मन में एक विचार उठा कि ऐसी क्या बात है, जो हमारे भारत और भारतवासियों को सारे विश्र्व से अलग करती है। वह है हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार, हमारी सदियों से चली आ रही परंपराएँ, जो आज तक जीवित हैं। हमारे पूर्वजों ने हमें प्रेम, करुणा, अहिंसा, भाईचारा, एकता विरासत में दी है। विश्र्व की दो असाधारण संस्कृति श्रमण और वैदिक ने यहीं पर जन्म लिया और अपने आध्यात्मिक ज्ञान और प्रकाश से इस भूमि को पल्लवित किया।
समय-समय पर मानव को राह दिखाने और पाप के अंधेरे को मिटाने के लिए यहॉं सैकड़ों महापुरुषों ने जन्म लिया है। भगवान महावीर, भगवान बुद्घ, श्री समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद ने अपने आध्यात्मिक तेज से सारे विश्र्व को आलोकित किया है।
हम इतिहास को देखें तो मुगल, तुगलक, मुसलमान, अंग्रेज, यूनानी आदि का उद्देश्य सिर्फ हम पर आामण करके शासन करना ही नहीं था, बल्कि ये हमारी संस्कृति को पूर्णतया मिटा देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई बार प्रयत्न भी किया।
हमारे मंदिर तोड़े, धर्म बदलने के लिए लोभ दिया, हमारे ऋषि-मुनियों को मारा। एक तरह से देखें तो इन आामणकारियों ने भारतीय संस्कृति को बहुत नुकसान पहुँचाया। लेकिन फिर भी वे इसे नहीं मिटा सके। हमारे पूर्वजों ने हमारी संस्कृति को बचाने के लिए बहुत संघर्ष किया। उन्होंने सिर कटाना ठीक समझा, लेकिन झुकाना नहीं। उन्होंने हमको संस्कारों और परंपराओं से परिपूर्ण किया, ताकि हमारा जीवन सुखमय हो सके।
परन्तु विडंबना देखिए कि आज हम अपनी ही संस्कृति और संस्कारों को भुलाते जा रहे हैं। जिस संस्कृति ने हमें विश्र्व के सामने ऊँचा किया, जिस संस्कृति ने हमारे भारत को विश्र्व गुरु का सम्मान दिलवाया, जिन संस्कारों ने हमें आत्मा से परमात्मा तक का मार्ग बताया, उसी को आज हम भुलाते जा रहे हैं। हम अपनी संस्कृति और संस्कारों को छोड़कर पश्र्चिमी संस्कृति और संस्कारों को बड़ी तेजी से अपनी जीवन-शैली में अपनाते जा रहे हैं। यह बात अच्छी नहीं है। हमें इस पर अंकुश लगाना होगा।
हमारी प्राचीन काल से ही परंपरा चली आ रही है कि गुरु और माता-पिता को प्रणाम करना, इसके पीछे भी एक महत्वपूर्ण कारण है। प्राचीन समय में कोई भी किसी कार्य के लिए जाता था, तो पहले अपने गुरु और माता-पिता का आशीर्वाद लेता था, जो उसका सुरक्षा-कवच बन जाता था। प्रणाम करने की प्रिाया में भी महत्वपूर्ण कारण है। गुरु और ज्ञानी पुरुष को इसलिए प्रणाम किया जाता है कि उनका ज्ञान व ऊर्जा प्रणाम के द्वारा हमारे शरीर में संचारित हो। इसलिए प्रणाम बायें पैर के अंगूठे में किया जाता है, क्योंकि शरीर की अधिक ऊर्जा वहॉं संग्रहित होती है। परन्तु आज इस प्रणाम करने के संस्कार को बहुतों ने भुला दिया है। उसकी जगह हाय, हैलो, गुडमॉर्निंग ने ले ली है।
दूसरा संस्कार है, हमारी भाषा। संस्कृत हमारी प्राचीन भाषा है। हमारी ही क्यों विश्र्व की सबसे प्राचीनतम भाषा है। कहते हैं, विश्र्व की सारी भाषाओं का उद्भव संस्कृत से हुआ है। हम-आप पश्र्चिमी भाषा अंग्रेजी को बड़ी तेजी से अपनाते जा रहे हैं। और तो और, स्वयं माता-पिता भी बच्चे को अंग्रेजी में बोलने के लिए कहते हैं। मैं मानता हूँ कि आज के समय में केवल अंग्रेजी ही नहीं बल्कि वे सारी भाषाएँ सीखनी चाहिए, जिनको हम ग्रहण कर सकें। लेकिन अपनी मातृभाषा, अपनी राष्टभाषा को छोड़कर हम अंग्रेजी अपनाएं, तो यह बात गलत होगी। कुछ लोग अंग्रेजी बोलने में अपने आपको गर्वित महसूस करते हैं। वे समझते हैं कि मैं अगर अंग्रेजी में बात करूँगा तो सामने वाला प्रभावित होगा। मेरे विचार से ये कोई ठीक माध्यम नहीं है, किसी को प्रभावित करने का। अगर हमें किसी को प्रभावित ही करना है तो हम अपने विवेक से प्रभावित से कर सकते हैं। ये कैसा गर्व है कि अपनी मातृभाषा को छोड़कर पश्र्चिमी भाषा को ज्यादा महत्व दें। हम विश्र्व के बाकी देशों को देखें तो क्या अमेरिकन हिन्दी भाषा अपने जीवन में अपनाते हैं? नहीं! क्योंकि वे लोग अपनी भाषा की शक्ति को जानते हैं। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। हमें अपनी मातृभाषा और राष्टभाषा का मूल्य समझना होगा।
हमारे बहुत पुराने संस्कार रहे हैं कि प्रातःकाल उठकर भजन सुनें और भजन गाएँ। क्योंकि इससे घर का वातावरण शुद्घ होता है, मन शुद्घ होता है। परन्तु आज ये बात गौण हो गई है। भगवान के भजनों की जगह पश्र्चिमी संगीत ने ले ली है। लोग आजकल भजन सुनने और गाने को भूल जाते हैं, लेकिन पश्र्चिमी संगीत की धुनों पर नाचना नहीं भूलते।
आखिर यह सब क्या कर रहे हैं हम। हम पश्र्चिमी संस्कृति और संस्कारों को अपने जीवन में अपनाते जा रहे हैं। ऐसा करना हमारे अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर सकता है। हमें जागना होगा। हमारे पूर्वजों ने हमें अच्छे संस्कार और संस्कृति विरासत में दी है, इस अमूल्य विरासत को हमें चिरकाल तक जीवित रखना होगा। हमें अपने बच्चों को सिखाना चाहिए कि वे अपनी संस्कृति और संस्कारों के प्रति हमेशा समर्पित रहें। हमेशा जागरूक रहें। कभी भी किसी दूसरी संस्कृति के सामने आकर्षित न हों, हमें अपने आने वाले भविष्य को संस्कारी और विवेकी बनाना होगा। ताकि एक संस्कारी सशक्त समाज का निर्माण हो सके। इसी में हमारा हित है, समाज का हित है और देश का हित है।
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