मैं चंदन हूँ
मुझे घिसोगे तो महकूँगा
घिसते ही रह गए अ़गर तो
अंगारे बनकर दहकूँगा।
मैं विष को शीतल करता हूँ
मलयानिल होकर बहता हूँ
कविता के भीतर सुगंध हूँ
आदिम शाश्र्वत नवल छंद हूँ
कोई बंद न मेरी सीमा –
किसी मोड़ पर मैं न रुकूंगा।
मैं चंदन हूँ।
बातों की पर्तें खोलूँगा
भाषा बनकर के बोलूँगा
शब्दों में जो छिपी आग है
वह चंदन का अग्निराग है
गूंजेगी अभिव्यक्ति हमारी –
अवरोधों से मैं न झुकूँगा।
मैं चंदन हूँ।
जब तक मन में चंदन वन है
कविता के आयाम सघन हैं
तब तक ही तो मृग अनुपम है
जब तक कस्तूरी का धन है
कविता में चंदन, चंदन में –
कविता का अधिवास रचूंगा।
मैं चंदन हूँ।
– गुलाब सिंह
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