महाभियोग नहीं है सही रास्ता

न्याय होना भी चाहिए और होता हुआ दिखायी भी देना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि बहुत सी अदालतें भ्रष्टाचार का केन्द्र बनकर रह गई हैं। हद तो यह है कि अवाम ऐसी अदालतों को न्याय का मंदिर समझने की बजाय अ द अ ल त (आजा देजा और लेजा तारीख) कहने लगी है। अदालतों में भ्रष्टाचार पर अंकुश न लगने की एक बड़ी वजह यह है कि भ्रष्ट न्यायाधीश कानूनी शिकंजे में फंसते ही नहीं हैं। इसलिए यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई से देश की अदालतों की तस्वीर में कुछ सुधार आएगा?

गौरतलब है कि जस्टिस सेन पर आर्थिक अनियमितता का आरोप सही पाया जा चुका है। इसलिए उनसे आग्रह किया गया था कि वे अपने पद से इस्तीफा दे दें या ऐच्छिक अवकाश ग्रहण कर लें। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया और मजबूरन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश के.जी. बालाकृष्णन को केन्द्र सरकार से सिफारिश करनी पड़ी कि जस्टिस सेन के खिलाफ संसद में महाभियोग चलाया जाए।

यहां यह बताना आवश्यक है कि 1993 में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया और शिपिंग कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के बीच विवाद के दौरान सौमित्र सेन, जो उस समय वकील थे (2003 में वे कलकत्ता हाईकोर्ट के जज बने), को रिसीवर नियुक्त किया गया था। इन दोनों कंपनियों में सौदे से संबंधित 32 लाख की जो रकम उन्हें मिली, वह उन्होंने अपने निजी खाते में डाले रखी। हालांकि बाद में कलकत्ता हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद उन्हें यह रकम ब्याज सहित वापस करनी पड़ी, लेकिन जस्टिस बालाकृष्णन ने अपने 4 अगस्त, 2008 के पत्र में सरकार को लिखा है कि बतौर कोर्ट रिसीवर के सौमित्र सेन ने 1993 में बदनीयती दिखा दी थी।

बहरहाल, मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश पर सरकार ने फैसला किया है कि जज सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई होगी। आजाद भारत के इतिहास में अब तक सिर्फ एक ही जज को उसके पद से हटाया गया है। 1949 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश शिवप्रसाद सिन्हा को पद से हटाया गया था। लेकिन यह संविधान के लागू होने से पहले की बात है। 26 जनवरी, 1950 में संविधान के लागू होने के बाद 1991 में सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामास्वामी का मामला भी महाभियोग के लिए संसद पहुंचा था। लेकिन यह महाभियोग असफल रहा क्योंकि 11 मई, 1993 में मोशन पर मतदान करने के समय सत्तारूढ़ कांग्रेस के लोकसभा में सभी 205 सांसद गैर हा़िजर रहे। ध्यान रहे कि महाभियोग तभी सफल हो सकता है जब लोकसभा और राज्य सभा में सभी सदस्य मौजूद हों और प्रति एक सदन में दो-तिहाई सदस्य महाभियोग का समर्थन करें और उसके पक्ष में मतदान करें।

जस्टिस वी. रामास्वामी जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, तो उनकी शानो-शौकत वाली जीवनशैली व अनियमितताएं बरतने के खिलाफ 3 साल तक अभियान चला था। वे 5 माह की छुट्टी पर चले गए और जब काम पर लौटे तो उसके दो माह बाद भाजपा, राष्टीय मोर्चा और वामपंथियों के 108 लोकसभा सदस्यों ने उनके खिलाफ महाभियोग का नोटिस तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष रवि राय को सौंपा। रवि राय ने मोशन को मार्च, 1990 में स्वीकार कर लिया। रामास्वामी ने जांच समिति के सामने पेश होने से इन्कार कर दिया और उनकी पत्नी ने महाभियोग की वैधता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में लिखित याचिका दायर की। इन अड़चनों को पार करते हुए समिति ने अपनी रिपोर्ट जुलाई, 1992 में स्पीकर शिवराज पाटिल को सौंपी। समिति ने रामास्वामी पर लगे 14 आरोपों में से 11 में उन्हें दोषी पाया था। यह रिपोर्ट दिसंबर, 1992 में सदन में रखी गई और इसके 5 माह बाद इस पर मतदान होना था। लेकिन कांग्रेस के सदस्य गैर हाजिर रहे और रामास्वामी की जान बच गई।

रामास्वामी की इस मिसाल से जाहिर हो जाता है कि किसी भी भ्रष्ट न्यायाधीश को महाभियोग के जरिए हटाना कितना मुश्किल काम है। सबसे पहले तो महाभियोग लाने के लिए एक सदन के 100 सांसदों की जरूरत पड़ती है। हालांकि सौमित्र सेन के संदर्भ में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि मोशन स्वयं सरकार ला रही है। इसके बाद लोकसभा और राज्य सभा के अध्यक्ष एक समिति का गठन करते हैं जो आरोपों की जांच करती है। इस समिति की रिपोर्ट आने के बाद उसे सदन में रखा जाता है और फिर मतदान होता है। अगर सदन के दो-तिहाई सदस्य पक्ष में मतदान करें तो ही महाभियोग सफल होता है और न्यायाधीश को उसके पद से हटा दिया जाता है।

जस्टिस वी. रामास्वामी और गा़िजयाबाद की अदालत के न्यायाधीशों द्वारा किए गए पेंशन फंड घोटाले और अब जस्टिस सौमित्र सेन के मामले से स्पष्ट हो गया है कि अदालतों में जबरदस्त भ्रष्टाचार मौजूद है। इस भ्रष्टाचार के चलते यह भी आवश्यक है कि निचली से उच्च अदालतों तक के न्यायाधीशों पर जवाबदेही का शिकंजा कसा जाए। लेकिन न्यायाधीशों को हटाने का जो एकमात्र तरीका महाभियोग का है, उससे भ्रष्ट लोग साफ बच निकलते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि कोई ऐसा तरीका विकसित किया जाए जिससे अदालतों के भ्रष्ट न्यायाधीशों को अविलंब कानूनी शिकंजे में जकड़ा जा सके।

यह अजीब बात है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की बहुत मामूली भूमिका होती है लेकिन अगर न्यायाधीश भ्रष्टाचार व प्रशासनिक अनियमितताओं का दोषी पाया जाए तो उसे हटाने की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ संसद की होती है। ध्यान रहे कि मुख्य न्यायाधीश एक चयन प्रिाया के बाद नामों का प्रस्ताव रखते हैं और उन्हें न्यायाधीश बनाने की मुहर सरकार की तरफ से लगा दी जाती है। लेकिन जब किसी भ्रष्ट न्यायाधीश को हटाने की प्रिाया शुरू होती है तो वह इतनी लंबी खिंच जाती है कि असल मामला ही अवाम की यादों से ओझल हो जाता है। अब इस ताजा मामले को ही देखें, सौमित्र सेन ने 1993 और 1995 के बीच दो कंपनियों के लगभग 50 लाख रुपयों के इस्तेमाल में अनियमितता बरती थी। और अब 13 साल बाद आगामी 17 अक्तूबर को उनके खिलाफ संसद में कानून मंत्री एच.आर. भारद्वाज महाभियोग मोशन लेकर आएंगे। इसके बाद एक जांच समिति का गठन होगा, यह समिति अपनी रिपोर्ट देगी और तब कहीं जाकर महाभियोग पर मतदान होगा। ये लंबी प्रिाया न्याय को मजाक बनाकर रख देती है। और यह बात तो आप सभी जानते हैं कि देर से मिला न्याय भी अन्याय ही होता है।

जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ जजिस इन्क्वायरी एक्ट के तहत कार्रवाई होगी। यह कार्रवाई कितनी लंबी चलेगी और इसका नतीजा क्या निकलेगा, इसका अंदाजा आप ऊपर की मिसालों और बहस से लगा सकते हैं। सवाल यह है कि जब फरवरी, 2008 में 3 जज के पैनल ने सौमित्र सेन को अनियमितताओं का दोषी पा लिया था तो फिर स़जा देने में इतनी देरी और लंबी प्रिाया क्यों? इसलिए जरूरत इस बात है कि न्यायाधीशों को जवाबदेह बनाने के लिए और उनमें से अगर कोई भ्रष्टाचार में लिप्त होता है, उस पर अंकुश लगाने के लिए कानून में संशोधन करके उसे सरल बनाया जाए।

 

– शाहिद ए. चौधरी

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