विद्यालयों में बच्चों को रिझाने व उनकी उपस्थिति बढ़ाने हेतु मध्यान्ह भोजन योजना (मिड-डे मील) लगभग डेढ़ दशक से अलग-अलग स्वरूपों व नामों से चल रही है। पी.वी. नरसिन्हा राव के कार्यकाल के दौरान विद्यार्थी को गेहूँ वितरण किए जाने से शुरू हुई यह योजना सन् 2002 में वाजपेयी सरकार द्वारा पके हुए भोजन के साथ परवान पर पहुँच गई। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार मिड-डे मील या पोषाहार विद्यार्थियों को पकाकर दिया जाने लगा। इस सन्दर्भ में भारी-भरकम बजट तय किया गया और बड़े-बड़े दावे किए गये कि यह विद्यालयों में विद्यार्थियों के नामांकन व उपस्थिति को बढ़ाएगा। मिड-डे मील के सन्दर्भ में सरकारी दावे और संभावनाएँ इस प्रकार थीं –
- पहले घुघरी और अब पकाया भोजन विद्यार्थियों विशेषतया गरीब तबके के बच्चों को सरकारी विद्यालयों की ओर आकर्षित करेगा, जिससे डापआउट दर और निरक्षरता दर दोनों में सकारात्मक सुधार आएगा।
- अर्द्घ अवकाश में दिया जाने वाला पोषाहार विद्यालयों में उपस्थिति दर को बढ़ायेगा।
- गरीब, भूमिहीन या मजदूर वर्ग के परिवारों के बच्चों को न केवल बढ़िया भोजन मिलेगा, बल्कि वे शिक्षित होकर अपने अस्तित्व को पहचानकर राष्ट निर्माण में अपनी क्षमताओं का बेहतरीन उपयोग कर पाएँगे।
- सरकारी विद्यालयों में बढ़ती विद्यार्थी संख्या से शिक्षा का भावात्मक सुधार होने के साथ-साथ अध्यापक भी अधिक विद्यार्थियों को पढ़ाने में आकर्षण महसूस करेगा। “इक्का-दुक्का’ विद्यार्थियों को क्या पढ़ाएँ, इस जुमले से छुटकारा मिलेगा।
इस प्रकार अतिशयोक्तिपूर्ण दावे मिड-डे मील के सन्दर्भ में किए गए। इसी प्रयास में 12 फीसदी से ज्यादा विद्यालयों में मिड-डे मील शुरू कर दिया गया। मगर हाल ही में देश के 16 हजार गॉंवों में तीन से 16 साल के 7 लाख 20 हजार बच्चों पर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर “प्रथम’ नामक संस्था ने वार्षिक रिपोर्ट’ “असर – 2008′ जारी की है। रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार 2005 में देश के 72.5 प्रतिशत स्कूल मिड-डे मील योजना के दायरे में थे। अब यह योजना 92.2 प्रतिशत स्कूलों में लागू है। इसके बावजूद बच्चों की अनुपस्थिति बढ़ी है। संस्था के प्रमुख माधव चौहान के अनुसार बच्चों को पोषक तत्वों से भरपूर भोजन दिया जाना तो ठीक है, मगर यह दावा और धारणा कि इससे आकर्षित होकर विद्यार्थी नामांकन और उपस्थिति में इजाफा होगा, यह गलत है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब, पं. बंगाल, आंध्र-प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के स्कूलों में उपस्थिति में कमी आई है। राजस्थान में मिड-डे मील सन् 2005 में 83.2 प्रतिशत स्कूलों में मिलता था, जबकि 2007 में इसके दायरे में 98.6 प्रतिशत स्कूल लाए गए फिर भी विद्यार्थियों की उपस्थिति दो फीसदी कम हो गई। पंजाब में 3 प्रतिशत, म.प्र. में लगभग 1 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 1 प्रतिशत, पं.बंगाल में करीब 4 प्रतिशत, दमन व दीव में 10 प्रतिशत, केरल में करीब 5 प्रतिशत और आंध्र-प्रदेश में करीब ड़ेढ प्रतिशत उपस्थिति कम हुई है। वस्तुतः इसके पीछे कारण तलाश करें तो कुछ बिन्दु उभरकर सामने आते हैं, जो यह स्पष्ट कर देते हैं कि दावे खोखले क्यों साबित हुए हैं।
- पोषाहार पकाने का दायित्व शिक्षकों के कंधों पर डाला गया है, जिससे वह खाद्य सामग्री की देख-रेख, सब्जी, आटा, दाल, तेल और नमक में उलझ जाता है। इस पर भी कोढ़ में खाज वाली बात यह है कि एकल अध्यापक या दो अध्यापकों वाले सरकारी विद्यालयों में विभिन्न अभियानों व योजनाओं की डाक तैयार करने व आंकड़े इकट्ठे करने में अध्यापक व्यस्त रहते हैं, जिनका कुल मिलाकर असर यह निकलता है कि अध्यापक अध्यापन न करवाकर रसोइए की तरह हो जाता है, जिससे विद्यालयीन शिक्षण जो कि विद्यालय का प्रमुख ध्येय है, द्वितीय कार्य हो जाता है जबकि पोषाहार प्राथमिक कार्य बन जाता है और इसी कारण सुधी व प्रबुद्घ माता-पिता अपने बच्चों को पोषाहार के आकर्षण से परे जाकर निजी शिक्षण संस्थाओं में भेजने लग जाते हैं। परिणामस्वरूप नामांकन व उपस्थिति दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
शिक्षक के पोषाहार कार्य सम्पादन में अप्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक दखलअन्दाजी विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति से नामांकन व उपस्थिति दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। मिड-डे मील की वजह से अध्यापक की गरिमा को क्षति पहुँची है, क्योंकि अध्यापक विभिन्न प्रकार की पोषाहार सामग्री की खरीद-फरोख्त करता है और उसके ऐसा करने से रसूख रखने वाले छुटभैया नेता कमीशनखोरी का आरोप मढ़ते हैं और ऐसे में पोषाहार मामले में करोड़ों रुपए के घोटाले, जो विभिन्न ठेकेदारों द्वारा गेहूँ-चावल वितरण में हुए होते हैं, अध्यापक पर लगाए आरोपों को अप्रत्यक्ष समर्थन देते हैं जिससे अध्यापक की गरिमा का ह्रास होता है।
कितनी विचित्र बात है कि ऐसे स्कूलों का अध्यापक “रसोइया’ या “डाकिया’ बन गया है और पाठशाला, पाकशाला बन गई है। ऐसे में सरकारी नीतियॉं पोषाहार के माध्यम से सुयोग्य, सुशिक्षित नागरिक निर्माण की बजाय पोषण देकर मूढ़ पहलवान बनाना चाहती हैं। मूढ़ इसलिए क्योंकि अध्यापक को तो पोषाहार, जनगणना, पशुगणना, सीटीएस पल्स पोलियो, मतदाता सूची आदि कार्यों में व्यस्त रखा जाता है। इसलिए शिक्षा दे नहीं पाता, तो इसका परिणाम मूढ़ नागरिक निर्माण ही तो होगा। विभिन्न शिक्षक संघ इस बारे में बार-बार धरना, हड़ताल और प्रदर्शनों द्वारा मॉंग उठाते रहे हैं कि पोषाहार व अन्य उत्तरदायित्वों से अध्यापक को मुक्त किया जाए ताकि वह बच्चों को शिक्षा दे पाए और अध्यापक की जब समस्त क्षमता अध्यापन में होगी तो शिक्षण सजीव, रोचक और आकर्षक होगा, जिसका परिणाम बढ़ता हुआ नामांकन व उपस्थिति पर होगा। मिड-डे मील के बारे में खोखले दावों की कलई खुलने के बाद अब चेत जाना चाहिए और इस सन्दर्भ में आगे के लिए निम्न कदम उठाए जा सकते हैं –
- पोषाहार कार्य किसी नोडल एजेन्सी या ग्राम पंचायत को दिया जाये। खाना पकाने की सामग्री से लेकर परोसने तक समस्त उत्तरदायित्वों से अध्यापक मुक्त हों। कागजी कार्यवाही जैसे गेहूँ, चावल प्राप्ति व उपभोग, रसद का हिसाब भी नोडल एजेन्सी ही करे, जिससे दो फायदे होंगे।
- प्रथमत, अध्यापक इन कार्यों से मुक्त होकर स्वतः ही शिक्षण कार्यों में अपनी ऊर्जा लगाएगा जिससे सरकारी विद्यालयों में शैक्षणिक गुणवत्ता बढ़ेगी और नामांकन व उपस्थिति में भी इजाफा होगा। दूसरा लाभ यह होगा कि कोई भी शिक्षक महज पोषाहार सामग्री में से लाभ कमाने हेतु फर्जी विद्यार्थी उपस्थिति नहीं लगाएगा। क्योंकि पोषाहार कार्य उनके पास नहीं होगा। अध्यापक की हाजिरी पंजिका में लागू की गई सख्ती विद्यार्थियों को पाबन्द करेगी कि वे सदैव विद्यालय में उपस्थित रहें।
- इसका पूरक कदम यह भी है कि अध्यापक को अन्य कार्यों जैसी तहसील या एस.डी.एम. कार्यालयों में प्रतिनियुक्ति व राष्टीय कार्यामों को छोड़कर अन्य कार्यों में नहीं लगाया जाए। ऐसा उच्चतम न्यायालय द्वारा भी निर्देशित किया जा चुका है। ऐसा करने से अध्यापक की गरिमा सुरक्षित रहेगी और गरिमायुक्त अध्यापक अपनी कर्मठता व क्षमता को प्रभावित करने का प्रयास अवश्य करेगा।
- गरीब तबके के बच्चों को मिड-डे मील के माध्यम से आकर्षित करने हेतु नीतिगत परिवर्तन किया जाए। अल्पकालीन ठहराव वाले मजदूरों के बच्चों को प्रवजन प्रमाण-पत्र देकर उनकी शिक्षा को लगातार बनाए रखा जा सकता है। सीटीएस के माध्यम से डापआउट की पहचान तो होती है मगर कागजी खानापूर्ति में दब जाती है। अतः इस संदर्भ में जवाबदेही व पारदर्शिता सुनिश्र्चित की जाए।
इस प्रकार के कदमों से ही हम मिड-डे मील योजना को सफल बना पाएँगे। भारी-भरकम बजट जो खर्च किया जाता है उसका सदुपयोग भी होगा और उपस्थिति व नामांकन दर में भी बढ़ोत्तरी होगी।
– जीतेन्द्र कुमार सोनी “प्रयास’
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