उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीति एक अजीबो-गरीब ऩजारा पेश कर रही है। शीर्ष सत्ता की बागडोर संभालने वाली दो महिला नेत्रियों की टकराहट इस प्रदेश की राजनीति को आम चुनाव आते-आते कौन-सी शक्ल देगी, कहना कठिन है। दोनों ही ओर से एक-दूसरे को चुनौती देने के सिलसिले की शुरूआत हो चुकी है। इस द्वन्द्व में एक पक्ष खुद प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं तो दूसरा पक्ष कांग्रेस और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी का है। मायावती को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर प्रोत्साहित करने की भूमिका अगर कुछ दिनों पहले तक कांग्रेस की पालकी ढो रहे वामपंथी निभा रहे हैं, तो सोनिया गांधी को बकअप करने में अभी हाल तक सत्ता पर काबिज रहे समाजवादी जुटे हैं। भाजपा इस द्वन्द्व में प्रत्यक्षतः तो शामिल नहीं है लेकिन परिस्थितियों पर अपनी पैनी नजर जरूर गड़ाये है। उसका यह सोचना गलत भी नहीं कहा जा सकता कि इस द्वन्द्व में तीसरे को भी एक मौका-मुबारक हासिल हो सकता है और वह तीसरा उसके सिवा और कौन हो सकता है।
यूँ तो कांग्रेस और उसके नेतृत्व के साथ बसपा सुप्रीमो मायावती की राजनीतिक टकराहटें एक लम्बे अरसे से जारी हैं, लेकिन इसमें गरमाहट तब आयी जब बसपा की प्रदेश राजनीति में सबसे बड़ी प्रतिद्वन्द्वी पार्टी सपा अपने मुखिया मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में केन्द्र में काबिज कांग्रेस की बगलगीर हो गई। मायावती को यह समझते देर नहीं लगी कि उनके सभी दुश्मन इकट्ठा होकर उन्हें घेरने की राजनीति बना रहे हैं। पिछले दिनों मनमोहन सरकार के विश्र्वासमत हासिल करने के दौरान तीसरे मोर्चे और वामपंथी दलों को यह लगने लगा कि वे मायावती को तीसरे विकल्प के रूप में प्रायोजित कर एक बड़ी सफलता हासिल कर सकते हैं। वैसे भी इसमें फायदा अगर इन दलों को हासिल होना था तो मायावती भी कम फायदे में नहीं होतीं। पिछले चुनाव में सपा, भाजपा और कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर डाल देने के बाद राष्टीय सत्ता की बागडोर अपने हाथ में करने की महत्वाकांक्षा का जग जाना उनके पक्ष में अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टि से मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपरिहार्य शक्ति तो बनी ही रहना चाहती हैं, साथ ही राष्टीय राजनीति में भी वह अपनी भूमिका तलाश करने में जुट गई हैं।
तुनकम़िजाजी, हठधर्मिता और आाामकता मायावती के स्वभाव की विशेषता है। लेकिन सोनिया गांधी के साथ उनकी मौजूदा टकराहट को बस इतने तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। यह टकराहट उनकी सोची-समझी राजनीति का एक रणनीतिक प्रयास है। उनकी महत्वाकांक्षा की दृष्टि उन्हें इस देश की सबसे बड़ी कुर्सी दिखा रही है। इस कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता उस चुनौती से ही शुरू होगा जो सत्ता पर काबिज लोगों और उसके नियामकों की दी जाएगी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में वे सत्ता की सर्वोच्च नियामक शक्ति सोनिया गांधी को चुनौती देकर एक बड़ी लड़ाई छेड़ने का मन बना चुकी हैं। क्या इसे उनकी राजनीति का हिस्सा नहीं माना जाएगा कि वे राजनीति में दखल रखने वाले छोटे-मोटे प्यादों और सिपहसालारों से जूझने की जगह सीधे सम्राट से दो-दो हाथ करने पर आमादा हैं? उन्हें अपनी हार-जीत की भी चिन्ता नहीं है, क्योंकि वे जानती हैं कि उन्हें हर हाल में कुछ न कुछ हासिल ही करना है, खोना कुछ नहीं है। उन्हें यह भी पता है कि राजनीति के जिस धरातल पर उनके पांव जमे हैं, वे डिगाये नहीं जा सकते। अगर यह कहा जाय कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि राष्टीय स्तर पर वे सबसे बड़ी जनाधार वाली नेत्री हैं, तो इसे अत्युक्ति नहीं समझा जाना चाहिए। उनका दलित वोट बैंक जो सिर्फ उत्तर प्रदेश और निकटवर्ती प्रदेशों तक सीमित था अब राष्टीय धरातल पा चुका है। क्योंकि राष्टीय स्तर पर उनके समानान्तर कोई दलित नेता वर्तमान राजनीति में मौजूद नहीं है। सदियों-सदियों की दमित और कुंठित दलित चेतना मायावती के रूप में अपने “तारणहार’ को देख रही है। मायावती सही कर रही हैं या गलत, इससे उसका कुछ लेना-देना नहीं है। दलित बस इतना जानता है कि “बहन जी’ जो कुछ कर रही हैं सिर्फ उसके हित में कर रही हैं।
सोनिया गांधी के खिलाफ उत्तर प्रदेश के रायबरेली, जो उनका निर्वाचन क्षेत्र भी है, में किया गया ऐलाने-जंग उनकी इसी राजनीति का एक हिस्सा है। इस प्रतिस्पर्धा की एक खूबी यह भी है कि मायावती फाउल गेम खेलने से भी परहेज नहीं करतीं। रेलवे की कोच फैक्टी के लिए लालगंज में जमीन खुद उन्होंने आवंटित की थी और जब उसके परवान चढ़ने का समय आया तो उन्होंने खुद अपने प्रभाव से इसे निरस्त करा दिया। और उन्होंने 11 अक्तूबर को न सिर्फ सोनिया गांधी को भूमिपूजन नहीं करने दिया अपितु उनकी प्रस्तावित रैली को भी धारा 144 लगवाकर रोकवा दिया। हालांकि सोनिया उस दिन रायबरेली गईं और उन्होंने रायबरेली से पारिवारिक रिश्ते का इजहार करते हुए कहा कि वे इसके विकास के लिए जेल भी जाने को तैयार हैं। लेकिन सोनिया गांधी की शिष्ट और शालीन राजनीति मायावती जैसी उदग्र और उद्घत राजनीतिज्ञ का मनोबल ध्वस्त कर सकेगी, इसकी गुंजाइश कम ही है। यह ़गौर करने लायक बात है कि मायावती ने खुद आगे बढ़कर आाामकता दिखाई है। अतः वे अपने लिए सुरक्षात्मक भूमिका तो किसी हाल में नहीं अपनायेंगी। हॉं, अपने पर होने वाले प्रत्याामण को वे दलित समुदाय पर आामण करार देकर राजनीतिक फायदा जरूर उठाना चाहेंगी। वैसे जंग की शुरूआत हो चुकी है, हार-जीत का परिणाम जानने के लिए इंतजार करना होगा।
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