कलाकार-विवेक ओबरॉय, जायेद खान, श्रेया शरण, शब्बीर अहलूवालिया, श्र्वेता भारद्वाज
निर्देशक-अपूर्व लखिया
भारत से शुरू होकर तुर्किस्तान-अफगानिस्तान होकर लौटने वाली सुरेश नायर की लिखी यह कहानी उसी पुरानी आतंकवाद की डगर पर चलती है। इस फिल्म के प्रारंभ में एक आधुनिक दम्पति के द्वारा जो समस्या लेखक ने उठायी है, उस पर दर्शकों को जरुर गौर करना चाहिए। जायेद खान एवं श्रेया शरण पति-पत्नी हैं। ये दोनों पत्रकार हैं। जायेद खान ने टी.वी. चैनलों पर धूम मचा रखी है, तो श्रेया समाचार-पत्रों से जुड़ी हैं। श्रेया मॉं बनना चाहती है और जायेद इसके लिए कुछ और समय तक रुकना चाहता है। इस बात को लेकर दोनों में अनबन होने लगती है और बात तलाक तक पहुँच जाती है। यह आधुनिक समस्या दिलचस्पी पैदा करती है। इस विषय को यहीं पर छोड़कर लेखक जायेद को इस्तानबुल पहुँचा देता है।
तुर्किस्तान के सबसे बड़े और विख्यात चैनल का मालिक है गजनी। टी.वी. पत्रकार सुनील शेट्टी इस चैनल-मालिक से जायेद की मुलाकात करवाता है। गजनी जायेद को मुंहमांगी तनख्वाह देने की बात करता है और पता नहीं क्यों, भारत के इस विख्यात पत्रकार को तीन महीनों के प्रशिक्षण के लिए रा़जी करता है। वे जायेद को नाईट क्लब ले जाते हैं, जहॉं श्र्वेता भारद्वाज से उसकी मुलाकात होती है। अपनी पारिवारिक समस्या को भूलकर जायेद श्र्वेता के साथ रंग-रेलियां मनाने लग जाता है।
इस्तानबुल के चैनल पर आतंकवादियों का आना-जाना बना रहता है और भारत के विख्यात टी.वी. पत्रकार जायेद खान को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं रहता है। ऐसे में अचानक तुर्की कमांडो विवेक ओबरॉय आता है, जो जायेद को इस बात से आगाह करता है कि उसकी ़िजंदगी खतरे में है। इस्तानबुल के उस चैनल से जो भी कर्मचारी नौकरी छोड़ना चाहता है, उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। सुनील शेट्टी का भी यही हाल होता है। आतंक की आग में जायेद अपनी पत्नी श्रेया को भी झुलसते देखता है और फिल्मी ढंग से जायेद तथा विवेक ओबरॉय अपने दुश्मनों को ढेर करके रख देते हैं।
बेसिर-पैर के घटनाक्रम को स्टाइलिश पोशाकों, महंगी लोकेशनों में कुख्यात आतंकवादियों और अमेरिका के अध्यक्ष को लाकर दर्शकों की आँखों में धूल झोंकने का प्रयत्न अपूर्व लखिया ने किया है। उनका भांडा न फूटे, इसलिए इस फिल्म को समीक्षकों से भी छिपाये रखा। मल्टीप्लैक्स फिल्मों के दौर में ऐसा अब होता रहेगा। इसलिए दर्शकों को बहुत ही सजग रहना पड़ेगा। जब बढ़े-चढ़े टिकट के दाम दे रहे हैं तो फिल्म का माल भी उचित रहना चाहिए, है ना?
– अनिल एकबोटे
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