी स्वर्ण पदक जीता। चेक रिपब्लिक में आयोजित मास्टर्स कप चैम्पियनशिप में भी उन्होंने गोल्ड मेडल जीता। लेकिन उनके तमाम पदकों में सबसे ज्यादा चमक 2004 में जीते गये ओलंपिक रजत पदक की ही है। इस बार उम्मीद है कि वह और कुछ दूसरे शूटिंग के खिलाड़ी कई पदक जीतकर लायेंगे।
के.डी. जाधव
कसाबा दादासाहेब जाधव (1926-1984) आजाद भारत के पहले वह ओलंपियन थे, जिन्होंने किसी व्यक्तिगत स्पर्धा में भारत के लिए पदक जीता। कुश्ती लड़ने वालों के परिवार से आने वाले दादासाहेब जाधव का शुरू से ही कुश्ती के प्रति अच्छा-खासा रूझान था। वह अन्य खेलों में भी बहुत प्रतिभाशाली खिलाड़ी के रूप में गिने जाते थे। तैराकी, भारोत्तोलन और दौड़ने में भी वह माहिर थे। 1948 के ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेते हुए के.डी. जाधव ने फ्लाई वेट कैटेगरी में छठां स्थान हासिल किया। चार साल बाद हेलसिंकी ओलंपिक में उन्होंने बैंटम वेट श्रेणी में हिस्सा लेते हुए, भारत के लिए आजादी के बाद पहली व्यक्तिगत स्पर्धा में कांस्य पदक जीता। लेकिन उन्हें सही ढंग से पहचान नहीं मिली। जब सालों बाद उनके परिवार वालों ने सरकार पर उनकी पहचान के लिए उन्हें किसी पदक से नवाजे जाने की गुजारिश की, तो सन् 1994 में यानी उनकी मौत के दस साल बाद उन्हें छत्रपति शिवाजी सम्मान से सम्मानित किया गया।
रूप सिंह
रूप सिंह हॉकी के जादुगर ध्यानचंद के छोटे भाई थे। रूप सिंह अपने हॉकी संभालने के कौशल में लाजवाब थे। वह इनसाइड लेफ्ट में देश के सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में गिने जाते हैं। वह उन दो हॉकी टीम के सदस्य थे, जिन हॉकी टीमों ने पहले 1932 में, फिर 1936 में ामशः हॉकी का स्वर्ण पदक जीता। जर्मन तो उनके खेल से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने इनके नाम पर एक सड़क का नाम ही रख दिया है। उनके बेटे चन्द्रशेखर ने भी भारत के लिए हॉकी खेली है।
अशोक कुमार
अशोक कुमार हॉकी के जादुगर ध्यानचंद के बेटे हैं। अशोक कुमार भी हॉकी के एक नैसर्गिक खिलाड़ी रहे हैं। इन्होंने दो बार ओलंपिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया है। एक बार सन् 1972 में और दूसरी बार सन् 1976 में। दोनों ही बार भारत ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने में कामयाब रहा है। अशोक कुमार 1971 की उस भारतीय हॉकी टीम के भी सदस्य थे, जिसने बार्सिलोना में आयोजित पहले हॉकी विश्र्वकप में कांस्य पदक जीता था और एम्सटर्डम में आयोजित दूसरे विश्र्वकप में टीम ने रजत पदक जीता। उनके हॉकी कॅरिअर का सबसे चरम वर्ष 1975 था, जब कुआलालम्पुर में आयोजित वर्ल्ड कप हॉकी में भारत ने स्वर्ण पदक जीता। इस टूर्नामेंट के लगभग सभी महत्वपूर्ण गोल अशोक कुमार ने ही किए थे। इस प्रतियोगिता में पाकिस्तान के विरुद्घ उनका खेल अद्भुत था।
नॉर्मन जी प्रिचार्ड
नॉर्मन जी प्रिचार्ड एक एंग्लो-इंडियन थे। वह पहले ऐसे भारतीय एथलीट थे, जिन्होंने ओलंपिक खेलों में हिस्सा लिया। यही नहीं, वह पहले ऐसे भारतीय और एशियाई खिलाड़ी भी थे, जिसने ओलंपिक में कोई व्यक्तिगत पदक जीता था। प्रिचार्ड ने दो रजत पदक जीते थे। एक 200 मीटर की दौड़ में और दूसरी 200 मीटर की बाधा दौड़ में। उन्होंने यह कारनामा 1900 के पेरिस ग्रीष्म ओलंपिक खेलों में किया था। हालांकि ऐतिहासिक रिकार्ड बुक में उनके ये पदक ब्रिटेन के खाते में दर्ज हैं, लेकिन इंडियन ओलंपिक काउंसिल उन्हें ओलंपिक खेलों में भारत के प्रतिनिधि के रूप में सम्मान देती है।
लेस्ली क्लाउडियस
लेस्ली क्लाउडियस भारत के एक महत्वपूर्ण हॉकी खिलाड़ी हैं। वह अकेले ऐसे भारतीय खिलाड़ी हैं, जिन्होंने ओलंपिक खेलों में सबसे ज्यादा पदक जीते हैं। उन्होंने 3 स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है। यह उन्होंने चार लगातार ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व करते हुए हासिल किए। 1948 लंदन में, 1952 हेलसिंकी में, 1956 मेलबोर्न में और 1960 टोकियो में। उन्हें ऐसे भारतीय हॉकी टीम के कप्तान के रूप में भी जाना जाता है, जिनके कार्यकाल में पिछले 28 सालों से चली आ रही भारतीय हॉकी का वर्चस्व कुछ कम हुआ, जब रोम ओलंपिक में भारत पहली बार हॉकी के स्वर्ण पदक से वंचित हुआ। लेस्ली क्लाउडियस को सरकार ने उनके उच्च स्तरीय हॉकी कॅरिअर के लिए पद्मश्री सम्मान प्रदान किया।
अंजलि भागवत
अंजलि भागवत एक प्रोफेशनल राइफल शूटर हैं। वह लाइमलाइट में तब आयीं, जब उन्होंने 2002 के मैनचेस्टर राष्टकुल खेलों में 4 स्वर्ण पदक हासिल किए। सन् 2000 के सिडनी ओलंपिक में अंजलि भागवत दूसरी ऐसी महिला बनीं, जो किसी ओलंपिक के फाइनल में पहुंचीं। हालांकि यहां वह कोई पदक नहीं जीत पाईं और उनकी स्थिति सातवें नंबर की रही। देश में अंजलि को सन् 2000 में अर्जुन पुरस्कार और 2002-03 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार सम्मानित किया गया।
– साशा
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