मोदी की हुई “नैनो’

पश्र्चिम बंगाल से निर्वासित होने के बाद यूँ तो “नैनो’ को गोद लेने को कई प्रांतों की राज्य सरकारें बेताब थीं, लेकिन रतन टाटा ने सारे ऊहापोहों को विराम देते हुए इसे गुजरात की झोली में डाल दिया। टाटा समूह गुजरात सरकार के साथ हुए एक समझौते के तहत अब अपना यह महत्वाकांक्षी कारखाना साणंद में 2,000 करोड़ रुपये के निवेश के साथ स्थापित करेगा और गुजरात सरकार इसके लिए 1100 एकड़ जमीन उपलब्ध करायेगी। इस परियोजना के संबंध में अंतिम फैसला हो जाने के बाद टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा ने न सिर्फ खुशी का इजहार किया अपितु गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की खुल कर प्रशंसा भी की। उन्होंने कहा कि जिस तत्परता के साथ गुजरात के मुख्यमंत्री ने परियोजना के लिए 1100 एकड़ ़जमीन उचित समय पर मुहैया कराई है वह उनकी कार्यक्षमता का एक उदाहरण है। इस समझौते की बाबत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी कहना है कि इस परियोजना के साथ गुजरात अपने औद्योगिक भविष्य का एक नया अध्याय लिखेगा। इस भविष्य को गुजरात सरकार और टाटा समूह अपने सम्मिलित प्रयास से अमलीजामा पहनायेंगे।

कहने को तो यह कहा जा सकता है कि इस परियोजना को प्राप्त करने के लिए बहुत-सी राज्य सरकारों ने टाटा समूह को “नैनो’ कारखाना स्थापित करने का आमंत्रण देना उसी दिन से शुरू कर दिया था जिस दिन सिंगूर कारखाने में तालाबंदी की घोषणा की गई थी, लेकिन यह दौड़ तब और ते़ज हो गई थी जब रतन टाटा ने अंतिम रूप से सिंगूर स्थित कारखाने को बन्द करने का ऐलान किया था। लेकिन “नैनो’ के लिए टाटा ने गुजरात के साणंद को ही चुना तो इसके पीछे उनकी नापतौल वाली व्यापारिक बुद्घि का ही कमाल है। कमाल नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार का भी है। जिसके बारे में टाटा मोटर्स के एम.डी. रविकांत का कहना है कि सिंगूर कारखाने की बंदी की घोषणा के सिर्फ 10 दिनों के भीतर जिस तरह मोदी सरकार ने न सिर्फ जमीन की व्यवस्था की, बल्कि इस संबंध में सभी आवश्यक कानूनी प्रिायाओं को पूरा किया, वह अपने आप में हैरतअंगेज है। रविकांत का कहना है कि अब हम इस ़जमीन पर अपना कारखाना लगाने का काम शुरू कर सकते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए यह उपहार एक सुखद संयोग बन कर उस समय आया है, जब उन्होंने पिछले 7 अक्तूबर को गुजरात में अपने शासन का सातवॉं वर्ष पूरा किया। अतः इसकी खुशी अगर दोनों पक्षों में समान रूप से वितरित हुई है तो इसे अकारण नहीं माना जा सकता।

जहॉं तक “नैनो’ परियोजना को लेकर दुःखी और निराश होने का संबंध है, वह सर्वाधिक प. बंगाल और उसके मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य के हिस्से में गई है। निराश उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी होना पड़ा है जो “नैनो’ की अगवानी में पलक-पॉंवड़े बिछाये बैठे थे। इस परियोजना को हस्तगत करने के लिए पिछले कई दिनों से होड़-सी मची हुई थी और हर पक्ष से इस कारखाने के लिए काफी बढ़-चढ़ कर घोषणायें की जा रही थीं। लेकिन उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि बंगाल के अनुभव के बाद टाटा अब छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने की नीति का ही अनुसरण करेंगे। सुविधाओं के नाम पर वे कभी इस बात को तरजीह नहीं दे सकते थे कि उन्हें एक उपद्रव से निकलकर दूसरे उपद्रव का ग्रास बनना पड़े। औद्योगिक विकास की प्राथमिक शर्त शांति-व्यवस्था होती है और टाटा ने गुजरात को इसलिए चुना है क्योंकि मोदी के राज्य में तमाम आलोचनाओं के बावजूद देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा कानून व्यवस्था सर्वाधिक चाक-चौबन्द है। अब इस संबंध में मोदी अगर कोई दावा पेश करते हैं तो उसे सिर्फ राजनीतिक कारणों से ही निरस्त किया जा सकता है।

तेदेपा-तेरास की ऩजदीकी

आज की राजनीति में सैद्घांतिकता लगभग विदा हो गई है। अगर कुछ बची भी है तो सिर्फ भाषणों के लिए बचा कर रखी गई है। वर्ना वोटों का गणित कब किस दल को किस दल के नजदीक ला देगा, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। आंध्रप्रदेश के पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ तेलंगाना राष्ट समिति ने कम्युनिस्टों के एक धड़े के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था और इस चुनावी गठबंधन को भारी सफलता भी मिली थी। निश्र्चित रूप से कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य के गठन का वादा भी किया था। हालॉंकि उसने आधिकारिक तौर पर अभी यह घोषणा नहीं की है कि वह इसके गठन के खिलाफ है लेकिन उसने अपना वादा पूरा करने की दिशा में कोई सार्थक प्रयत्न भी नहीं किया। तेरास से उसकी अलहदगी का कारण भी कांग्रेस की यही दोतरफा राजनीति बनी है।

कांग्रेस से हद दर्जे निराश होने के बाद अब तेरास ने उस तेलुगु देशम पार्टी से अगले चुनाव के लिए गठबंधन करने का मन बनाया है जिसके सुप्रीमो चन्द्रबाबू नायुडू अभी हाल तक आंध्रप्रदेश के किसी भी बंटवारे का पुरजोर विरोध करते थे। अब वे तेलंगाना राज्य के गठन को अपनी मंजूरी देने को लगभग तैयार दिखाई देते हैं। यह आंदोलन किसी जमाने में आंधी बन कर उभरा था और आज भी इस क्षेत्र के लोगों की यह अंतिम आकांक्षा है। लेकिन यह आकांक्षा राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ वोट बटोरने का एक भावनात्मक मुद्दा भर रह गई है। कल के कट्टर विरोधी यानी कि तेरास और तेदेपा यदि इस मुद्दे पर इकट्ठे हो रहे हैं तो इस पहल को तेलंगाना के लिए एक निर्णायक पहल माना जाय अथवा सिर्फ वोट बटोरने का जरिया?

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