मुनाफा

वह नैतिक पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता था, बेऔलाद। नैतिक पार्टी के प्रति समर्पित था, सो पार्टी द्वारा उसका यथोचित दोहन भी किया जा रहा था। आए दिन पार्टी को किसी न किसी खर्चे की आवश्यकता पड़ती तो उसे बुलाया जाता, उत्साहित किया जाता, उसकी भागीदारी सुनिश्र्चित की जाती, बदले में उसकी गांठ ढीली हो ही जाती।

वैसे जनकराज भोला-भाला भी नहीं था, निरा बुद्घू भी नहीं। सब समझता था कि बातों के जाल में फंसाकर नैतिक पार्टी उस पर अपना जाल मजबूत कर रही है, ताकि वह नैतिक पार्टी का शिकार बना रहे, सो उसने जितनी भी गांठ कटवाई, संभल-संभल कर कटवाई। यदि उससे हजार रुपये की अपेक्षा की गई तो उसने दो सौ इक्यावन ही दिखाए, इंकार कभी नहीं किया।

नैतिक पार्टी ही उसके लिए अकेली न थी, पार्टी से जुड़े कुछ संगठन भी थे, जो गठबन्धन करने से सशक्त हुए थे। यदि नैतिक पार्टी में प्रवेश लेकर उच्च पद पर पहुंचना हो तो गठबंधन के किसी भी संगठन से जुड़ा जा सकता था। संगठन से जुड़ना ही नैतिक पार्टी की सदस्यता का प्रमाण था। सो सभी संगठनों की आर्थिक समृद्घि में जनकराज की भी भागीदारी थी। जनकराज उनके खर्चों की कुछ न कुछ भरपाई अवश्य करता था।

यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि जनकराज यह व्यवस्था कहां से करता था। यदि धन हो तो व्यवस्था कैसी। नैतिक पार्टी की विशेषता यही थी कि पहले व्यक्ति का इतिहास खंगाला जाए, उसकी आर्थिक दशा का अध्ययन हो, तदुपरान्त उस पर जाल फेंक कर उसका शिकार किया जाए।

जनकराज की आर्थिक दशा बुरी नहीं है। कस्बे में डेढ़ सौ बीघे में फैला विशाल बाग, आम, लीची, आडू, नासपाती, अमरूद के पेड़ों से भरा-पूरा। आलीशान हवेली, महानगर में सर्राफे का कारोबार, हर तरफ से चांदी बरसती थी, सो जाल उस पर सही तरीके से फेंका गया था। जाल फेंकने से पहले बाकायदा एक फाइल बनाई गई थी, जिसमें जनकराज से संबंधित समस्त जानकारियां एकत्र की गई थीं। तदुपरान्त उसके सम्मुख दाना-चुग्गा डाला गया था कि नैतिक पार्टी का मुखिया उनके घर आकर जल-पान करेगा। उसके बाद ही महानगर में जनसभा को संबोधित करने जाएगा। बताइए इसके बदले आप नैतिक पार्टी की क्या सहायता कर सकते हैं?

नैतिक पार्टी में प्रवेश करने से पूर्व जनकराज भ्रमित था। नैतिक पार्टी का आचरण उसे अच्छा लगता था, उसके कार्यकर्ता कला और संस्कृति के रखवाले बनने का दम भरते थे। कहीं पर संस्कृति पर चोट लगती, लाठी-डण्डे लेकर नारे लगाने लगते, जनकराज भी उद्वेेलित होते। काश! मैं भी अपने धर्म और संस्कृति के पक्ष में खड़ा होकर देश की सेवा कर सकता।

नैतिक पार्टी के मुखिया को जल-पान कराना गौरव का विषय था। पलक झपकते ही उसकी प्रतिष्ठा नैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं में बढ़ जाएगी, ऐसा उसे समझाया गया था। समझाने वाले वे सिाय कार्यकर्ता थे, जिन्होंने जनसभा का आयोजन किया था तथा जनसभा के खर्चों के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे। जनकराज उनके कहने में आ गए, थैलियों के मुंह खोल दिए।

पूरे इक्कीस हजार रुपये गिनकर दिए तथा पांच सौ आदमियों के जल-पान का प्रबन्ध किया सो अलग। जनसभा वाले दिन घर की लम्बी-चौड़ी छत पर शामियाना लगवाकर जल-पान का इंतजाम किया था। दो दिन पहले हलवाई आकर लग गए थे। इस जलˆपान के लिए जनकराज ने अपने खास संबंधियों को भी आमंत्रित कर लिया था, ताकि अपना रुतबा दिखाया जा सके। बिल्कुल बड़े पारिवारिक उत्सव का-सा दृश्य उपस्थित हुआ था।

नैतिक पार्टी के मुखिया समय पर आ गए, यही नैतिक पार्टी की पहचान भी थी। जल-पान तो एक बहाना था, जिसके पीछे मुख्य उद्देश्य जनकराज को नैतिक पार्टी से जोड़ना था। जनकराज के निजी फोटोग्राफर्स ने मुखिया के साथ जल-पान करते हुए जनकराज के फोटो खींचे, वीडियो रील बनाई, सम्बन्धियों ने भी समूह चित्र खिंचवाए, लगभग आधे घण्टे तक जनकराज नैतिक पार्टी के मुखिया से चिपके रहे। फोटोग्राफर्स मुस्तैद रहे। शादी की अलबम से भी बड़ी अलबम तैयार हो गई।

जनसभा के उपरांत जनकराज का सम्मान नैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं में बढ़ गया। कार्यकर्ता उन्हें जनकराज जी कहकर संबोधित करने लगे। नैतिक पार्टी ने उनकी आर्थिक सेवाओं के बदले उन्हें पार्टी की नगर इकाई का उपाध्यक्ष घोषित कर दिया। यह पद जनकराज की गरिमा के अनुकूल भी था। पद पाकर वह फूले नहीं समाए थे। पहला कार्य उन्होंने यही किया था कि कोठी के मुख्य-द्वार पर पदनाम की नामपट्टिका लटका दी थी।

जनकराज प्रसन्न थे, नैतिक पार्टी की मंशा से अनभिज्ञ। पद प्राप्ति के उपरांत नैतिक पार्टी ही नहीं अपितु उससे जुड़े संगठनों से भी जनकराज को बुलावा मिलने लगा। जनकराज की प्रतिष्ठा में जैसे चार चांद लगने प्रारम्भ हो गए थे। प्रत्येक संगठन में कोई न कोई पद देकर उन्हें सम्मिलित कर लिया जाता। वह समझते कि यह सम्मान उनके बढ़ते हुए राजनैतिक कद का कमाल है, किन्तु बात कुछ और ही थी, जिसे वही बखूबी समझते थे, जो उन्हें पद प्रदान कर रहे थे।

कुछ ही अन्तराल में नैतिक पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों में जनकराज की पैठ बन गई। जनकराज हर समय उनकी सेवा में तत्पर जो रहते थे। आय के स्रोत अधिक होने के कारण खर्चों का कोई बोझ उन्हें अनुभव ही नहीं होता था। जनकराज की इस स्थिति से उनके खानदानी अवश्य परेशान थे, जिन्होंने उनके धन पर अपनी गिद्घ दृष्टि जमा रखी थी।

कई बार जनकराज के बड़े भाई ने समझाया भी, “”घर का धन घर में ही रहना चाहिए। औलाद न होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दोनों हाथों से धन लुटाया जाए। तेरे सन्तान नहीं है तो क्या, परिवार में और भी सन्तानें हैं, उन्हें अपनी सन्तान समझकर धन का अपव्यय बंद कर दे।” किन्तु जनकराज पर जैसे परिजनों की बातों का कोई असर न होता।

नैतिक पार्टी में बढ़ते कद के बावजूद कुछ ऐसा अवश्य था, जो जनकराज और उनकी पत्नी के बीच दुःख का कारण था। कई रातें पति-पत्नी करवटें बदलकर गुजारते थे, नींद थी कि आने का नाम ही नहीं लेती थी। सन्तान की चाह भला किसे नहीं होती। जनकराज की पत्नी दमयंती ने कितने ही जतन किए, व्रत-उपवास में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, अन्न-जल त्याग कर तपस्या की। मंदिरों की पैदल यात्राएं कीं, किन्तु सब कुछ व्यर्थ हो गया, कोख हरी न हुई।

डॉक्टरी रिपोर्ट में भी कोई कमी नहीं, फिर भी सन्तान-सुख न मिलना जनकराज के दुःख का कारण बन गया। जनकराज दिनभर कारोबार के सिलसिले में व्यस्त रहते। रात्रि में नैतिक पार्टी और उससे जुड़े संगठनों की सभाओं में सिाय हो जाते। घर में पत्नी, पूजा-पाठ में ही समय व्यतीत करती। धन-वैभव के उपरांत भी सादगीपूर्ण आचरण, सीधा-सादा पहनावा, न गहनों का शौक, न कपड़ों का। हरा-भरा पेड़ अपने फलों से ही फलता-फूलता प्रसन्न दिखाई देता है, फलहीन वृक्ष-सी दमयन्ती स्वयं को ठूंठ से अधिक कुछ न समझती।

जनकराज सब कुछ समझ कर भी नासमझ बना रहता। पत्नी को पूजा-पाठ में व्यस्त देखकर कई बार भीतर ही भीतर रिसता था वह। मन ही मन भगवान से गुहार भी लगाई- “”हे ईश्र्वर! दमयंती को कौन से पापकर्म की सजा दे रहा है? जो सजा देनी है, मुझे दे दे, मगर दमयंती को सन्तान सुख प्रदान कर दे।” पर सभी इच्छाएं पूरी हो जाएं, भला कैसे संभव है। यदि ऐसा हुआ तो आदमी ही परमात्मा नहीं बन जाएगा। पंडितों-ज्योतिषियों का सहारा लिया, किन्तु ठगी के अतिरिक्त कोई उपचार नहीं मिल सका। यह कहकर शंका जताई गई “”यह पिछले कर्मों का फल है।”

अगले-पिछले कर्मों के नाम पर न जाने व्यक्ति को कब तक भ्रमित किया जाता रहेगा? अगला-पिछला जन्म किसने देखा है। बस, चल रहा है, सो चल रहा है, जिसे जैसा चाहो बहका दो, कोई अंकुश नहीं। जनकराज उलझ कर रह जाता। वह अपनी व्यथा कहे तो किससे? कहीं न कहीं, किसी न किसी अभाव का उसे आभास होता कि जैसे देह शक्तिक्षीण होती जा रही है। दुःख रिस कर अन्तःकरण को भिगो देता। असहाय, निरूपाय, निरुत्तरित दुःख दूर करने के लिए किसी ने कोई सहारा सूझा दिया, उसे भी अपना कर देख लिया। पहला घूंट भरते ही लगा कि जैसे किसी ने खौलता हुआ लावा गले में उड़ेल दिया हो, कड़वा जहर मगर थोड़ी ही देर में शरीर की नसों में जैसे मादकता भर चुकी हो, वह आराम से सोया। न नींद में कोई खलल, न चिन्तनीय स्वप्न। सभी कुछ जैसे थम गया हो। दमयन्ती ने देखा तो गालों पर आंसू ढुलक आए। मैं तो अपनी पीड़ा भगवान को सौंपकर मुक्ति पा लेती हूं, पर आदमी की जात है- इतनी जल्दी हार कैसे मान ले। अपना दुःख दूर करने के लिए आदमी किसी भी हद तक जा सकता है, कभी भी बहक सकता है। शुा है कि जनकराज सारा कष्ट अपने शरीर पर ही ले रहा है, सन्तान सुख के लिए मेरी सौतन लाकर छाती पर नहीं बैठा रहा। करनी पर आ जाए तो आदमी क्या कुछ नहीं कर सकता, आखिर आदमी है प्रभुत्व दिखा सकता है। अपनी सत्ता का लाभ उठा सकता है। पर नहीं, चाहे जैसा भी हो, है लाखों में एक। हीरा है, हीरा। पत्नी की नजर में वह हीरा ही बना रहा।

उधर, नैतिक पार्टी प्रान्तीय सत्ता में आई, तो जनकराज के भाव बढ़ गए। नगरपालिका चुनावों में उसकी चेयरमैनी पक्की हो गई। दो-तीन साल जमकर कार्य किया। लालच था नहीं, सो विकास कार्य भी खूब हुए। जनकराज की पहचान पार्टी के ईमानदार नेता के रूप में बन गई। वैसे नैतिक पार्टी में नेता पद के लिए ईमानदारी पहली शर्त थी, पर यह अलग बात थी कि ईमानदारी की परिधि में नेता विशेष ही परिभाषित थे, उसके परिजन नहीं। यही कारण था, नगर पालिका की महिला सभासद के पति ने ठेकेदार बनकर जनकराज का खूब लाभ उठाया, ठेकों में खासा मुनाफा कमाया।

उत्थान व पतन राजनैतिक पार्टियों के लिए नयी बात नहीं थी, सो कुछ राज्यों के चुनावों में नैतिक पार्टी की पराजय ने पार्टी के सितारे गर्दिश में ला दिए। जनकराज में भी बेचैनी बढ़ी। यूं तो आय के साधनों की जनकराज पर कुछ कमी न थी, पर वह व्यक्ति ही क्या जो आजीविका के क्षेत्र में संतुष्ट हो जाए। संतुष्टि व्यक्ति को आगे बढ़ने से रोकती है। इसी ब्रह्म वाक्य को सूत्र मानकर जनकराज आय के साधन बढ़ाने का विचार करने लगा।

आबकारी विभाग के अफसरों से जान-पहचान थी। नैतिक पार्टी का प्रतिष्ठित पदाधिकारी होने के कारण कई बार आबकारी विभाग के अधिकारियों के काम आ चुका था। कुछेक का स्थानांतरण मनचाही जगह करा चुका था, फिर चांदी के जूते का वजूद भी कम न था। उसने अपनी पत्नी और उसके भाई के नाम से दो शराब के ठेकों के लायसेंस प्राप्त कर लिए- ठेका देशी शराब, ठेका विलायती शराब। मुख्य मार्ग पर पड़े खण्डहरनुमा मकान को सप्ताह भर में शराब के ठेकों में बदल दिया। दो अलग-अलग कैंटीन भीतर के बरांडों में पार्टीशन करके बनवा दी गईर्ं।

शराब की आपूर्ति भिन्न-भिन्न स्रोतों से होनी थी। पुराने ठेकेदार के विश्र्वसनीय नौकर को ऊंची पगार पर रख लिया था। पगार के साथ-साथ अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि का भी लालच दिया गया था, सो धंधे के खास गुर उसने जनकराज के दिमाग में बैठा दिए थे। धंधा खूब चल निकला, दिन दूनी रात चौगुनी गति से। देशी शराब के नाम पर सब कुछ जायज था, सो रंगीन तीखी शराब में तीखापन लाने के लिए मिलावट कराई जाने लगी। इसके लिए अलग गोदाम की व्यवस्था की गई। शराब के नाम भी कुछ विशेष रखे गए, यह नाम शराब की विशिष्टता और नशे की तीव्रता के अनुसार रखे गए। जनकराज को यह धंधा खूब रास आया।

नैतिक पार्टी से जुड़े संगठनों को जनकराज के नये धंधे की जानकारी मिली, तो वे सकते में आ गए। जनकराज का नैतिक पार्टी से जुड़ा होना नैतिक कार्यों की अपेक्षा करता था, किन्तु शराब का धंधा तो पूरी तरह अनैतिक था। घर- गृहस्थी बिगाड़ने वाला, नशा विरोधी समिति ने बरसों तक जनकराज को समिति का अध्यक्षीय दायित्व सौंपे रखा। वर्तमान में भी नशा विरोधी समिति में वह संरक्षक थे। खासा चंदा भी दिया करते थे। पहले जब नशा विरोधी समिति के अध्यक्ष थे तो उनकी अगुवाई में शराब के ठेकों पर धरना व प्रदर्शन किए जाते थे, अब वही नशा बेचने में सर्वाधिक सिाय थे, बाकायदा लायसेंसशुदा व्यापारी।

नैतिक पार्टी से जुड़े संगठनों की समन्वय समिति में जनकराज की पेशी हुई, पार्टी की प्रतिष्ठा का सवाल जो ठहरा। शराब के ठेके से नैतिक पार्टी की प्रतिष्ठा पर आंच जो आ रही थी। पेशी में जनकराज उपस्थित हुए। उन्हें यह कह कर समझाने का प्रयास किया गया, “”नैतिक पार्टी व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ने का कार्य करती है। इसके सदस्य नैतिक कार्यों के लिए पहचाने जाते हैं, सो शराब का धंधा छोड़कर नैतिक पार्टी की प्रतिष्ठा को कलंकित होने से बचाएं।”

बहुत देर तक जनकराज शांत-भाव से सुनते रहे और “व्यापारी के लिए धंधा ही सर्वोपरि है’ का ख्याल आते ही उबल पड़े, “”सारी नैतिकता की दुहाई मेरे लिए ही है। नैतिक पार्टी के मुखिया नशाखोरी करते हैं, उनके विशिष्ट कक्ष में महंगी से महंगी विदेशी शराब रहती है। एक पदाधिकारी इतने रंगीन मिजाज हैं कि महानगर की रंगीनियों में झूमते रहते हैं। एक पदाधिकारी जमाखोरी में सिद्घहस्त हैं। माल की कमी का बहाना बनाकर दुगने-तिगुने दामों पर सामान बेचते हैं, फिर क्या सारी नैतिकता मेरे लिए ही है?”

समन्वय समिति के मुखिया सच्चिदानंद के पास जनकराज के प्रश्नों का कोई उत्तर न था। सो चुप रहने में ही उन्होंने भलाई समझी। जनकराज नैतिक पार्टी से नाता तोड़ने की धमकी देकर चालाक व्यापारी की तरह उठ खड़े हुए। जनकराज के कृत्य की आलोचना करने वालों ने इस स्थिति की कल्पना तक नहीं की थी, सो उन्हें मनाने में जुट गए। अन्य प्रभावशाली पद उन्हें सौंपने की पेशकश करने लगे। जनकराज का तीर निशाने पर था, वह प्रसन्न थे, क्योंकि नैतिक पार्टी में उन्होंने जो आधार बनाया था, उसी आधार पर मिले शराब के ठेकों से उनकी आमदनी और मुनाफा इतना अधिक था कि उसकी गणना से जनकराज चमत्कृत थे। नैतिक पार्टी एवं उससे जुड़े संगठनों पर किए गए खर्चे को वह शराब के ठेकों की आय के रूप में “सूद सहित वसूल’ कर चुके थे।

-डॉ. सुधाकर आशावादी

 

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