दिल्ली से अंबाला जीटी रोड जाते समय अंबाला तथा शाहबाद के बीच एक नदी के तट पर नौ गजा पीर (सैयद हाफिज मो. इब्राहिम) की दरगाह बनी हुई है। वैसे तो यहां से गुजरने वाला हर श्रद्घालु मस्तक नवाता है, परन्तु अधिकतर टकों के डाइवर तो विशेष रूप से मत्था टेक कर जाते हैं।
मुख्य द्वार से मजार तक पहुंचने के लिए छति हुई सुंदर सीढ़ियां बनी हुई हैं ताकि धूप एवं बरसात में श्रद्घालुओं को असुविधा न हो। नीचे उतर कर कुछ ही कदम चलकर दरगाह में स्थित नौ गज लंबी बाबा की मजार के दर्शन होते हैं, जिस पर नीले रंग की चादर बिछी होती है तथा मोर पंखों के चंवर रहते हैं। एक ओर बहुत सारे चिराग रोशन होते हैं, जिनमें श्रद्घालुजन बाहर से सरसों का तेल लाकर डालते हैं, धूप अगरबत्ती जलाते हैं और प्रसाद चढ़ाते तथा सजदा करते हैं।
दरगाह का रखरखाव खण्ड विकास एवं पंचायत कार्यालय शाहबाद की देखरेख में हो रहा है, जिसकी तरफ से एक प्रबंधक नियुक्त किया जाता है। भारतीय सेना के अधिकारी पद से निवृत वहॉं के प्रबंधक ने बताया कि बाबाजी समेत यहॉं हम सभी सेना से संबंधित हैं। यहां पर हर जाति एवं धर्म के लोग प्रतिदिन सैकड़ों तथा हजारों की संख्या में आकार-मत्था टेकते हैं, उनमें से कई चादर तथा घड़ियां भी चढ़ाते हैं। दरगाह चौबीस घंटे खुली रहती है तथा अखण्ड जोत जलती रहती है। घड़ियां गरीब कन्याओं के विवाह, पाठशालाओं व धार्मिक स्थलों में दे दी जाती हैं। हर वीरवार को यहां भारी मेला लगता है तथा भण्डारे का आयोजन भी किया जाता है, जिसमें आसपास के गांवों के तथा बाहर से आने वाले श्रद्घालुजन प्रसाद ग्रहण करते हैं। दरगाह के साथ शिव मंदिर भी बना हुआ है, जहां पर हर श्रद्घालु अपने श्रद्घा सुमन अर्पित करता है, इसलिए यह स्थान आपसी भाईचारे सर्वधर्म, सद्भावना व आस्था का प्रतीक कहलाता है।
कुछ धार्मिक स्थलों के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक प्रमाण मिलने असंभव होते हैं। इसलिए केवल लोक विश्र्वास व जनश्रुतियों को ही प्रमाण के रूप में मान्यता दी जाती है। इस दरगाह के बारे में भी लोक विश्र्वास एवं जनश्रुति के आधार पर कुछ मान्यताएं हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है –
यह दरगाह 400 साल से भी ज्यादा पुरानी है। जिस नदी के तट पर यह बनी हुई है वह क्षेत्र बहुत ही सुंदर एवं रमणीक हुआ करता था, इसलिए अनेक सूफी संत यहां पर तपस्या किया करते थे। एक बार मुगल शासन के समय सेना ने इसी नदी पर पड़ाव डाला था। सेना के कैप्टन मोहम्मद इब्राहिम का रात्रि में इस जगह पर एक सूफी संत के साथ संपर्क हुआ, जो यहां कुटिया बनाकर रहते और तपस्या किया करते थे। उन संत से वे इतने प्रभावित हुए कि नौकरी से त्याग-पत्र देकर उन्हीं की शरण में रहने लगे और उनके सान्निद्य में तपस्या व साधना द्वारा पूर्ण रूपेण सिद्घि प्राप्त कर गए। तत्पश्र्चात् जीवनपर्यन्त जनसेवा में लगे रहे और इसी जगह संसार से विदा ली। यही वह पुरातन तपोस्थली है। कहते हैं कि सन् 1545 में लार्ड डलहौजी के समय जब जीटी रोड बनाई जा रही थी, तो वर्तमान पुल जितना बनाया जाता, उतना ही रात को गिर जाता था। कई दिन ऐसे ही चलता रहा। एक रात ठेकेदार को स्वप्न में बाबा जी दिखाई दिये, उन्होंने कहा कि यहीं आसपास मेरा स्थान है, उसे ढूंढकर सफाई करके जोत जलाओ, मत्था टेको तो पुल बन जाएगा। उसने बाबा के आदेशानुसार वैसा ही किया, अगले दिन से पुल का कार्य निर्विघ्न रूप से चलता गया। उसके बाद तो श्रद्घालुजनों का दरगाह पर आना शुरू हो गया और तभी से यह परम्परा आज भी जारी है।
भूतपूर्व प्रबंधक श्री रामनाथ गुलाटी जो कि हरियाणा राजस्व विभाग कुरुक्षेत्र से 1996 में अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए थे, प्रशासन ने उनको यहां का प्रबंधक नियुक्त कर दिया था। वह लगभग 10 वर्ष तक इस पद पर आसीन रहे। उनके कार्यकाल के दौरान श्रद्घालुजनों से बाबा जी के बारे में प्राप्त विशेष जानकारी के आधार पर उन्होंने बताया कि बाबा जी सेना में अफसर थे तथा उनका कद 9 गज का ही था, और शिव मंदिर भी उन्हीं की प्रेरणा से बना था। चरणजीत सिंह अटवाल जो कभी पंजाब विधानसभा के स्पीकर थे, उस दौरान वह एक साथी लेख राज के साथ दरगाह पर मत्था टेकने पहुंचे तो लेख राज ने बड़ी ही भावुक शब्दों में सुनाया कि उसने कोई मन्नत मांगी थी, वह पूरी हो गई परन्तु दरगाह पर मत्था टेकना भूल गया। एक रात स्वप्न में बाबा जी ने उसे बहुत डांटा और कहा कि इस भूल की तुम्हें सजा जरूर मिलेगी, इसलिए वह तुरंत दरगाह पर आया है। उसने आगे कहा कि जब मैंने उनकी ओर देखा तो वह वर्दी पहने हुए थे, उनकी ऊँचाई इतनी थी कि उनके मुंह की तरफ देखने के लिए मुझे अपनी गर्दन ऊपर उठानी पड़ी। वह जमीन पर खड़े-खड़े ही घोड़े पर चढ़कर चले गए।
बिजली बोर्ड कुरुक्षेत्र से एक ऑफिस कर्मचारी रामस्वरूप दरगाह पर चादर चढ़ाने आया था, उसने बताया कि उसको अपनी लड़की के विवाह के लिए लड़का नहीं मिल रहा था, इसलिए बहुत परेशान था। एक दिन वह अंबाला लड़का देखने गया उस दिन वह इतना निराश था कि उसने अपने मन में यह धारणा कर ली कि यदि आज बात नहीं बनी तो वह आत्महत्या कर लेगा। परन्तु वापसी में जब वह दरगाह के पास से गुजरा तो उसने बाबा से सच्चे मन से फरियाद की। उसका काम बन गया, बेटी की शादी अंबाला में ही हो गई। दुर्भाग्यवश वह चादर चढ़ाना भूल गया तो एक दिन स्वप्न में बाबा जी आए और कहने लगे कि चादर कहां हैं? उसने जब उनकी ओर देखा तो उस समय वह थानेदार की वर्दी में थे।
इसी प्रकार दिल्ली से एक श्रद्घालु परिवार ने बताया कि हमें स्वप्न में बाबा जी के दर्शन हुए हैं और उन्होंने आदेश दिया है कि दरगाह के साथ शिव मंदिर बनवाओ। अतः हम इसी काम के लिए आए हैं और उन्हीं की सहायता से यहां शिव मंदिर का निर्माण हुआ है। इन सब घटनाओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि बाबा जी सेना में कैप्टन थे तथा उनका कद 9 गज का था। इसके साथ-साथ यह भी तर्कसंगत हैं कि जो सिद्घ पुरुष होते हैं वे अपनी इच्छा अनुसार छोटा या बड़ा कोई भी रूप धारण कर सकते हैं, जैसे हनुमान जी कभी लघु रूप और कभी विशाल रूप धारण कर लिया करते थे।
बहुत साल पहले की घटना है कि सेबों के टक कश्मीर से दिल्ली आते थे। जो डाइवर पहले पहुंचता था उसे 100 रुपये का इनाम दिया जाता था। अतः डाइवर बाबा से मन्नत मांगते थे कि उन्हें सही समय पर ठीक-ठाक पहुंचा देना। एक डाइवर ने सोचा कि बाबा को टाइम का कैसे पता चलेगा तो उसने बाबा की दरगाह पर घड़ी चढ़ा दी, तभी से घड़ियां चढ़ाने की परम्परा बन गई है। इसलिए अनेक श्रद्घालु अब बाबा की दरगाह पर घड़ियां भी चढ़ाते हैं।
अब भी यह स्थान बहुत सुंदर तथा रमणीक है, इसलिए अनेक श्रद्घालु सड़क पर आते-जाते कुछ क्षणों के लिए यहां अनायास ही रुक कर आनंद, सुख व शांति का अनुभव करते हैं।
– एम.एल. शर्मा
One Response to "मुरादें पूरी होती हैं नौगजा पीर पर"
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