अंतर्राष्टीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं द्वारा कहा जा रहा है कि तेल के मूल्यों में भारी वृद्घि विश्र्व अर्थव्यवस्था के लिए खतरा है। यह बात भ्रामक है। वास्तव में यह मूल्य वृद्घि भारत समेत दूसरे विकासशील देशों के लिए लाभकारी है। विश्र्व अर्थव्यवस्था को एक परिवार सरीखा समझें। मान लीजिए, परिवार का कर्ता बच्चों को बगीचे की सफाई जैसे घरेलू कार्य करने के लिए एक दिन का 25 रुपया अदा करता है। यदि इस भुगतान को बढ़ाकर 50 रुपया कर दिया जाए तो परिवार की कुल आय में अंतर नहीं पड़ेगा। कर्ता की आय 25 रुपये कम हो जाएगी और बच्चों की आय 25 रुपये बढ़ जाएगी। परिवार की कुल आय पूर्ववत रहेगी। इसी तरह अमेरिका द्वारा सउदी अरब को तेल के लिए अधिक भुगतान करने से विश्र्व आय पूर्ववत् रहती है। अंतर यह पड़ता है कि निर्यातक देशों की आय में वृद्घि होती है और आयातक देशों की आय में गिरावट आती है।
इतना है कि वर्तमान में पश्र्चिमी आयातक देशों की मुद्राओं की कीमत उनकी वास्तविक ाय शक्ति से अधिक है जबकि विकासशील देशों की कम है। मान लीजिए, कर्ता की आय चांदी के सिक्कों के बराबर आंकी जाती है जबकि बच्चों की आय साधारण गिलट के सिक्कों के बराबर। ऐसे में कर्ता द्वारा बच्चों को 25 अतिरिक्त रुपये देने से परिवार की आय कम हो जाएगी- परिवार की आय में 25 चांदी के सिक्कों की गिरावट होगी एवं 25 गिलट के सिक्कों की वृद्घि होगी। इसी प्रकार अमेरिका की आय में गिरावट एवं भारत की आय में समानान्तर वृद्घि के बावजूद विश्र्व की आय में गिरावट आ सकती है। परंतु ऐसा आकलन फर्जी है। चूंकि कर्ता द्वारा दिए गए चांदी के सिक्के बच्चों के हाथ में आने पर गिलट के नहीं हो जाएंगे। इसी तरह पश्र्चिमी देशों द्वारा अदा की गई रकम निर्यातक देशों के हाथ में आने पर कम नहीं हो जाएगी।
सत्तर एवं अस्सी के दशक में इसी प्रकार तेल के मूल्य में वृद्घि हुई थी। उस समय अमेरिका जैसे तेल आयातक देशों पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ा था। कारण यह रहा कि तेल निर्यातक देशों ने अपनी आय को वापस अमेरिका के बैंकों में जमा करा दिया था। यूं समझें कि बच्चा यदि मिले हुए अतिरिक्त 25 रुपयों को कर्ता के पास जमा करा दे तो कर्ता की आय में कोई अंतर नहीं पड़ेगा। उसके हाथ में धन की उपलब्धि पूर्ववत रहेगी। बाएं हाथ से बच्चे को घास काटने के लिए दिए गए 25 रुपयों को दाहिने हाथ द्वारा बच्चे से जमा राशि के रूप में उसे वापस मिल जाएंगे। अथवा यूं समझें कि कर्ता के खाते में 2 रुपये का भुगतान प्रॉफिट एंड लॉस खाते में किया जाएगा और 25 रुपये की प्राप्ति बैलेन्स शीट में जमा कर ली जाएगी। इसी प्रकार अमेरिका ने एक करोड़ डॉलर का अतिरिक्त भुगतान प्रॉफिट एंड लॉस खाते से किया तथा एक करोड़ डॉलर की प्राप्ति बैलेंस शीट में कर ली। इस कारण पूर्व में तेल की मूल्य वृद्घि का पश्र्चिमी आयातक देशों पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ा था।
वर्तमान में स्थिति बदल गई है। तेल निर्यातक देश इस समय अपनी आय को अमेरिका में कम ही जमा करा रहे हैं चूंकि डॉलर टूट रहा है। फाइनेंशियल टाइम्स में मार्च, 2008 में “पेटो-डॉलर सुनामी से यूरो एवं डॉलर पर प्रहार’ नाम से छपे लेख में कहा गया है, “अधिकतर तेल निर्यातक देशों का रुझान शेयरों में निवेश की ओर है।’ हमारा अनुमान है कि विकासशील देशों का पेटो-डॉलर के बहाव में हिस्सा 25 प्रतिशत तक हो सकता है जबकि वर्तमान में यह शून्य है। आरजीई इकानोमानीटर वेबसाइट पर अप्रैल, 2008 में लगाए गए “पेटो-डॉलर रीसाइक्ंिलग’ नाम के लेख में कहा गया है, “अंतर्राष्टीय मुद्राकोष द्वारा किए गए विश्र्लेषण में अनुमान लगाया गया है कि तेल निर्यातक देशों की जमा राशि का आधा हिस्सा अंततः इमर्जिंग अर्थव्यवस्थाओं को गया है और इसका आधा पूर्वी यूरोप को गया है। रूस, नाइजीरिया एवं लीबिया के द्वारा विदेशों में भारी राशि निवेश की गई है। इमर्जिंग अर्थव्यवस्थाओं का हिस्सा इसमें ज्यादा है।’ इन वक्तव्यों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि तेल निर्यातक देश अपनी आय का बड़ा हिस्सा भारत, चीन एवं दूसरी उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं में जमा करा रहे हैं। इतनी ही मात्रा में अमेरिका, यूरोप एवं जापान को यह पूंजी मिलनी बंद हो गई है।
विकसित देशों के समक्ष आज संकट गहरा है। उन्हें तेल के लिए अधिक रकम अदा करनी पड़ रही है और उनकी अर्थव्यवस्थाएं दबाव में हैं। अमेरिकी डॉलर, ब्रिटिश पाउंड और जापानी येन सभी दबाव में हैं। इसके विपरीत चीनी युआन एवं भारतीय रुपया उछल रहा है और इन देशों की आर्थिक विकास दर 8-10 प्रतिशत की ऊँचाई पर है। पिछले दो माह में रुपए के मूल्य में आई गिरावट अल्पकालीन होगी, ऐसा मेरा मानना है। यह परिस्थिति विकसित देशों के लिए कठिन एवं चीन एवं भारत के लिए सुखद है। भारत के लिए तेल की मूल्यवृद्घि विशेषकर लाभप्रद है। सउदी अरब एवं दुबई अपनी आय के बड़े हिस्से का निवेश विकास योजनाओं में कर रहे हैं, जैसे समुद्र के पानी को साफ करके पीने लायक बनाना, समुद्र में कृत्रिम द्वीप बनाना अथवा शीशे के विशाल एयरकंडीशन्ड शॉपिंग मॉल बनाना। इन योजनाओं के लिए मॉल एवं श्रम का इन देशों को आयात करना पड़ता है। इस मॉंग की पूर्ति का खासा हिस्सा भारत से हो रहा है। भारतीय श्रमिकों द्वारा पिछले वर्ष 21 अरब डॉलर की रेमिटेन्स भेजी गई। यह रकम ऐसी विकास योजनाओं में कार्यरत भारतीय श्रमिकों द्वारा ही भेजी गई है।
विकसित देशों के लिए तेल की वर्तमान मूल्य वृद्घि पूर्णतया घाटे का सौदा है। उन्हें तेल के लिए भारी रकम अदा करनी पड़ रही है। यह रकम पूर्व की तरह वापस न्यूयार्क में वापस नहीं आ रही है। विकास योजनाओं के ठेके भी अमेरिकी कंपनियों को कम ही मिल रहे हैं, चूंकि उनका माल महंगा है। भारत के लिए वर्तमान मूल्य वृद्घि आंशिक रूप से ही नुकसानेदह है। हमें तेल के ऊँचे मूल्य अवश्य अदा करने पड़ रहे हैं जो कि हमारे लिए उतना ही नुकसानदेह है जितना कि विकसित देशों के लिए। परंतु इस नुकसान की भरपाई दो स्रोतों से हो रही है। पेटो-डॉलर के प्रवाह का एक अंश भारत को पहुँच रहा है। हमारे प्रॉपर्टी एवं शेयर बाजार के उछाल में इस प्रवाह का विशेष योगदान है। अरब देशों की विकास योजनाओं में कार्यरत भारतीय आप्रवासियों द्वारा रेमिटेन्स भेजी जा रही है। भारतीय कंपनियों द्वारा इन विकास योजनाओं के ठेके लिए जा रहे हैं। तेल की वर्तमान मूल्य वृद्घि के चार प्रकार के देशों पर अलग-अलग प्रभाव को समझना चाहिए। विकसित आयातक देशों के लिए यह पूर्णतया हानिकारक है। विकासशील आयातक देशों के लिए भी यह हानिकारक है। परंतु विकासशील, उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं एवं विकासशील निर्यातक देशों के लिए यह लाभप्रद है। सभी विकासशील देशों को समग्र रूप से देखा जाए तो मूल्य वृद्घि उनके लिए लाभप्रद है। अंतर्राष्टीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं मूल्य वृद्घि के हानिकारिक होने का भ्रम इसलिए फैला रही हैं कि यह विकसित देशों के लिए हानिकारक है।
– डॉ. भरत झुनझुनवाला
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