एडोल्फ हिटलर के शासन में लोग गायब हो जाते थे और फिर उनके परिवार और करीबी दोस्तों तक को भी यह मालूम नहीं होता था कि वे कहां गायब हो गए या फिर बाद में कभी दिखायी क्यों नहीं दिए? दूसरे विश्र्व युद्ध के समाप्त होने के साथ ही हिटलर की तानाशाही पर भी विराम लग गया और दुनिया ने नए लोकतांत्रिक वातावरण में सांस लेते हुए सोचा कि अब कभी किसी का कोई प्रिय, राजनीतिक एजेंडा के तहत गायब नहीं किया जाएगा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि नाजी दौर की यह कुप्रथा अपने देश में अब भी जारी है।
एसोसिएशन ऑफ द पेरेंट्स ऑफ द डिसअपेयर्ड पर्सन्स (एपीडीपी) ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट फैक्ट्स अंडरग्राउंड जारी की है जिसमें उसने कहा है कि 1989 से अब तक जम्मू-कश्मीर में 8 हजार से अधिक लोग गायब हो चुके हैं, जबकि केन्द्र व राज्य अधिकारियों का कहना है कि यह संख्या 4 हजार से अधिक नहीं है। इन गायब व्यक्तियों के संदर्भ में एपीडीपी और सरकारी अधिकारियों के अलग-अलग व परस्पर विरोधी तर्क हैं, लेकिन हम उनके तर्कों की बहस में नहीं पड़ना चाहते। हमारा कहना यह है कि राजनीतिक व अन्य कारणों से देश में लोगों का गायब होना जारी है और यह किसी एक क्षेत्र या मुद्दे तक सीमित नहीं है।
गौरतलब है कि सरकारी एजेंसियों द्वारा लोगों को गायब कर दिया जाना या कानूनी दायरे के बाहर उन्हें मार दिया जाना, किसी विशेष क्षेत्र या आतंक-विशिष्ट मुद्दों तक सीमित नहीं है। यह काम सिर्फ जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व में ही नहीं हो रहा बल्कि इसकी नियमित खबरें गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और उड़ीसा से भी आ रही हैं। जो लोग गायब हो रहे हैं वे सिर्फ आतंक संदिग्ध नहीं हैं। सभी आयु, पेशे और पृष्ठभूमि के लोग इस अमानवीय सिलसिले का शिकार हो रहे हैं। हैरत की बात यह है कि यह अपराध राज्य सरकार के अंगों के इशारों पर किए जाते हैं और जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें कभी जवाबदेह नहीं ठहराया जाता बल्कि झूठ, कवरअप और भ्रमित करने वाले तर्कों व बहानों से उन्हें बचाया जाता है।
गायब होने का अर्थ है लुप्त हो जाना, जिंदा न रहना या खो जाना। लेकिन जो गायब हुए हैं वह अचानक हवा में कहीं लुप्त नहीं हो जाते। कोई, कहीं जानता है कि उनके साथ क्या हुआ? कौन इसके लिए जिम्मेदार हैं। जबरन गायब का हर एक मामला अनेक मानवाधिकारों का उलंघन करता है – सुरक्षा का अधिकार, मानव सम्मान का अधिकार, यातना या अन्य ाूरता से बचने का अधिकार, अमानवीय सज़ा या अमानवीय व्यवहार से बचने का अधिकार, कैद में मानवीय शर्तों के साथ रहने का अधिकार, कानूनी मदद पाने का अधिकार, कानूनी इंसाफ पाने का अधिकार और पारिवारिक जीवन का अधिकार। आखिरकार यह जीवन के अधिकार का उलंघन करता है क्योंकि जबरन गायब किए गए पीड़ित अकसर मार दिए जाते हैं।
दरअसल, संस्थागत दंड देने की प्रिाया ने यह सुनिश्र्चित कर दिया है कि मानव अधिकार उलंघन के लिए किसी को भी कानूनी इंसाफ के दायरे में न लाया जाए। यह बात विशेष रूप से उन मामलों के लिए सही है जिनमें सरकारी संस्थाएं लोगों को जबरन गायब कर देती हैं। अदालतें, न्याय दिलाने वाली संस्थाएं, जांच करने वाली पुलिस और राज्य मानव अधिकार आयोग इस सिलसिले में हमेशा नाकाम रहे हैं कि उन मामलों की गहन जांच-पड़ताल की जाए जिनमें लोग जबरन गायब कर दिए गए। यह संस्थाएं हमेशा राज्य की उन संस्थाओं, जैसे सेना और नागरिक कार्यकारिणी प्राधिकरण के हितों के अधीन रहती हैं जो सत्य और न्याय तक लोगों को पहुंचने ही नहीं देना चाहती। मसलन, जम्मू-कश्मीर में राज्य सरकार ने वायदा किया था कि राज्य का मानव अधिकार आयोग जबरन गायब के सभी मामलों की छानबीन करेगा। लेकिन अब तक एक भी मामले की छानबीन नहीं की गई है। गौरतलब है कि अगस्त, 2006 में आयोग के अध्यक्ष ने यह आरोप लगाते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था कि राज्य सरकार मानव अधिकार उलंघन के संदर्भ में गंभीर नहीं है।
लेकिन केन्द्र के साथ-साथ सभी राज्य सरकारों को मानव अधिकारों के संदर्भ में गंभीर होना पड़ेगा। इसकी बुनियादी वजह यह है कि भारत ने फरवरी, 2007 में इंटरनेशनल कन्वेंशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन्स फ्रॉम एनफोर्स्ड डिसअपेयरेंसिस पर सहमति के हस्ताक्षर किए थे। इसका अर्थ यह है कि सरकार ऐसे कदम उठाएगी जिनके तहत कोई भी सरकारी संस्था किसी भी व्यक्ति को जबरन गायब नहीं कर पाएगी। लेकिन अफसोस की बात है कि भारत ने अब तक संयुक्त राष्ट्र की उन वर्किंग ग्रुप्स को देश में आने की अनुमति नहीं दी है जो जबरन गायब होने के संदर्भ में कार्य कर रही हैं। साथ ही भारत ने कन्वेंशन को यातना, एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल हत्याएं आदि के बारे में भी रिपोर्ट नहीं किया है और न ही संयुक्त राष्ट्र के इस आग्रह को स्वीकार किया है कि वह इस सिलसिले में अपनी टीम को भारत भेजे। गौरतलब है कि 21 दिसम्बर, 2006 को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने सर्वसम्मति से एक नए मानव अधिकार समझौते – प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन फ्रॉम एन्फोर्स्ड डिसअपेयरेंस-को स्वीकार किया था। लगभग 25 साल से कुछ सरकारी और गैर सरकारी व गायब व्यक्तियों के रिश्तेदार इस ऐतिहासिक समझौते के गठन के लिए प्रयासरत थे और इसको स्वीकार किए जाने के बाद मानव अधिकार कानूनों में एक बड़ी कमी को दूर कर दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र की यह घोषणा गायब होने के खिलाफ एक ऐसा अधिकार प्रदान करती है जिस पर कोई समझौता किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 2 में कहा गया है कि गायब पर प्रतिबंध एकदम पूर्ण है। अनुच्छेद 7 में कहा गया है कि चाहे किसी भी किस्म के हालात हों, चाहे जंग का खतरा हो, चाहे जंग चल रही हो, चाहे अंदरूनी राजनीतिक आस्थरता हो या कोई अन्य आवामी आपात स्थिति, तो भी जबरन गायब किए जाने को न उचित ठहराया जा सकता है और न ही न्यायोचित। इन दोनों अनुच्छेदों के कारण हर देश की यह जिम्मेदारी हो जाती है कि वह यह सुनिश्र्चित करे कि कोई भी व्यक्ति किसी भी हालत में जबरन गायब न किया जाए और पीड़ित व उसके परिवार को न्याय प्रदान किया जाए।
इस बहस की रोशनी में यह आवश्यक हो जाता है कि न्याय न सिर्फ किया जाए बल्कि होता हुआ दिखायी भी दे। इसलिए देशभर में जिन लोगों को जबरन गायब कर दिया गया है, उनके मामले की ईमानदारी से जांच की जाए और पीड़ितों व उनके परिवारों को न्याय प्रदान किया जाए। साथ ही यह भी सुनिश्र्चित किया जाए कि सेना, पुलिस या कोई भी अन्य सरकारी महकमा किसी भी व्यक्ति को किसी भी सूरत में जबरन गायब न करे। संदिग्ध व्यक्तियों को कानूनी प्रिाया के तहत ही गिरफ्तार किया जाए और न्यायालय ही उसको, अगर उसने कोई अपराध किया है, सजा दे। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है कि उसके नागरिकों के अधिकारों का कोई भी बहाना लेकर उल्लंघन न किया जाए। आधुनिक सभ्य समाज की यही जरूरत व मांग है।
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