देश गंभीर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट के दौर से गुजर रहा है। विघटनवादी ताकतें हर स्तर पर हमारी सामाजिक और राष्टीय एकता को छिन्न-भिन्न करने में जुट गई हैं। कोई एक पक्ष नहीं अपितु पूरा का पूरा परिदृश्य चिन्ताजनक है। पूरा देश अस्थिरता, अराजकता, आतंक, भ्रष्टाचार, पूंजीपतियों की लूट और मेहनतकश लोगों की तबाही का एक अलिखित दस्तावे़ज बन गया है। अलावा इसके आम आदमी की रोटी को खतरे में डालती महंगाई और कमीशनखोर अर्थव्यवस्था का एक काला अध्याय यह भी है कि सांप्रदायिकता अपने लिए स्वर्णिम अवसर मान कर इसे भुनाने पर उतारू है। आदमी ने हर स्तर पर अपनी प्रासंगिकता खो दी है, अगर कुछ प्रासंगिक रह गया है तो वह है राजनीति। वह राजनीति जिसने आदमी की हैसियत सिर्फ एक “वोट’ की बना दी है।
मुनाफे की संस्कृति ने हमारे मूल्य हमसे छीन लिए हैं। इसने हमारे सवालों को ही नहीं, हमारे सपनों को भी बहुत बेरहमी से कुचला है। यह वह संस्कृति है जिसने सारे सरोकारों और संबंधों को जिंस की तरह बाजार में बिकाऊ बना कर खड़ा कर दिया है। इसने जिन विकृतियों को उभारा है उसे आने वाला समाज ढो सकेगा या नहीं अथवा वह इनके दबाव में आत्महत्या कर लेगा, समाजशास्त्रियों को समय रहते हर हाल में इन प्रश्र्न्नों के उत्तर तलाश कर ही लेने होंगे। देश सनातन रूप में अब तक एक संस्कृति के धरातल पर जीता आया है, अगर यह धरातल उसके पॉंव के नीचे से खिसक गया तो उसका अस्तित्व बचे रहने की संभावना किस तरह व्यक्त की जा सकती है। नई तकनीक का विस्फोट, हमारे अर्थतंत्र का नया ढॉंचा, हमारे समाज को किन नरकों के हवाले करेगा, कहा नहीं जा सकता।
पश्र्चिमी देशों की गला-काट प्रतियोगिता से हम अपरिचित नहीं हैं। इस अंधी दौड़ ने गंभीर रूप से नैतिक और सामाजिक मूल्यों को आहत किया है। पश्र्चिम के विकसित देश विश्र्व के 80 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं, जबकि उनकी जनसंख्या कुल जनसंख्या की सिर्फ 20 प्रतिशत है। फिर भी वे संतुष्ट नहीं हैं और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े देशों में शोषण का नया-नया रास्ता तलाश करने में जुटे हैं। उनका महाजाल है उनके द्वारा सहायतार्थ दिये जाने वाला कर्ज। एक बार उनके इस कर्जजाल में जो फंसा, फिर उसे इनका गुलाम बन कर ही रहना पड़ता है। नई सूचना टेक्नोलॉजी का विकास भी इन्हीं के द्वारा हुआ है और अब यह भी उनके विश्र्वव्यापी शोषण का एक हथियार बन गई है। यह आंकड़ा जानने योग्य है कि विश्र्व का 75 प्रतिशत सूचना बाजार सिर्फ 80 बहुराष्टीय कंपनियों के हाथ में है। बहुराष्टीय कंपनियों का यह सूचना उद्योग अपने लिए सिर्फ मुनाफे की ही संस्कृति को निर्मित नहीं करता बल्कि पिछड़े और विकासशील देशों की राष्टीय संस्कृति का चेहरा भी बदल डालता है। वे सूचना टेक्नोलॉजी से मिली ताकत का इस्तेमाल अपने राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर रहे हैं। उनकी वर्तमान संस्कृति ने लोभ को एकमात्र गुण, लाभ को एकमात्र मूल्य, भोग को एकमात्र उद्देश्य और वाणिज्य-व्यापार को एकमात्र धर्म निरूपित किया है। मजा तो यह है कि अपने को एक महान सांस्कृतिक देश घोषित करने वाले भारतीय चिन्तनधारा के पहली कतार के लोग भी अब उन्हीं के साथ कदमताल करते दिखाई दे रहे हैं।
बात भूमंडलीकरण की, की जा रही है, लेकिन फैलाव बाजारवाद का हो रहा है। सही मायने में यह “आवारा’ पूंजी का दौर है। सच तो यह है कि यह अमेरिकी पूंजी के प्रभुत्व का विस्तार है। इसके पीछे अमेरिकी सैन्य शक्ति भी अपनी भूमिका भली-भॉंति निभा रही है। इसके विनाशकारी प्रभाव का नजारा पिछले दिनों इराक और अफगानिस्तान में असंख्य बेगुनाहों की निर्मम हत्या के रूप में सारी दुनिया ने देखा है। लूट और झूठ की ताकत क्या होती है, अब इसे साबित करने की ़जरूरत नहीं रह गई है। मौजूदा परिदृश्य में इलेक्टॉनिक मीडिया विश्र्व पूंजीवाद और उसके बा़जारवाद का सबसे बड़ा मददगार माध्यम बन गया है। इस गहराते संकट के दौर में मानवीय चिन्तायें और सामाजिक चिन्ताओं की अभिव्यक्ति ही फैलाये जा रहे अंधकार के बीच आशा तथा उम्मीदों की मशाल बन सकती है। मनुष्यता के लोप के बीच मनुष्यता की स्थापना का संकल्प आज की सबसे बड़ी ़जरूरत है। हमें हर हालत में समाज की छीजती हुई प्राणशक्ति को पुनर्जीवित करने का कर्त्तव्य निभाना होगा। आवश्यकता है कि इस अंधी सुरंग की यात्रा पर निकल चली मानवता को हम खुले आकाश के नीचे ले आयें और “विकास’ की उस परिभाषा से उसे जोड़ें जिसका अंत “विनाश’ में न होता हो। मनुष्यता को और कुछ मिले या न मिले उसे जीने के लिए एक हरी-भरी धरती और सपने देखने के लिए एक नीला आकाश तो चाहिए ही।
आज की सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय आकांक्षा यही होनी चाहिए कि हम मनुष्य को मनुष्य रहने दें। उसे कुछ और बनाने की कोशिशों से बाज आना चाहिए। हमारे लिए संस्कृति का प्रश्र्न्न किसी सत्ता-सरोकार का प्रश्र्न्न नहीं है, बल्कि यह आदमी के सपनों से जुड़ा हुआ है। बिना सांस्कृतिक संघर्ष की दिशा तय किये, देश और समाज के निर्माण की रूप-रेखा तय नहीं की जा सकती। पूंजीवादी और साम्राज्यवादी ताकतें अपने अस्तित्व को जिन्दा रखने के लिए अनेक प्रकार की सैद्घांतिक प्रवंचनाओं की सृष्टि कर रही हैं। प्रवंचनायें क्रांतिकारी संघर्षों को गलत दिशाओं में मोड़ देती हैं और फिर एक गंभीर निराशा पराजय बोध के साथ मनोबल को हर स्तर पर तोड़ देती है। लड़ाई को कम़जोर बनाने के लिए ये ताकतें सिर्फ करीने के साथ दिशा परिवर्तन ही नहीं करती हैं, ये लड़ने वालों को अलग-अलग खानों में वर्गीकृत ऐसे सवाल उछाल देती हैं कि इनसे लड़ने वाले आपस में ही लड़ने लगते हैं।
हमारे सामने मुक्त अर्थव्यवस्था और मुक्त बाजार की ढोल पीटने वाले बहुत मिल जायेंेगे। इसकी वास्तविक तस्वीर क्या है, इसके जन्मदाता अमेरिका की धरती पर ही देखा जा सकता है। मुक्त बाजार का पुरोधा कहा जाने वाला यह देश जिस आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, वह भी इसी मुक्त अर्थव्यवस्था की ही देन है। जिस तरह उसका डॉलर विश्र्व बाजार में पिट रहा है, वह मुक्त बाजार की ही देन है। मुक्त बा़जार का पुरोधा कहा जाने वाला यह देश आज गरीबी, रंगभेद, बेरोजगारी और हिंसा की आग में जल रहा है। जिन-जिन देशों को इसने मुक्त अर्थव्यवस्था का उपहार दिया है वे सभी इसी त्रासदी के शिकार हैं। इस व्यवस्था में उपभोक्ता भी बा़जार में बिकने वाला पदार्थ बन गया है। हमारी संस्कृति, हमारे संसाधन, हमारा श्रम, हमारा शरीर और हमारी अस्मिता वस्तु की तरह बिकने के लिए खुले बाजार के काउंटर पर सजा दी गई है। बेशर्मी, बेईमानी, फरेब, भ्रष्टाचार, झूठ, अनैतिकता और व्यभिचार युगधर्म बन गये हैं और आधुनिक विकास की परिकल्पना के नियामक तत्व भी यही माने जा रहे हैं। जिसे इस व्यवस्था से परहेज है, वह आदमी सामाजिक रसूख पाने का ह़कदार नहीं रह गया है। उसे दो कौड़ी को भी कोई खरीदने को तैयार नहीं है।
हमारी अर्थव्यवस्था अन्तर्राष्टीय अर्थव्यवस्था के व्यामोह में फंसी बहुराष्टीय कंपनियों के काले जादू से विमोहित है। उनका यह काला जादू मनमोहक विज्ञापनों के जरिये हमारा “ब्रेनवाश’ कर रहा है। बहुराष्टीय कंपनियों द्वारा इलेक्टॉनिक संचार माध्यमों से हमारी अति प्राचीन संस्कृति पर लगातार हमला किया जा रहा है। उसका उद्देश्य और परिणाम उपभोक्तावादी सभ्यता के माध्यम से अपसंस्कृति का फैलाव है। विभिन्न टी.वी. चैनल जिन विज्ञापनों का प्रचार कर रहे हैं और जिन्हें भड़काऊ, अश्र्लील और हिंसात्मक कहने में कोई हिचक नहीं होगी, उनमें से अधिकांश बहुराष्टीय कंपनियों के उत्पादों से ही संबंधित हैं। क्या इस प्रयास को सामाजिक स्तर पर आम आदमी को मानसिक रूप से गुलाम बनाना नहीं स्वीकारा जा सकता? उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचार और विस्तार अन्तर्राष्टीय शोषणतंत्र को जारी रखने का एक कारगर हथियार है, जिसे साम्राज्यवादी देश बहुराष्टीय कंपनियों के माध्यम से ब़खूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। हम एक गुलामी से मुक्त होकर जाने-अनजाने एक नई गुलामी की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं।
हमें न भूमंडलीकरण से एतराज है और न ही बाजारवादी व्यवस्था से। हमें आज की महानतम वैज्ञानिक उपलब्धियों से भी कोई गुरेज नहीं है। हमें यदि कोई आपत्ति है तो उस शोषणवादी व्यवस्था से है जो मुनाफे की संस्कृति को सनातन मानवीय मूल्यों के ऊपर तरजीह दे रही है। हमें सिर्फ आपत्ति भर नहीं है बल्कि हम विश्र्व मानवता को चेतावनी भी देना चाहते हैं कि यह व्यवस्था विश्र्व मानवता को एक संपूर्ण विनाश के दहाने तक खींचे लिए जा रही है। वैश्र्विक संकट के गर्भ में इसी अर्थव्यवस्था के भ्रूण पल रहे हैं। इस व्यवस्था ने हमारी हरी-भरी धरती को, जो इस सौर मंडल का सबसे सुंदर ग्रह है, आज बारूद के ढेर पर बिठा दिया है। इसने आदमी की भूख को तो लूटा ही है, इसने प्रकृति का दोहन कर उसे निष्प्राण बना देने में कोई संकोच नहीं किया है। संसाधनों को गुलाम बना कर यह अमरत्व की कामना का नया विधान कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए तैयार कर रही है। लेकिन इसे पता नहीं है कि पूरी पृथ्वी संकट में है, अगर प्रकृति का उन्माद किसी भी क्षण प्रलयंकारी रूप धारण करेगा, तो वह न अमेरिका को देखेगा और न ही कांगो को।
विश्र्व मानवता को इस संकट से उबारने का नुस्खा हमारे पास है, लेकिन हम स्वयं पश्र्चिमी सभ्यता के इस व्यामोह चा में फंसे हैं। हम अपनी शक्ति को विस्मृत कर दूसरों से ताकत मॉंग रहे हैं। इस भिखमंगेपन ने हमें अपने राष्टीय गौरव और अस्मिता से दूर कर दिया है। हम अपनी ़खुद की संजीवनी को भूल कर उनकी “वियाग्रा’ पर यकीन करने लगे हैं। लेकिन हमें याद रखना होगा कि “वियाग्रा’ सिर्फ क्षणिक उन्माद भर दे सकती है और संजीवनी में वह प्राणशक्ति है जो जीवन की धारक है। दायित्व हमारे ऊपर बहुत बड़ा है क्योंकि हमें स्वयं की भी रक्षा करनी है और महाविनाश के कगार पर खड़ी विश्र्व मानवता को भी बचाना है।
– रामजी सिंह “उदयन’
You must be logged in to post a comment Login