आ़जादी के 61 साल बाद भी अपने देश में महिलाओं की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है। उन्हें अपने अधिकारों के लिए आज भी निरंतर संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ रहा है। अफसोस की बात तो यह है कि गैर ही नहीं, अपने भी महिलाओं को वह सम्मान नहीं देते जो उन्हें मिलना चाहिए। मसलन, एक 70 वर्षीय विधवा अपने दो संपन्न बेटों से इस कदर दुखी थी कि उन्होंने अपनी जायदाद का वारिस अपनी नौकरानी को बना दिया और बेटों को सिर्फ अपना “ठेंगा’ दिया। ऐसी स्थिति में सिर्फ कानून और अदालतें ही रह गई हैं जो महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। इस सिलसिले में दिल्ली की एक अदालत का फैसला वास्तव में मील का पत्थर है जिसके तहत सड़क हादसे में मरे एक युवक की बहनों को मुआवजे का हकदार ठहराया गया है।
5 मई, 2006 को दिल्ली के सुभाष मार्ग इलाके में अमीर हुसैन नामक एक युवक सड़क पार कर रहे थे कि तभी एक बस ने उन्हें कुचल दिया। इस हादसे के बाद मृतक की 4 बहनें जिनमें से 2 शादीशुदा थीं, अदालत गईं और बस डाइवर, बस मालिक और इंश्योरेंस कंपनी को प्रतिवादी बनाया। इन बहनों ने अपनी याचिका में कहा कि उनके माता-पिता इस दुनिया में नहीं हैं और उनका भाई ही उनका गार्जियन था। वह 3500 रुपये प्रतिमाह कमाता था जिससे घर का खर्च चलता था और इसी कमाई पर बहनें भी निर्भर थीं। अपनी व्यथा बयान करते हुए बहनों ने अदालत से प्रार्थना की कि उन्हें मुआवजा दिलाया जाए। जबकि दूसरी ओर प्रतिवादियों का तर्क था कि बहनें भाई पर निर्भर नहीं होती हैं, इसलिए वे मुआवजे की हकदार नहीं हो सकतीं।
दोनों पार्टियों की दलीलें सुनने के बाद दिल्ली में तीस हजारी की एक अदालत ने फैसला दिया कि अगर बहनें, भाई पर आश्रित हैं और भाई की सड़क हादसे में मृत्यु हो जाती है तो बहनें मुआवजे की हकदार होंगी। यह निर्णय देते हुए अदालत ने बस को इंश्योरेंस कवर देने वाली कंपनी को आदेश दिया कि वह मृतक के परिजनों को बतौर मुआवजा 3.84 लाख रुपये का भुगतान करे। दिलचस्प बात है कि अदालत ने शादीशुदा बहनों को भी मुआवजे का हकदार मानते हुए चारों बहनों को 96-96 हजार रुपये दिए जाने का निर्देश दिया। साथ ही अदालत ने इंश्योरेंस कंपनी को आदेश दिया है कि वह याचिका की तारीख से लेकर मुआवजे की राशि के भुगतान की तारीख के बीच राशि का 7.50 फीसद ब्याज का भी भुगतान करे।
अदालत ने दो टूक शब्दों में स्पष्ट किया कि मृतक की बहनें पूरी तरह से मुआवजे की अधिकारी हैं क्योंकि उनके माता-पिता नहीं हैं, ऐसे में उनका भाई ही उनके लिए गार्जियन है। निश्र्चित रूप से कोर्ट का यह निर्णय स्वागत योग्य है और यह बीमा मुआवजे के लिए ऩजीर भी बनेगा। उम्मीद की जाती है कि आइंदा बीमा कंपनियां तकनीकी बहानों के सहारे मुआवजा रोकने का प्रयास नहीं करेंगी और मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए अपना सामाजिक दायित्व भी निभाएंगी।
गौरतलब है कि न्यायाधीश स्वर्णकांता शर्मा ने स्पष्ट किया कि अदालत सिर्फ कानूनी दांवपेंच ही नहीं देखती बल्कि वह सामाजिक स्थिति और पीड़ित की बुनियादी स्थिति को भी मद्देनजर रखती है। इस मामले में पीड़ित बहनों के माता-पिता पहले ही गुजर चुके थे और ऐसे में वे अपने भाई पर निर्भर थीं। वैसे भी भारतीय समाज में बड़ा भाई पिता तुल्य होता है। माता-पिता के बाद वही अपनी बहनों की जिम्मेदारी उठाता है। इसलिए प्रतिवादियों की यह दलील मान्य नहीं हो सकती थी कि बहनें भाई पर निर्भर नहीं होतीं और इसलिए मुआवजे की हकदार भी नहीं हो सकतीं।
बहरहाल, जहां अदालत ने अपने फैसले के जरिए महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने का प्रयास किया है वहीं अहमदाबाद की एक महिला ने अपनी वसीयत की बदौलत पुरुषों को समझाने की कोशिश की है कि वे महिलाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से न भागें वरना वक्त आ गया है कि उन्हें “ठेंगे’ के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा।
70 वर्षीय विधवा कांतादेवी घटलोधिया क्षेत्र में स्थित अपने शानदार बंगले में रहती थीं। उनके दो बेटे हैं, एक अमेरिका में रहता है और दूसरा मुंबई में सरकारी कर्मचारी है। उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी दोनों में से कोई भी नहीं उठाना चाहता था, इसलिए इस समाजसेवी महिला के पास सिर्फ एक नौकरानी ही रहती थी। कांतादेवी अपने बेटों से इस बात को लेकर बहुत क्षुब्ध थीं। उन्होंने अपना बंगला, अपनी अन्य संपत्ति और अपना पैसा अपनी नौकरानी के नाम कर दिया जिसने आखिरी वक्तों में उनकी देखभाल की थी। कांतादेवी ने अपनी वसीयत में इसके अलावा लिखा कि उनके शरीर को एनएचएल मेडिकल कॉलेज के एनाटॉमी विभाग को दान कर दिया जाए और उसमें से एक अंगूठा काटकर उनके बेटों को दे दिया जाए। गौरतलब है कि अगर कोई अपना शरीर मेडिकल कॉलेज को दान करता है तो उसका अंगूठा मृत्यु के तीन दिन बाद काटकर उसके रिश्तेदारों को दे दिया जाता है, ताकि वे अंतिम संस्कार पूरे कर सकें। जाहिर है, कांतादेवी इस नियम से परिचित थीं, इसलिए उन्होंने अपना “ठेंगा’ अपने बेटों को वसीयत में दिया।
कांतादेवी का छोटा बेटा मेडिकल कॉलेज में 21 अगस्त को पहुंचा और उसे “अंगूठा’ सौंप दिया गया। जबकि बड़ा बेटा अंतिम िाया के लिए आया ही नहीं। कांतादेवी के रिश्तेदारों ने बीती 1 सितंबर को उनका “12वां’ किया। उसमें भी उनका बड़ा बेटा उपस्थित नहीं था।
इसमें शक नहीं है कि अपने देश में बुजुर्गों की, विशेषकर महिलाओं की दुर्गति उनके ही रिश्तेदार करते हैं। जब से संयुक्त परिवार का चलन खत्म हुआ है तब से बुजुर्गों की स्थिति अधिक दयनीय हो गई है। लोग अपने बीमार मां-बाप को बेसहारा छोड़कर दूसरे शहरों में नौकरी या कारोबार के लिए निकल जाते हैं और यह जानने की कोशिश भी नहीं करते कि उनके मां-बाप किस हाल में रह रहे हैं। बुजुर्ग मां-बाप को सिर्फ रोटी या दवाई ही नहीं चाहिए होती बल्कि प्यार भी दरकार होता है। कांतादेवी के पास पैसे की कमी नहीं थी, उन्हें अपने बेटों और पोते-पोतियों का प्यार चाहिए था। यही उनको नहीं मिल रहा था। इसलिए अपने बेटों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने वास्तव में उन्हें “ठेंगा’ दिखा दिया।
कांतादेवी ने जो कुछ किया है वह दूसरे लोगों के लिए सबक है। उन्हें भी अपनी जिम्मेदारियों को समय रहते समझ लेना चाहिए वरना ऐसे ही भावनात्मक “ठेंगे’ का सामना उन्हें भी करना पड़ सकता है। इस घटना को यहां बयान करना इसलिए जरूरी था ताकि कानून और अदालतें ही नहीं बल्कि लोग भी अपनी जिम्मेदारियों को विशेषकर महिलाओं के प्रति, अच्छी तरह से समझने व निभाने लगें वरना जहां अदालत से फटकार मिलेगी वहीं जिन्हें अपना समझा जाता है, वे भावनात्मक “ठेंगा’ भी दिखा देंगे।
– वीना सुखीजा
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