उच्च पदों पर विराजमान मेरे कुछ ऐसे नौकरशाह मित्र हैं, जो अनौपचारिक बातचीत में बे- हिचक स्वीकारते हैं कि उनकी माई – बाप तो मौजूदा सरकार है, इस कारण मुख्यमंत्री स्तर से जो भी हुक्म मिलेगा उस पर अमल करना ही उनका कर्तव्य है। मसलन, प्रशासनिक बिरादरी की बुनियादी जवाबदेही राष्ट, जनता, संविधान और समाज के प्रति न होकर कथित राजनेता अथवा राजनीतिक दल के प्रति रहती है। प्रतिबद्घता की इस विभाजक रेखा को जातिवादी दृष्टिकोण और उसमें अंतर्निहित सुरक्षा भाव ने भी मजबूती दी है। जबकि हमारे संवैधानिक लोकतांत्रिक ढंाचे में सर्वोच्च संप्रभुता जनता-जर्नादन में निहित है। ऐसे ही प्रशासनिक दुराग्रहों और राजनीतिक सुरक्षा कवच के चलते नौकरशाही बेलगाम हुई और उसने पूरे समाज को भ्रष्टाचार के अभिशाप से जोड़ दिया। नतीजतन भारत में भ्रष्टाचार संबंधी जो अध्ययन, आंकड़े दिए जा रहे हैं, उनसे खुलासा होता है कि देश की एक बड़ी आबादी ने बीते साल नौ सौ करोड़ की घूस सरकारी मशीनरी को दी। इस लिहाज से मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा एवं निर्ममता से हनन वह सरकारी अमला करने में लगा है, जिसका दायित्व पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से जनकल्याणकारी योजनाओं पर अमल करने का है।
“टांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडिया सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज’ ने “भारत में भ्रष्टाचार अध्ययन 2007′ शीर्षक से जो प्रतिवेदन जारी किया है, उसमें कहा गया है कि देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों को पिछले एक साल में मूलभूत अनिवार्य व जनकल्याणकारी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए तकरीबन नौ सौ करोड़ रुपये की रिश्र्वत देनी पड़ी। यह दलील सांस्कृतिक रूप से सभ्य, मानसिक रूप से धार्मिक और भावनात्मक रूप से कमोबेश संवेदनशील समाज के लिए सिर पीट लेने वाली है। इस अध्ययन ने प्रकारांतर से यह तय कर दिया है कि हमारे देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गारंटी, मध्यान्ह भोजन, पोलियो उन्मूलन के साथ स्वास्थ्य लाभ व भोजन के अधिकार संबंधी योजनाएं किस हद तक जमीनी स्तर पर लूट व भ्रष्टाचार का हिस्सा बनी हुई हैं।
यही कारण है कि प्रशासनिक पारदर्शिता के जितने भी उपाय एक कारगर औजार के रूप में उठाए गए वे सब के सब प्रशासन की देहरी पर जाकर ठिठक जाते हैं। ई-प्रशासन के बहाने कम्प्यूटर का अंतर्जाल प्रमुख सरकारी विभागों में इस दृष्टि से फैलाया गया था कि यह प्रणाली भ्रष्टाचार पर अंकुश तो लगाएगी ही, ऑन लाइन के जरिये समस्याओं का समाधान भी तुरत-फुरत होगा। लेकिन इस नेट वर्किंग में करोड़ों-अरबों रुपये खर्च कर दिये जाने के बावजूद कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। कंप्यूटर सरकारी क्षेत्र में टाइपराइटर का एक उम्दा विकल्प भर बनकर रह गया है।
सूचना के अधिकार को भ्रष्टाचार से मुक्ति का पर्याय माना जा रहा था। क्योंकि इसके जरिये आम नागरिक प्रत्येक सरकारी विभाग के कामकाज व नोटशीट पर अधिकारी की दर्ज टिप्पणी का लेखा-जोखा तलब कर सकता है। लेकिन सरकारी अमले की अनियमितताएं घटने की बजाए और बढ़ गईं, ताजा सर्वेक्षण इसका उदाहरण है। इससे जाहिर होता है कि सूचना का अधिकार भी भ्रष्टाचार से मुक्ति की कसौटी पर खरा नहीं उतरा ? ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि हमारे जो श्रम कानून हैं वे इस हद तक प्रशासनिक तंत्र के इस्पाती रक्षा कवच बने हुए हैं कि वे पारदर्शिता और जबावदेही की कोई भी शर्त स्वीकारने को मजबूर नहीं होते? इस कारण इस तंत्र द्वारा सूचना के अधिकार के तहत जानकारी की मांग को नकारने के अनेक मामले सामने आ रहे हैं। दरअसल हमने औपनिवेशिक जमाने की नौकरशाही को स्वतंत्र भारत में जस की तस स्वीकार लेने की एक बड़ी भूल की थी। इस सिलसिले में गौरतलब यह भी है कि सूचना कानून के दायरे से बाहर हमारे न्यायालय और न्यायाधीश भी मुक्त रहना चाहते हैं। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने मानवाधिकार संगठन पी.यू.सी.एल. की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें सूचना के अधिकार के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की पारिवारिक संपत्ति का ब्यौरा मांगा जा सके। न्यायमूर्ति बालकृष्णन ने इस मांग को इस दलील के साथ ठुकरा दिया कि उनका दफ्तर सूचना के दायरे से इसलिए बाहर है क्योंकि वे संवैधानिक पदों पर आसीन हैं। जबकि विधि और कार्मिक मंत्रालय की स्थाई संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में न्यायपालिका को सूचना कानून के दायरे में लाने की सिफारिश की है। इस समिति ने यह भी खुलासा किया है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी लोकसेवक हैं। इसलिए सूचना का अधिकार उन पर लागू होना चाहिए। मगर यहां विडंबना यह है कि संसद न्यायपालिका को कोई दिशा-निर्देश नहीं दे सकती और न्यायपालिका का विवेक मानता है कि वह सूचना के अधिकार से परे है। अब यहां सोचनीय पहलू यह है कि जब यह अधिकार संसद पर लागू हो सकता है, तो न्यायपालिका पर क्यों नहीं? यदि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वेसर्वा है तो नागरिक को न्यायपालिका के क्षेत्र में भी जानकारी मांगने का अधिकार मिलना चाहिए।
भ्रष्टाचार अध्यन संबंधी रिर्पोट में ग्यारह सरकारी सेवाओं का अध्ययन किया गया। जिसमें पुलिस में सबसे अधिक भ्रष्टाचार पाया गया। बीते साल में पांच करोड़ 60 लाख परिवारों का वास्ता पुलिस से पड़ा, जिसमें ढाई करोड़ लोगों को 215 करोड़ रुपये रिश्र्वत में देने पड़े। ऐसा नहीं है कि इस निर्बाध चल रहे भष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए हमारे यहां कोई कानून नहीं है। भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम के तहत सीबीआई, पुलिस और लोकायुक्त पुलिस समय-समय पर छापे डालते हैं, भष्टाचारियों को रंगे हाथ पकड़ते हैं, लेकिन श्रम कानून में उल्लेखित विकल्प जहां उन्हें तत्काल जमानत पर रिहा और निलंबन अवधि में भी 75 प्रतिशत वेतन देते रहने की सुविधाएं मुहैया कराता है जिनकी वजह से छापामार कार्रवाइयों का कोई स्थायी असर सरकारी कर्मचारी और अधिकारियों पर दिखाई नहीं देता। यही नहीं, आपराधिक मामलों में प्राथमिकी दर्ज हो जाने के बावजूद विभागीय जॉंच का प्रावधान भ्रष्टाचारियों को पूर्ववत स्थिति में बहाल कर देने का सबसे बड़ा आधार बना हुआ है। इस जांच में निर्दोष साबित होने पर इनके निलंबन अवधि के आर्थिक स्वत्व भी सध जाते हैं और इसी आधार पर अदालत से भी इन्हें कमोबेश राहत मिल जाती हैं। हालांकि अब खासतौर से भ्रष्टाचार के मामलों को जल्दी निपटाने की दृष्टि से विशेष अदालतें खोले जाने की मांग भी उठ रही है। इसके साथ ही इन मामलों का एक तय समय-सीमा में निराकरण किए जाने की मांग भी जोर पकड़ रही है।
सरकारी अमले के काम करने के ढंग में बदलाव लाना है तो इसके आकार को भी घटाने की जरूरत है। इस संदर्भ में हमें ब्रिटेन से सबक लेना चाहिए, जहां 1979 की तुलना में चालीस फीसदी सरकारी अमला कम किया गया है। इस अमले की जवाबदेही सुनिश्र्चित करने के साथ सरकारी सेवा में बने रहने की गांरटी भी खत्म करनी होगी। इसी गांरटी के चलते नौकरशाही कठोर और पतनशील बनी हुई है। नतीजतन आज भी हमारे लोकसेवक उन्हीं दमनकारी परंपराओं से आचरण ग्रहण करने में लगे हैं, जो अंग्रेजी राज में विद्रोहियों के दमन की दृष्टि से जरूरी हुआ करती थीं। इसी दंभ के चलते सूचना के अधिकार की मांग को नकारने के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। और सूचना के उस अधिकार को हाशिये पर डाल दिया गया है जो भ्रष्टाचार से मुक्ति का एक सार्थक उपाय था।
– प्रमोद भार्गव
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