मोर ध्वज सा राजा जगत में, हुआ ना दुनियाँ माँहिं।
अपने सुत को चीरन लाग्यों, सिंह की भोजन ताँहि॥ टेर ॥
साधु का सा भेष बनायो, अर्जुन और बनवारी।
लम्बी लम्बी जटा बढायी, भस्मीं रमायी सारी॥
आसन दिनों डाल द्वार पर धूनि देई है रमाई॥ 1 ॥
बोले राजा सुनो मुनिश्वर अरज करूँ मैं देवा।
इच्छा हो सो भोजन जिमों, करूँ आपरी सेवा॥
कोई बात की इच्छा हो तो, मुख से दो फरमाई॥ 2 ॥
बोले साधु सुनना राजा, सुनना वचन हमारा।
भुखे सिंह को भोजन दे दो फिर अन्न जल हो तेरा॥
सिंह की इच्छा पूरी ना होई, फिर गये दुनियाँ माँहि॥ 3 ॥
मोटा ताजा बकरा मँगा दूँ, कहो मँगा दूँ भैंसा।
हिरण और खरगोश मँगा दूँ, फरमाओगे जैसा॥
सिंह आपको काँई खावसी, मुख से ढो फरमाई॥ 4 ॥
राजा रानी रतन कुँवर की, दोय फाड कर देना।
सिंह उसी का भोजन करसी, हाल यही सुन लेना॥
मैं तो मोडा साधु कही जे, रहाँ पहाडा मांहि॥ 5 ॥
राजा रानी रतन कुँवर की, दोय फाड कर डाली।
ये क्या किना सँतजनों ने, रोवे दुनियाँ सारी॥
एक फाड सिंहन को डाली, दूजी महलाँ मांहि॥ 6 ॥
सन्तजनों ने भोजन पुरस्यो पातल धर दी न्यारी।
रतन कुँवर ने हेलो पाडियो, आय गयो सुरज्ञानी॥
एक पत्तल पुरसी बेटा ने, जीमाँ रही है माँई॥ 7 ॥
सागे रूप बना लिनो है, अर्जुन और बनवारी।
मोर मुकुट का दर्शन दिना, देखे दुनियाँ सारी॥
राजा रानी स्वर्ग सिधारीयाँ, बैकुण्ठा रे मांहि॥ 8 ॥
सन्तजनों ने कृपा किनी, मेहर करी मेरे दाता।
नया शहर में भजन बनावे, भेरु सिंह कत् गाता॥
सिखे सुनावे आनन्द पावें, सहाय करे रघुराई॥ 9 ॥
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