मंडराते रहे हैं विवादों के साये

ओलंपिक खेल भले ही दुनिया में भाईचारा बढ़ाने का, विभिन्न देशों के बीच आपसी रिश्ते सौहार्दपूर्ण बनाने-बढ़ाने का आह्वान करते हों। लेकिन इतिहास गवाह है कि मौके-बेमौके ये सियासी दांव-पेंच, कूटनीतिक मोर्चाबंदी तथा अन्य कई तरह से विवादों में घिरते रहे हैं। एक नहीं कई बार इन पर विवादों की छाया गहराई है। सच तो यह है कि छिटपुट स्तर के विवाद सभी ओलंपिक आयोजनों में दिखते रहे हैं। लेकिन पहली बार जबरदस्त विवादों के घेरे में 1936 का बर्लिन ओलंपिक फंसा। जब एडोल्फ हिटलर ने अपनी यह मान्यता स्थापित करने की कोशिश की कि सिर्फ जर्मन ही सर्वश्रेष्ठ नस्ल के हैं।

इस “सुपर रेस थ्योरी’ या नस्ली श्रेष्ठता ने 1936 के बर्लिन ओलंपिक को विवादों के घेरे में डाल दिया। हालांकि इस ओलंपिक में जर्मनों ने काफी ज्यादा पदक जीते। लेकिन एथलेटिक्स में वह अश्र्वेत अमेरिकियों के सामने नहीं टिक सके। जे.सी. ओवेंस ने इसी ओलंपिक में 4 स्वर्ण पदक जीते और अपनी इस जीत के साथ साबित कर दिया कि सभी नस्लें बराबर की श्रेष्ठ होती हैं। यह ओलंपिक इसलिए भी विवादास्पद रहा, क्योंकि इसके शुरू होने के पहले ही हिटलर ने कुछ ऐसा माहौल बनाया, जिसमें यहूदियों के प्रति घृणा को महसूस किया जा सकता था। बर्लिन ओलंपिक के पहले ही “ज्युइस नॉट वान्टेड’ के स्लोगन पूरे जर्मनी में दिखने लगे, जो खुल्लम-खुल्ला फासीवाद का प्रतीक थे। हिटलर ओलंपिक खेलों के शुरू होने के पहले बर्लिन को साफ-सुथरा देखना चाहता था। इसलिए उसने जर्मन पुलिस के मुखिया को यह अधिकार दिया कि सभी घुमंतू (जिप्सी) लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाए और उन्हें एक खास कैंप में रखा जाए। वास्तव में हिटलर ने इन खेलों का इस्तेमाल दुनिया को अपनी तानाशाही दिखाने के लिए भी किया। इसलिए इतिहास में बर्लिन ओलंपिक विवादास्पद ओलंपिक खेलों के रूप में दर्ज है।

बर्लिन में जब जे.सी. ओवेंस ने 100 मीटर की दौड़ जीती तो हिटलर ने उनसे मिलने से इन्कार कर दिया। हालांकि ठीक उसी समय उसने तमाम दूसरे स्वर्ण-पदक विजेताओं से हाथ मिलाया था और उनका स्वागत किया था। लेकिन जे.सी. ओवेंस को अश्र्वेत होने का खामियाजा भुगतना पड़ा। हिटलर ने उनकी अनदेखी करके उनका अपमान किया। लेकिन जे.सी. ओवेंस के साथ यह अपमानजनक व्यवहार सिर्फ तानाशाह हिटलर ने ही नहीं किया, बल्कि उनके अपने राष्टपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट ने भी यही किया। उन्होंने कभी भी जे.सी. ओवेंस की इस उपलब्धि का वैसा स्वागत नहीं किया जैसा करना चाहिए था। इसकी वजह सिर्फ और सिर्फ जे.सी. ओवेंस का अश्र्वेत होना ही था।

ओलंपिक के इतिहास में एक शंका का विवाद फिनलैंड के खिलाड़ी लासे विरेन के डोपिंग की आशंका का भी रहा है। गौरतलब है कि लासे विरेन ने 1972 और 1976 में 5,000 व 10,000 मीटर की दौड़ जीती थी। हालांकि यह कभी भी सिद्घ नहीं हुआ, मगर कुछ लोग आशंकित थे कि लासे विरेन ने कुछ ऐसी अवैध स्टेमिना बढ़ाने वाली दवाइयों का इस्तेमाल किया था, जिन्होंने उसे विजेता बनाया। मगर तब तक ब्लड सैंपल के जरिए इसकी जांच की कोई कारगर व्यवस्था नहीं थी। कुछ खिलाड़ी उन दिनों बड़ी प्रतियोगिताओं के हफ्ते-15 दिन पहले शरीर में खून भी चढ़वाया करते थे, फिर उसे निकलवा देते थे। दरअसल, इन दिनों तक इस तरह की गतिविधियां अवैध नहीं थीं। माना जाता है कि लासे विरेन ने किसी तरकीब से शरीर के अंदर ऑक्सीजन की मात्रा बढ़वाकर अतिरिक्त ऊर्जा और ताकत हासिल की थी, लेकिन यह कभी साबित नहीं हुआ।

विवादास्पद ओलंपिक खेलों की सूची में 1968 का मेक्सिको ओलंपिक भी आता है। मेक्सिको ओलंपिक में विवादों की शुरूआत खेलों के लिए मेक्सिको सिटी के चयन के साथ ही शुरू हो गई थी। मेक्सिको सिटी समुद्र तल से 2286 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जिसका मतलब है सामान्य जगह के मुकाबले यहां 30 फीसदी ऑक्सीजन का कम होना। ज्यादातर देशों को चिंता थी कि उनके खिलाड़ी ऑक्सीजन की कमी से परेशान होंगे, जिससे उनके प्रदर्शन में गिरावट आएगी। लेकिन विवाद सिर्फ एक ही नहीं था। इंटरनेशनल ओलंपिक काउंसिल ने भी विवादों की इस फेहरिस्त में अपना योगदान दिया। जब उसने दक्षिण अफ्रीका से प्रतिबंध उठा लिया। गौरतलब है कि तब तक दक्षिण अफ्रीकी शासकों के रंगभेदी आचरण के कारण दक्षिण अफ्रीका पर ओलंपिक में हिस्सा लेने के लिए प्रतिबंध लगा दिया था। इससे दक्षिण अफ्रीका अलग-थलग पड़ गया था। लेकिन जब आईओसी ने दक्षिण अफ्रीका पर से प्रतिबंध उठाया तो अश्र्वेत खिलाड़ी हीनबोध का शिकार हो गए। अंततः आईओसी को मजबूर होकर दक्षिण अफ्रीका पर लगा प्रतिबंध जारी रखना पड़ा। क्योंकि 40 देशों ने धमकी दे दी थी कि अगर दक्षिण अफ्रीका को इन खेलों में शामिल होने की इजाजत दी गई तो वह इन खेलों का बहिष्कार करेंगे।

ओलंपिक शुरू होने के 10 दिन पहले मेक्सिको सिटी के विभिन्न हिस्सों में छात्रों ने आंदोलन छेड़ दिए। हालांकि इस तरह के आंदोलन पहले से ही जारी थे। लेकिन किसी को उम्मीद नहीं थी कि अहम मौके पर छात्र अपने आंदोलन में सफल हो जाएंगे। लेकिन ऐसा ही हुआ। तब मजबूर होकर सरकार को बड़े पैमाने पर सेना की तैनाती करनी पड़ी और सैनिकों ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग की। इस फायरिंग में 250 से ज्यादा लोग मारे गए, जो निहत्थे थे। तब पूरी दुनियाभर में यह माहौल बन गया कि ओलंपिक समारोह की पूर्व संध्या पर इतने बड़े नरसंहार के बाद ओलंपिक खेलों को रद्द कर दिया जाना चाहिए। पर, ऐसा हो न सका।

ये ओलंपिक इस मामले में भी दुनिया का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे कि अश्र्वेत अमेरिका में भी दूसरे दर्जे के ही नागरिक माने जाते हैं। इस ओलंपिक में तब एक और विवाद खड़ा हो गया, जब अमेरिकी एथलीट स्मिथ ने 200 मीटर की दौड़ जीती, ऑस्टेलिया के श्र्वेत पीटर नॉरमन को हराकर। इस दौड़ में अमेरिका के दूसरे अश्र्वेत कार्लोस तीसरे स्थान पर रहे। जब तीनों खिलाड़ी पदक लेने के लिए पोडियम पर पहुंचे, तो दोनों अमेरिकी खिलाड़ी नंगे पैर थे। उनके पैरों में काले मोजे थे, जो उनकी गरीबी का प्रतीक थे। स्मिथ ने एक काला स्कार्फ अपनी गर्दन के इर्द-गिर्द बांध रखा था, जो अश्र्वेत स्वाभिमान का प्रतीक था। दोनों अश्र्वेत अमेरिकी खिलाड़ियों ने अपने एक-एक हाथ में काले ग्लब्स भी पहन रखे थे। जब अमेरिकी राष्टगान शुरू हुआ तो दोनों अश्र्वेत खिलाड़ियों ने हवा में मुक्का ताना। यह तस्वीर अगले दिन अखबारों के पहले पेज पर छपी, जो अमेरिका के अंदर अश्र्वेतों के साथ गैरबराबरी और नाइंसाफी का आईना थी।

1972 के म्युनिख ओलंपिक को “ब्लैक सेप्टेंबर’ के रूप में याद करते हैं। क्योंकि 1936 में नाजी मेजबानी के बाद जर्मनी में होने वाले ये दूसरे ओलंपिक खेल थे। इजराइली खिलाड़ी और उनके कई प्रशिक्षक इसको लेकर काफी नर्वस थे। दरअसल म्युनिख जाने वाले खिलाड़ियों व प्रशिक्षकों में कुछ ऐसे भी शामिल थे, जिनके मां-बाप या किसी परिजन का जर्मनी में कत्ल किया गया था। इस बार के ओलंपिक खेल में पहले कुछ दिन सब कुछ ठीक-ठाक चला। लेकिन 5 सितम्बर, 1972 की सुबह फिलिस्तीनी आतंकवादी संगठन ब्लैक सेप्टेंबर के 8 आतंकवादी ओलंपिक खेलगांव में घुस आए। उन्होंने उस इमारत में धावा बोला जहां इजराइली खिलाड़ी ठहरे हुए थे और 2 इजराइली खिलाड़ियों को मार डाला व 9 को बंधक बना लिया।

आतंकवादी बंधक बनाए गए, जो इजराइली खिलाड़ियों को अपने साथ ले जाना चाहते थे। लेकिन जर्मन अधिकारियों ने तय किया कि वह ऐसा नहीं करने देंगे और इजराइली खिलाड़ियों को छुड़ाने के लिए जर्मन सुरक्षाबलों ने धावा बोल दिया। दुर्भाग्य से यह प्रयास असफल गया और आतंकवादियों ने बंधक बनाए गए सभी इजराइली खिलाड़ियों को मौत के घाट उतार दिया। शूटआउट के दौरान 8 में से 5 आतंकवादी भी मारे गए और 3 गिरफ्तार किए गए। इसके बाद इस दिन (5 सितंबर) को ओलंपिक खेल रद्द कर दिए गए और दूसरे दिन ओलंपिक स्टेडियम में मारे गए इजराइली खिलाड़ियों की याद में शोक-सभा आयोजित की गई। मगर म्युनिख ओलंपिक आयोजन रद्द नहीं किया गया। हालांकि पहली प्रतििाया खेलों के रद्द किए जाने से संबंधित ही थी, लेकिन फिर यह तय हुआ कि अगर खेल रद्द किए गए तो आतंकवादी अपने मंसूबे पर सफल साबित होंगे। इस वजह से खेलों को जारी रखा गया।

विवादास्पद खेलों की इस फेहरिस्त में 1976 का मांटियल ओलंपिक भी शामिल है। इस 21वें ओलंपिक खेलों में 25 अफ्रीकी देशों ने बहिष्कार किया। वास्तव में ये देश न्यूजीलैंड के दक्षिण अफ्रीका के साथ खेल संबंधों के विरूद्घ प्रदर्शन कर रहे थे। अफ्रीकी देश चाहते थे कि इंटरनेशनल ओलंपिक काउंसिल न्यूजीलैंड पर पाबंदी लगा दे, जिसकी रग्बी टीम दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर गई थी। लेकिन आईओसी ने ऐसा नहीं किया। अफ्रीकी देशों का मानना था कि न्यूजीलैंड द्वारा अपनी रग्बी टीम दक्षिण अफ्रीका भेजा जाना रंगभेद नीति का समर्थन था।

1972 के ओलंपिक में विवाद तब खड़ा हो गया, जब अमेरिकी बास्केट-बॉल टीम ने रजत-पदक लेने से इन्कार कर दिया। अमेरिकी बास्केट-बॉल टीम 62 ओलंपिक प्रतियोगिताओं से अपराजेय रही थी। लेकिन 1972 में युवा खिलाड़ियों से सजी अमेरिकी टीम अपने चिर-परिचित प्रतिद्वंदी देश सोवियत संघ (रूस) से हार गई। लेकिन अमेरिकी यह मानने को तैयार नहीं थे कि वह हारे हैं। उनके मुताबिक उन्होंने 2 बार विजयी अंक हासिल किए। लेकिन रेफरी ने उन्हें यह अंक नहीं दिया और हर बार अतिरिक्त समय दिया, जिससे अंततः सोवियत संघ विजयी हो गया। अमेरिकी खिलाड़ियों का मानना था कि सोवियत संघ रेफरी की बेइमानी से जीता है। इसके लिए अमेरिकी ने इंटरनेशनल बास्केट-बॉल फेडरेशन के पास अपना औपचारिक विरोध भी दर्ज कराया। लेकिन उसी दिन दोपहर बाद 5 जजों के पैनल ने अमेरिका के आरोपों को दरकिनार करते हुए, सोवियत संघ को विजयी घोषित किया। जिसके विरोध में अमेरिकी खिलाड़ियों ने रजत-पदक लेने से इन्कार कर दिया।

ओलंपिक खेलों के बायकॉट का सिलसिला किसी न किसी वजह से चलता ही रहा है। 1980 में अमेरिका ने मास्को ओलंपिक खेलों का बहिष्कार कर दिया। हालांकि ओलंपिक खेलों को राजनीति से ऊपर समझा जाता है, लेकिन अमेरिका ने सोवियत संघ द्वारा सन् 1979 में अफगानिस्तान पर किए गए हमले के मद्देनजर इन खेलों का बहिष्कार कर दिया। अमेरिकी राष्टपति जिमी कार्टर ने सोवियत संघ को चेतावनी दी कि अगर सोवियत सैनिक अफगानिस्तान से वापस नहीं जाते तो अमेरिका मास्को ओलंपिक का बहिष्कार करेगा। अंततः अमेरिका अपनी धमकी पर अटल रहा और 21 मार्च, 1980 को औपचारिक रूप से मास्को ओलंपिक के बहिष्कार का फैसला कर लिया। अकेले अमेरिका ने ही ऐसा नहीं किया। उसके साथ जापान, पश्र्चिमी जर्मनी, फिलीपीन्स और कनाडा ने इन खेलों का बहिष्कार किया। इंग्लैंड फ्रांस और यूनान ने भी इस बायकॉट का समर्थन किया। लेकिन अपने खिलाड़ियों को छूट दी कि वह अगर इच्छुक हों, तो इन खेलों में हिस्सा ले सकते हैं। लेकिन इन बहिष्कारों से मॉस्को ओलंपिक खेलों की चमक मद्घिम नहीं पड़ी। मास्को ओलंपिक में सिर्फ 81 देशों ने भाग लिया, लेकिन उसमें 1976 के मांटियल ओलंपिक से ज्यादा विश्र्व रिकॉर्ड बने।

अमेरिका की इस हरकत का सोवियत संघ ने भी उसी की शैली में जवाब दिया और लॉस एंजेल्स ओलंपिक 1984 के शुरू होने के महज 12 हफ्ते पहले घोषणा कर दी कि वह इन खेलों का बहिष्कार करेगा। सोवियत संघ ने अमेरिका पर खेलों के राजनीतिक इस्तेमाल का आरोप लगाया। साथ ही यह भी कहा कि अमेरिका सोवियत खिलाड़ियों को जरूरी सुरक्षा नहीं मुहैया कराना चाहता और ओलंपिक खेलों के दौरान सोवियत संघ के विरूद्घ राजनीतिक प्रोपेगंडा कर रहा है। सोवियत संघ के इस बहिष्कार में रोमानिया, समूचा पूर्वी यूरोप और क्यूबा भी शामिल हुए। हालांकि फिर भी इन खेलों में 140 देशों ने हिस्सा लिया जो कि एक रिकॉर्ड था। मगर इन खेलों का स्तर मास्को ओलंपिक से बेहतर नहीं था।

हालांकि 8 अगस्त अर्थात आज से शुरू होने जा रहे बीजिंग ओलंपिक के बहिष्कार की किसी देश ने घोषणा नहीं की। लेकिन बीजिंग ओलंपिक भी विवाद की छाया से बच नहीं सका। चीन की मंशा है कि वह ओलंपिक खेलों की मेजबानी का इस्तेमाल चीन को एक महाशक्ति की तरह दुनिया के सामने प्रस्तुत करने के लिए करे। मगर कुछ लोगों का मानना है कि चीन की सरकार ने अपनी इस मंशा के प्रदर्शन के लिए लाखों चीनीयों को अपने घरों से बेदखल किया है ताकि बड़े-बड़े, भव्य और दुनिया का ध्यान आकर्षित करने वाले निर्माण संभव हो सकें। यही नहीं, चीन पर मानवाधिकारों के हनन का भी आरोप लगाया गया है। तिब्बत में इसके लिए जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए हैं और 2008 ओलंपिक मशाल दौड़ को बाधित करने की हर संभव तिब्बतियों द्वारा पूरी दुनिया में कोशिश की गई है। लेकिन चीन ने अपनी कूटनीति और आर्थिक महाशक्ति होने के चलते अपने विरोधियों के इन तमाम षड्यंत्रों पर काबू पा लिया है, इसलिए उम्मीद यही है कि बीजिंग ओलंपिक शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हो जाएगा।

– साशा

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