ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन ने सुपर स्टोर द्वारा “एक खरीदो, एक मुफ्त पाओ’ के ऑफर को खाद्य पदार्थों की कमी के लिए दोषी ठहराया है। ब्रिटिश सरकार द्वारा कराये गये सर्वे में पाया गया कि प्रति वर्ष ब्रिटिश उपभोक्ता 10 अरब डॉलर के खाद्य पदार्थों की बर्बादी करते हैं। प्रति परिवार यह 33000 रुपये प्रति वर्ष बैठता है। खरीदे गये खाद्य पदार्थों में एक तिहाई बर्बाद होते हैं। इस अनावश्यक खरीद का एक कारण “एक खरीदो, एक मुफ्त पाओ’ जैसे ऑफर हैं। अतः इन पर प्रतिबंध लगाने की ब्राउन ने पेशकश की है। इसी ाम में आपने कार मालिकों को हिदायत दी है कि पेटोल से चलने वाली कार बेचकर हाईब्रिड कार खरीदें। हाईब्रिड कार में ब्रेक की ऊर्जा को बैटरी में संग्रह किया जाता है और इलेक्टिक मोटर के माध्यम से उसका ़जरूरत के अनुसार उपयोग किया जाता है। फलस्वरूप गाड़ी ज्यादा “एवरेज’ देती है।
इसी दिशा में कैथोलिक ईसाईयों के प्रमुख पोप बेनेडिक्ट ने कहा है कि इच्छाओं की पूर्ति से सुख नहीं मिलता है। असीमित भोग के कारण हमारे समुद्र तटों का क्षय हो रहा है, जंगल कट रहे हैं, पृथ्वी के खनिजों एवं समुद्री संसाधनों की बर्बादी और दुरुपयोग हो रहा है। सही जीवन शैली के अंतर्गत त्याग ़जरूरी है। इच्छाओं के दमन, मध्यम मार्ग के अनुुसरण एवं सीमित मात्रा में खपत से सुख मिलता है। पर्यावरण का हमें आदर करना चाहिए न कि मात्र उपभोग की वस्तु के रूप में उसका निरूपण करना चाहिए। प्रधानमंत्री ब्राउन एवं पोप बेनेडिक्ट दोनों एक ही भाषा बोलते दिख रहे हैं- बर्बादी और उपभोग कम करो और प्रकृति द्वारा दिये गये उपहारों का सीमित मात्रा में उपयोग करो। परन्तु दोनों की थ्योरी में मौलिक अंतर है।
गोर्डन ब्राउन मूल रूप से अधिकाधिक भोग और खपत के पक्षधर हैं। “मनी वीक’ वेबसाइट पर कहा गया है कि सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के प्रथम कार्यकाल में वैश्र्विक ब्याज दरें घट रही थीं, प्रॉपर्टी के मूल्य बढ़ रहे थे और ऋण लेकर खपत भारी मात्रा में हो रही थी। ऋण लेकर अधिकाधिक खपत को प्रोत्साहन दिया जा रहा था। न्यू वर्कर्स फीचर्स वेबसाइट पर किसी वामपंथी आलोचक द्वारा कहा गया है कि “बैंकों ने उपभोक्ताओं को अपनी पूर्ण सीमा तक ऋण लेने के लिए प्रोत्साहन दिया। खर्च करने को सरकार “सुखद अनुभव’ के रूप में प्रस्तुत कर रही है। आज के युग में हमारी पहचान वस्तुओं से होती है, जैसे नये फैशन के कपड़े, फर्नीचर और घर की सजावट इत्यादि से।’ वेबसाइट द्वारा आरोप लगाया गया है कि “प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन का आर्थिक चमत्कार पूर्णतया उपभोक्ताओं द्वारा अधिक खर्च किये जाने पर आश्रित है।’ स्पष्ट होता है कि गोर्डन ब्राउन खपत को अधिकाधिक बढ़ाना चाहते हैं। उनकी आपत्ति मात्र इतनी है कि सच्ची खपत होनी चाहिए। “एक खरीदो, एक पाओ’ के ऑफर से हो रही बर्बादी को वह सच्ची खपत में परिवर्तित करना चाहते हैं।
पोप बेनेडिक्ट का चिन्तन भिन्न है। आपका कहना है कि सच्चा सुख इच्छाओं की असीमित पूर्ति से नहीं बल्कि इच्छाओं के दमन एवं भोग के त्याग से पाया जाता है। पोप के अनुसार सुख को भोग द्वारा परिभाषित नहीं करना चाहिए जबकि गोर्डन ब्राउन के अनुसार सुख का मापदंड भोग ही है। मैं समझता हूँ कि पोप की बात सच्ची है। यदि हम सुख को भोग द्वारा परिभाषित करेंगे तो मनुष्य और प्रकृति में सामंजस्य स्थापित करना संभव नहीं है। मान लीजिये, सामान्य कार एक लीटर में 15 किलोमीटर चलती है जबकि हाईब्रिड 25 किलोमीटर। प्रथम दृष्टया प्रतीत होता है कि हाईब्रिड कार के उपयोग से तेल की खपत कम होगी और मनुष्य का प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव कम होगा। परन्तु वह तेल की खपत कम करने के स्थान पर यात्रा अधिक करेगा क्योंकि भोग करना ही उसके जीवन का लक्ष्य है। जो व्यक्ति सामान्य कार को माह में 1000 किलोमीटर दौड़ाता था वह हाईब्रिड कार को 2000 किलोमीटर दौड़ायेगा। अंततः तेल की खपत बढ़ेगी और प्रकृति का संतुलन बिगड़ता ही जाएगा। आलीशान “माल’ में सैकड़ों सीएफएल बल्ब लगे होते हैं। इस तरह की खपत से ऊर्जा की बचत कैसे होगी?
प्रकृति के पास संसाधन सीमित हैं जबकि मनुष्य के पास खपत असीमित है। “एक खरीदो, एक मुफ्त पाओ’ के ऑफर पर पाबंदी लगाने से बर्बादी कम हो सकती है परन्तु बची हुई वस्तुओं का उपयोग दूसरे रूप में किया जाएगा, जैसे बायोडीजल बनाया जाएगा। अंततः मनुष्य प्रकृति का अधिक दोहन करेगा, जैसे गंगा के संपूर्ण 300 किलोमीटर के पहाड़ी बहाव को उत्तराखंड सरकार हाईडोपावर के उत्पादन के लिए बांध देना चाहती है। इस कार्य में पहाड़ की अत्यधिक ब्लास्ंिटग के घाव का बदला प्रकृति कैसे लेगी, यह प्रकृति ही तय करेगी। मेरी समझ से मनुष्य को अंततः पोप के फार्मूले को अपनाना पड़ेगा। सुख की ऐसी परिभाषा करनी पड़ेगी कि मनुष्य की खपत ही कम हो तथा प्रकृति के साथ द्वंद्व समाप्त हो।
इस सुनहरे दृश्य को स्थापित करने में अर्थशास्त्र आड़े आता है। आधुनिक अर्थशास्त्र का आधार स्तंभ “यूटिलिटी’ अथवा उपयोगिता है। मान्यता है कि खपत में वृद्घि से सुख बढ़ता है। मान लीजिये व्यक्ति एक केला खाता है तो उसे 10 यूनिट सुख मिलता है। यदि वह दो केले खायेगा तो उसे 15 या 20 यूनिट और तीन केले खायेगा तो 25 या 30 यूनिट सुख मिलेगा। यह बात प्रत्यक्ष अनुभव में भी आती है। गरीब लोगों में कम ही सुखी दिखते हैं- शराब, जुआ, औरतों की पिटाई जैसी कुरीतियां ज्यादा दिखती हैं। अतः हमारे सामने दो परस्पर विरोधी सिद्घांत उपलब्ध हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र और गोर्डन ब्राउन कहते हैं कि खपत से सुख बढ़ता है जबकि पोप कह रहे हैं कि त्याग एवं सीमित खपत से सुख मिलता है।
इस द्वंद्व का हल निकालना है। मेरी समझ से अर्थशास्त्र की सुख की परिभाषा में परिवर्तन करना होगा। सुख को इच्छा एवं खपत के अंतर के रूप में परिभाषित करें तो बात बन जाती है। देखा जाता है कि अमीरों के पास सारी सुख-सुविधा और भोग उपलब्ध होने के बावजूद वे अकसर दुःखी रहते हैं। इससे प्रामाणित होता है कि भोग से सुख में वृद्घि होना ़जरूरी नहीं है। जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, मेरे पिताजी ने मुझे मोटरसाइकिल दिला दी। मुझे सुख मिला। किन्तु दूसरे सहपाठियों के पास कार थी। मेरी इच्छा भी कार प्राप्त करने की हुई परन्तु कार प्राप्त न होने से मोटरसाइकिल ने मुझे सुख देना बंद कर दिया। भोग में वृद्घि से सुख तभी मिलता है जब इच्छाओं में वृद्घि न हो। इच्छाओं में वृद्घि होने से खपत के बावजूद सुख में गिरावट आ सकती है, जैसे कार की इच्छा उत्पन्न होने से मोटरसाइकिल ने सुख नहीं दिया।
आधुनिक अर्थशास्त्र की सोच एकतरफा है। इसमें इच्छाओं को नजरअंदाज किया जाता है और एकमात्र भोग को केंद्र मानकर उसकी वृद्घि को सुख के रूप में परिभाषित किया जाता है। सुख को इच्छाओं एवं त्याग से जोड़ते हुए नया अर्थशास्त्र लिखने की ़जरूरत है। इच्छाओं की वृद्घि करने वाले एडवर्टाइजमेंट एवं टीवी धारावाहिक पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। तब ही मनुष्य सुखी होगा और प्रकृति का स्नेह भी पायेगा।
– डॉ. भरत झुनझुनवाला
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