जल संकट देश ही नहीं, समूचे विश्र्व की गंभीर समस्या है। विशेषज्ञों की राय है कि वर्षा जल संरक्षण को बढ़ावा देकर गिरते भूजल स्तर को रोका जा सकता है और उचित जल-प्रबंधन से सबको शुद्घ पेयजल मुहैया कराया जा सकता है। उनका मानना है कि यही टिकाऊ विकास का आधार हो सकता है। इसमें दो राय नहीं कि जल संकट आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती होगी जिस पर गौर करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। स्थिति इतनी भयावह होगी जिसका मुकाबला कर पाना असंभव होगा। इसिलए ते़जी से कम होते भूजल को संरक्षित करने के लिए जल-प्रबंधन पर ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि भूजल पानी का महत्वपूर्ण स्रोत है और पृथ्वी पर होने वाली जलापूर्ति अधिकतर भूजल पर ही निर्भर है। लेकिन आज वह चाहे सरकारी मशीनरी हो, उद्योग हो, कृषि क्षेत्र हो या आम जन हो, सभी ने इसका इतना दोहन किया है कि हमारे सामने भूजल के लगातार गिरते स्तर के चलते जल संकट की भीषण समस्या आ खड़ी हुई है। पारिस्थितिकीय तंत्र के असंतुलन की भयावह स्थिति पैदा हो गई है। इससे देश में कहीं धरती फट रही है, कहीं जमीन अचानक तप रही है।
उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड, अवध, ब्रजक्षेत्र के आगरा की घटनाएं संकेत देती हैं कि भविष्य में स्थिति कितना विकराल रूप ले सकती है। वैज्ञानिकों व भूगर्भ विशेषज्ञों का मानना है कि बुंदेलखण्ड, अवध, कानपुर, हमीरपुर व इटावा में यह सब पानी के अत्यधिक दोहन, उसके रिचार्ज न होने के कारण जमीन की नमी खत्म होने, उसमें ज्यादा सूखापन आने, कहीं दूर लगातार हो रही भूगर्भीय हलचल की लहरों के यहां तक आने व आगरा में पानी में जैविक कूड़े से निकली मीथेन व दूसरी गैसों के इकट्ठा होने के कारण जमीन की सतह में अचानक गर्मी बढ़ जाने का परिणाम है। यह भयावह खतरे का संकेत है। पानी का अत्यधिक दोहन होता है तो जमीन के अंदर के पानी का उत्प्लावन बल कम होने या खत्म होने पर जमीन धंस जाती है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसे उसी स्थिति में रोका जा सकता है जबकि भूजल के उत्प्लावन बल को बरकरार रखा जाये। पानी समुचित मात्रा में रिचार्ज होता रहे, यह तभी संभव है जब ग्रामीण तथा शहरी दोनों जगह पानी का दोहन नियंत्रित हो, संरक्षण, भंडारण हो ताकि वह जमीन के अंदर प्रवेश कर सके।
जल के अत्यधिक दोहन के लिए कौन जिम्मेवार है, इस बारे में योजना आयोग के अनुसार भूजल का 80 फीसदी अधिकाधिक उपयोग कृषि क्षेत्र द्वारा होता है। इसे बढ़ाने में सरकार द्वारा बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी जिम्मेवार है। आयोग की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि यह सब्सिडी कम की जाये। वह इस रूप में दी जाये ताकि किसान भूजल का उचित उपयोग कर सकें। सब्सिडी के बदले किसान को निश्र्चित धनराशि नकद दी जाये। इससे भूजल का संरक्षण होगा तथा विद्युत क्षेत्र पर भी आर्थिक बोझ कम होगा। विश्र्व बैंक की मानें तो भूजल का सर्वाधिक 92 फीसदी उपयोग और सतही जल का 89 फीसदी उपयोग कृषि में होता है। 5 फीसदी भूजल व 2 फीसदी सतही जल उद्योग में, 3 फीसदी भूजल व 9 फीसदी सतही जल घरेलू उपयोग में लाया जाता है। आजादी के समय देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 5,000 क्यूबिक मीटर थी जबकि उस समय आबादी 40 करोड़ थी। यह कम होकर वर्ष 2000 में 2000 क्यूबिक मीटर रह गयी और आबादी 100 करोड़ मिलियन पार कर गई। 2025 में यह घटकर 1500 क्यूबिक मीटर रह जायेगी जबकि आबादी 139 करोड़ हो जायेगी। यह आंकड़ा 2050 तक 1000 क्यूबिक मीटर ही रह जायेगा और आबादी 160 करोड़ मिलियन पार कर जायेगी।
योजना आयोग के मुताबिक देश का 29 फीसदी इलाका पानी की समस्या से जूझ रहा है। वह भले जल संकट की सारी जिम्मेवारी कृषि क्षेत्र पर डाले लेकिन हकीकत यह है कि जल संकट गहराने में उद्योगों की अहम भूमिका है। असल में अधिकाधिक पानी फैक्टरियां ही पी रही हैं। विश्र्व बैंक का मानना है कि कई बार फैक्टरियां एक ही बार में उतना पानी जमीन से खींच लेती हैं जितना एक गांव पूरे महीने में भी न खींच पाये। ग्रामीण विकास मंत्रालय के संयुक्त सचिव ए. भट्टाचार्य कहते हैं कि कृषि जिस रफ्तार से जमीन से पानी लेती है, प्रकृति उसकी पूर्ति कर देती है। सेंटर फॉर साइंस एण्ड इनवायरमेंट की निदेशक सुनीता नारायण कहती हैं कि पानी ही देश के औद्योगिक प्रतिष्ठानों की रीढ़ है। यह खत्म हो गया तो सारा विकास धरा रह जायेगा। सवाल उठता है कि जिस देश में भूतल व सतही विभिन्न साधनों के माध्यम से पानी की उपलब्धता 23000 अरब घनमीटर है और जहॉं नदियों का जाल बिछा हो, सालाना औसत वर्षा 100 सेमी से भी अधिक होती है, जिससे 4000 अरब घनमीटर पानी मिलता हो, वहॉं पानी का अकाल क्यों है? असलियत यह है कि वर्षा से मिलने वाले जल में से 47 फीसदी पानी नदियों में चला जाता है। इसमें से 1132 अरब घनमीटर पानी उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन इसमें से 37 फीसदी उचित भंडारण-संरक्षण के अभाव में समुद्र में बेकार चला जाता है जो बचाया जा सकता है। इससे काफी हद तक पानी की समस्या का हल निकाला जा सकता है। वर्षा जल संरक्षण और उसका उचित प्रबंधन एकमात्र रास्ता है। यह तभी संभव है जब जोहड़ों, तालाबों के निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया जाये। पुराने तालाबों को पुनर्जीवित किया जाये। खेतों में सिंचाई हेतु पक्की नालियों का निर्माण किया जाये अथवा पीवीसी पाइप का उपयोग किया जाये। बहाव क्षेत्र में बांध बनाकर उसे इकट्ठा किया जाये ताकि वह समुद्र में बेकार न जा सके। बोरिंग-ट्यूबवेल पर नियंत्रण लगाया जाये, उन पर भारी कर लगाया जाये ताकि पानी की बर्बादी रोकी जा सके। नदी जोड़ने के स्थान पर भूजल संरक्षण व नियंत्रण के यथासंभव उपाय किये जायें, तभी पानी की समस्या का कारगर हल निकाल पाने में समर्थ होंगे।
जरूरी है, पानी की उपलब्धता के गणित को शासन व समाज समझे। हमारे प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि वास्तव में भूजल संरक्षण की खातिर देशव्यापी अभियान चलाया जाना अति आवश्यक है ताकि भूजल का समुचित विकास व नियमन सुचारु रूप से हो सके। गौरतलब है कि भूजल के 80 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल तो हम कर ही चुके हैं और इसके बाद भी उसका दोहन बराबर जारी है। हम यह नहीं सोचते कि जब यह नहीं मिलेगा, तब क्या होगा? इस चुनौती का सामना अकेले सरकार के बस की बात नहीं है। यह आम आदमी के सहयोग और जागरूकता से ही होगा। इसलिए हर स्तर पर संरक्षण की महती आवश्यकता है। भारतीय चिंतन में जल को जीवन का आधार माना गया है और इसी दृष्टिकोण के तहत इसे हमेशा से सहेजने की परंपरा रही है। विडम्बना यह है कि पानी के मामले में हमारी सरकार 1922 में रियो डि जेनेरियो में सम्पन्न “पृथ्वी दिवस’ पर दी गई चेतावनी कि “2025 में समूचे विश्र्व में पानी के लिए लड़ाइयां होंगी’ पर कतई ध्यान नहीं दे रहे हैं और “पानी का मसला राज्य का विषय है’ कह कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं जबकि राज्यों के नीति-नियंता समाज और जीवन के लिए सबसे आवश्यक तत्व समझे जाने वाले पानी की ओर से उदासीन हो, राजनीति में उलझे हुए हैं। इन हालात में न तो वर्षाजल संरक्षण और न पीने के पानी की समस्या का निदान संभव है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। हमें कोटा के उदाहरण से सबक लेना चहिए जिसके चलते आज वहॉं के परंपरागत जलस्रोत न केवल पुनर्जीवित हुए बल्कि वहॉं के लोगों के पीने के पानी की समस्या का भी हल संभव हो सका। यह सब वहॉं के समाज के जागरण और “रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ के जरिये ही संभव हो सका।
– ज्ञानेन्द्र रावत
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