बरसो मेघ, जल बरसो, इतना बरसो तुम
जितने में मौसम लहराए, उतना बरसो तुम
बरसो प्यारे धान-पात में, बरसो अंगारों में
फूला नहीं समाए सावन मन में दर्पण में
मेघों के बरसने की कामना लिए किसानों की आँखें आसमान की ओर टिकी हुई हैं। सुबह-शाम वे बादलों की ओर ताके जा रहे हैं कि कब बारिश हो और कब खेतों में फ़सलें लहलहाएँ, लेकिन देश के कई प्रदेशों में मेघ राजा ने अभी तक अपनी कृपा नहीं की है। ऐसी ही स्थिति में विख्यात कवि कैलाश गौतम की वह पंक्तियॉं याद आ गयीं। मेघों के ना बरसने से उत्पन्न वातावरण को देखते हुए कवि पाता है कि खेतों में सारस का जोड़ा नहीं उतरा है। बीर बहूटी के टोले अभी नहीं गु़जरे हैं। चित्त को बूंदों के गिरने से मिट्टी की सोंधी महक उठने के पल का इन्ते़जार है।
पानी में माटी में कोई तलवा नहीं सड़ा
और साल की तरह न अब तक धानी रंग चढ़ा
कवि सोचता है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह जिस तरह से टूट कर अलग हुआ है, बादल के साथ भी तो ऐसा कुछ नहीं होगा! लेकिन उसे याद आता है कि मौसम से उसके कुल का संबंध तो काफी पुराना है, फिर भी वह चाहता है कि राग में जो बारह आना प्राण है, वह बना रहे।
मेरी तरह मेघ क्या तुम भी टूटे हारे हो
इतने अच्छे मौसम में भी एक किनारे हो
इतना करना मेरा बारह आना बना रहे
अम्मा की पूजा में ताल मखाना बना रहे
देह न उघड़े महंगाई में लाज बचानी है
छूट न जाए दुःख में सुख की प्रथा पुरानी है
शहरों में रहने वालों के लिए बारिश का महत्व केवल पेयजल तक सीमित रहता है। बहुत कम लोगों को इस बात का एहसास होता है कि प्रकृति का सारा कारोबार बारिश पर ही निर्भर है और फिर गांव के किसानों का जीवन तो पूरी तरह उसी पर निर्भर है। बारिश होगी तो जीवन होगा, वरना आँखों में निराशा ही निराशा छाई रहती है। सिर्फ इतना ही नहीं मवेशियों को चारा कहॉं से मिलेगा।
कैलाश गौतम का जन्म 1944 में जनपद वाराणसी में हुआ था, जिसे अब चंदौली कहा जाता है। लगभग चार दशकों तक उन्होंने हिन्दी कविता की सेवा की। “सीली माचिस की तीलियॉं’, “जोड़ा ताल’, “तीन चौधाई अंश’, “सिर पर आग’ जैसी कृतियों के अलावा दोहा, निबंध एवं उपन्यास लेखन में भी उन्होंने उल्लेखनीय योगदान किया। 9 दिसंबर, 2006 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा।
बादल और बारिश का जिा चला तो उनकी कई कविताएँ याद आती हैं। बादल को कवि एक और उद्देश्य से भी याद करता है। यह भी कि बादल जब प्रिय का पता पूछेंगे तो वह क्या कहेगा।
यही सोच कर आज नहीं निकला गलियारे में
मिलते ही पूछेंगे बादल तेरे बारे में
लहराते थे झील तार पर्वत हरियाते थे
हम हॅंसते थे झरना-झरना हम बतियाते थे
इन्द्रधनुष्य उतरा करता था एक इशारे में
छूती थी पुरवाई खिड़की बिजली छूती थी
झूला छूता था झूले की कजली छूती थी
टीस गयी बरसात भरी पिछले पखवारे में
कवि का मानना है कि बारिश आकर उसके मन के भीतर विश्र्वास जगाती है कि वह है तो सूनी घाटी हरियाली से भर जाती है और अगर मेघ नहीं बरसते तो गांवों में सब तीज-त्योहार भी सूने-सूने हो जाते हैं।
गांव की बात निकली तो कैलाश की एक और दिलचस्प कविता “जब गांव गया था गांव से भागा’ स्मरण हो आती है। वे जब रामराज का हाल, पंचायत की चाल, आँगन में दीवाल (दीवार), सिर पर आती डाल और आँख में बाल देखते हैं तो गांव से भाग जाना चाहते हैं। सरकारी स्कीमों का भ्रष्टाचार, नीम हकीमों का कारोबार एवं राम रहीम गिरवी रखे देख कर गांव गये ़कदम फिर से वापिस पलट जाते हैं।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देख कर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इन्सान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गॉंव गया था गांव से भागा
-एफ. एम. सलीम
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