भावनगर जनपद (गुजरात) के महुवा कसबे के पास अरब सागर के किनारे स्थित भवानी मंदिर से द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण ने रूक्मिणी का हरण किया था। इसी स्थान पर मॉं भुवनेश्र्वरी ने ब्रह्मा को भ्रम में डालकर बाद में उनकी दुविधा दूर की थी। इन ऐतिहासिक व धार्मिक िायाओं का गवाह रहा अरब सागर, अपनी लहरों की गूंज से मानो आज भी पूरी कथाएँ बताता रहता है।
मंदिर के बराबर में स्थित गॉंव कतपर के बारे में कहा जाता है कि द्वापर युग में यही कननपुर था। रूक्मिणी के पिता भीष्मक इसके राजा थे। कालांतर में इसका नाम कनकावती नगर भी हुआ। राजा भीष्मक के पॉंच पुत्रों में से एक रूक्मी की मित्रता शिशुपाल के साथ थी। वह शिशुपाल के साथ मदिरा आदि का सेवन करता था। उसने रूक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ तय करा दिया था। रूक्मिणी इस विवाह के पक्ष में नहीं थीं। वे तो श्रीकृष्ण को बचपन से ही अपना पति मान चुकी थीं। उन्होंेने एक पत्र लिखकर ब्राह्मण के माध्यम से द्वारिकाधीश भगवान श्रीकृष्ण के पास सूचना भिजवाई और बताया कि वह उन्हें अपना मान चुकी है। शिशुपाल के साथ उनका विवाह संभव नहीं है। उन्होंने पत्र में दिन व समय लिखते हुए बताया कि वे नगर के बाहर स्थित भवानी मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए पहुँचेंगी। भगवान श्रीकृष्ण से उन्होंने प्रार्थना की कि वे वहॉं आकर उन्हें ले जाएं। निश्र्चित तिथि व समय रूक्मिणी भवानी मंदिर पहुँची और प्रार्थना की कि वे श्रीकृष्ण को मन ही मन अपना पति मान चुकी हैं। इसलिए वे ही उन्हें पति रूप में प्राप्त हों। मॉं भवानी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। श्री मद्भागवत में बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण वहॉं पहुँचे और जैसे ही रूक्मिणी पूजा करके बाहर निकलीं, श्रीकृष्ण ने उनका हरण कर लिया। वहॉं से वे उन्हें समुद्र के किनारे के मार्ग से अपने नगर द्वारिका ले गए और उन्हें अपनी जीवन- संगिनी बनाया।
सुप्रसिद्घ भागवत मर्मज्ञ व कथा व्यास गोस्वामी मृदुल कृष्ण शास्त्री बताते हैं कि रूक्मिणी साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा हैं। उन्होंने जो पत्र भगवान श्रीकृष्ण को लिखा भागवत के अनुसार उसके दूसरे श्र्लोक में उन्होंने बताया था कि वे साक्षात् लक्ष्मी हैं और आप (श्रीकृष्ण) साक्षात् नारायण। नारायण के अलावा लक्ष्मी और किसी की हो ही नहीं सकती। शास्त्री जी के अनुसार-रूक्मिणी संतों के मुख से भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन सुनते-सुनते बचपन से ही उन्हें अपना पति स्वीकार कर चुकी थीं।
भवानी मंदिर की एक विशेषता यह है कि ये समुद्र के किनारे से करीब डेढ़ सौ फुट ऊँचाई पर स्थित है। कहा जाता है कि जरा नामक बहेलिए के तीर का शिकार होकर जब भगवान श्रीकृष्ण ने देह का त्याग किया तो समुद्र में जबरदस्त ज्वार-भाटा आया और तत्कालीन द्वारिका के साथ-साथ आसपास के तमाम नगर समुद्र में समा गए थे। भीष्मक का कुनन नगर भी समुद्र में समा गया था, लेकिन अत्यधिक ऊँचाई पर होने के कारण भवानी मंदिर तक समुद्र की लहरें नहीं पहुँच सकी थीं और वह सुरक्षित रहा। मंदिर की ऊँचाई देखकर लगता है कि वास्तव में ऐसा ही हुआ होगा।
मंदिर के अंदर मॉं भवानी की मुख्य प्रतिमा लाल पत्थर से बनी है। यहॉं महिलाएँ प्रसाद के साथ सिंदूर भी चढ़ाती हैं और अपने सुहाग के दीर्घायु होने की कामना करती हैं। कुँआरी लड़कियों की प्रार्थना रहती है कि मॉं भवानी रूक्मिणी की तरह उन्हें भी मनचाहा वर दें। मंदिर में प्रवेश करते ही शिवलिंग के दर्शन होते हैं। जहॉं भवानी हों वहॉं शिव न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता। मंदिर की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें रूक्मिणी के भाई रूक्मी की भी आदमकद प्रतिमा स्थापित है, लेकिन उसकी पूजा नहीं होती। इस बारे में मंदिर के महंत रमेश भारती का कहना है कि वे इस राज्य के राजकुमार थे इसलिए उनकी प्रतिमा लगाई गई है, किंतु वे भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा के विपरीत शिशुपाल के साथ रूक्मिणी का विवाह करना चाहते थे, इसलिए उनकी प्रतिमा पर कोई फल, फूल नहीं चढ़ाता।
इस स्थान का एक महत्व और है। मंदिर के मुख्य दरवाजे पर लगे पत्थर पर श्रीमद् भागवत के तीसरे स्कंध में मॉं भवानी और ब्रह्मा की वार्ता के बारे में लिखा गया है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय ब्रह्मा जी इस स्थान पर आये थे। यहॉं उन्हें सभी लोक एक साथ दिखाई दिये तो वे भ्रम में पड़ गए। उन्होंने मॉं भवानी से इस संशय को दूर करने की प्रार्थना की। मॉं भवानी ने उनसे कहा कि ऐसे कोटि भुवनों का निर्माण करने के कारण हो वे भुवनेश्र्वरी कहलती हैं। ऐसे अनेक लोकों का निर्माण करने के बाद वे उन्हें ब्राह्माण्ड में छोड़ देती हैं। जब ब्रह्मा जी ने उनसे ऐसे लोक बनाने की प्रार्थना की, तो मॉं भवानी ने ब्रह्मा जी को लोकों का निर्माण करने का वरदान दिया और ब्रह्मा जी ने उनका निर्माण किया।
इस मंदिर के आसपास की गई खुदाई में लोथल संस्कृति से जुड़ी ईंटें तथा सिक्कों व कंगन के टुकड़े आदि प्राप्त होने से इसके लगभग साढे तीन हजार वर्ष पुराना होने के प्रमाण मिलते हैं। कहा जाता है कि महुवा नगर को ब्रह्मा ने “मोह विमोहन’ नगर नाम दिया था।
– कीर्ति
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